संपादकीय
दुनिया भर में इजराइल की एक कंपनी के बनाए हुए पेगासस नाम के एक सॉफ्टवेयर को लेकर हंगामा मचा हुआ है कि दर्जनों देशों की सरकारों ने इसका इस्तेमाल करके अपने देश के विरोधी नेताओं और मीडिया के लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं की जासूसी की, उनके फोन में घुसपैठ की, वहां से जानकारी चुराई, उनकी लोकेशन देखी कि वह किस वक्त कहां पर थे, उनके फोन की लॉग बुक देखी कि उन्होंने कब किसको फोन किया। और जैसा कि इस सॉफ्टवेयर को बनाने वालों का कहना है, जिस फोन में इसकी घुसपैठ हो गई, उसके कैमरा और माइक्रोफोन का इस्तेमाल करके बिना किसी को पता लगे इस सॉफ्टवेयर ने आसपास की तस्वीरें, वीडियो भेजने का काम किया, और वहां की आवाजों को बाहर ट्रांसमिट किया। कुल मिलाकर दुनिया के सभ्य लोकतंत्रों ने अपने नागरिकों की निजता के लिए जितने किस्म के कानूनी इंतजाम किए हैं, जितने तरह से उनकी हिफाजत के दावे किए हैं उसके ठीक खिलाफ जाकर इस कंपनी के ऐसा सॉफ्टवेयर बनाया और बेचा जिसने सबके बदन पर से तौलिया खींच दिया। कहने के लिए इस कंपनी का दावा यह है कि वह इजराइल की डिफेंस मिनिस्ट्री की इजाजत से ही दुनिया की चुनिंदा सरकारों को यह सॉफ्टवेयर बेचती है, और इससे आतंकी हमलों पर काबू पाने की सोच बताई गई है, और इसके अलावा नशे की तस्करी, बच्चों की तस्करी, महिलाओं की तस्करी को रोकने के लिए भी इसके इस्तेमाल का दावा किया गया है। कंपनी ने बढ़-चढक़र यह भी कहा है कि वह सरकारों और सरकारी एजेंसियों के अलावा किसी को यह सॉफ्टवेयर नहीं बेचती है। लेकिन दुनिया की बाजार व्यवस्था बताती है कि बाजार में कमाई के लिए काम करने वाले लोग लोकतंत्र या सभ्यता का कितना सम्मान करते हैं, उनको मानवाधिकार की कितनी फिक्र रहती है, यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है। इसलिए जब ऐसा कोई सॉफ्टवेयर बना है तो यह जाहिर है कि उस तक किसी की भी पहुंच हो सकती है जिसके पास इसको खरीदने की ताकत हो। कहने के लिए तो आज दुनिया के बहुत से जंग के मोर्चों पर इस्तेमाल होने वाले खतरनाक फौजी हथियारों को भी उन्हें बनाने वाले कारखाने, किसी न किसी देश की सरकार को ही बेचते हैं, लेकिन दुनिया का इतिहास बताता है कि गृहयुद्ध में लगे हुए हथियारबंद समूहों तक ये सारे हथियार कहीं न कहीं से पहुंचते ही हैं। दिलचस्प बात यह है कि इजरायल की इस कंपनी ने यह खुलासा भी किया है कि उसका सॉफ्टवेयर अमेरिका के किसी टेलीफोन नंबर पर काम नहीं कर सकता। उसे ऐसा बनाया गया है कि उसका अमेरिका में या अमेरिका के फोन नंबरों पर कोई इस्तेमाल ना हो सके। अब सवाल यह है कि अमेरिकी सरकार का ऐसा कितना काबू इजराइल की इस कंपनी पर है कि वह अमेरिका में जासूसी के लायक सॉफ्टवेयर ही ना बनाएं और यह बात जासूसी की शौकीन अमेरिकी सरकार की मर्जी से हुई है, या उसकी मर्जी के खिलाफ यह भी अभी साफ नहीं है।
खैर, जिन देशों की बात इसमें आ रही है और दुनिया के करीब एक दर्जन सबसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों ने मिलकर इस मामले की तहकीकात की है जिसमें दुनिया का सबसे बड़ा मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल भी शामिल था और दुनिया की कुछ सबसे बड़ी और साख वाली साइबर लैब ने इस मामले की जांच करके अपने नतीजे सामने रखे हैं। कुल मिलाकर जो तस्वीर सामने आ रही है उसमें यह है कि भारत में भी बहुत से ऐसे मीडिया कर्मी जिनका रुख सरकार के खिलाफ आलोचना का रहते आया है उनके फोन में भी पेगासस से घुसपैठ हुई है, दूसरी तरफ शुरुआती खबरें यह कहती हैं कि हिंदुस्तान के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे हुए एक जज के खिलाफ भी इस सॉफ्टवेयर से घुसपैठ हुई और इस जज पर सेक्स शोषण का आरोप जिस मातहत महिला कर्मचारी ने लगाया था, उसकी शिकायत के बाद उसके परिवार के 8 लोगों के टेलीफोन में इस सॉफ्टवेयर से हमले किए गए और वहां से जानकारी चुराने की कोशिश की गई। यह भी बात सामने आई है कि भारत में विपक्ष के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी और उनके सहयोगियों के फोन भी इस हमले के शिकार हुए हैं।
पिछले कुछ महीनों में ऐसी जानकारियां दूसरी बार सामने आई हैं और पिछली बार भी सरकार की तरफ से साफ-साफ शब्दों में ना तो पेगासस के इस्तेमाल की बात मानी गई थी न इसका खंडन किया गया था, और सिर्फ इतना कहा गया था कि निगरानी के लिए बने हुए कानून के मुताबिक ही काम किया जाता है। अभी भी जब दोबारा यह मामला उठा है और संसद का सत्र चल रहा है तब भी सरकार का रुख यही है कि मीडिया में सरकार पर पेगासस के इस्तेमाल को लेकर जो आरोप लग रहे हैं उन आरोपों में कोई दम नहीं है और वे किसी ठोस बुनियाद पर नहीं खड़े हैं। लेकिन सरकार की बात को ध्यान से पढ़ा जाए तो उसमें सरकार सीधे-सीधे इस बात पर कुछ कहने से बचते हुए दिख रही है कि इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल भारत में हुआ है या नहीं। सरकार इस बारे में कुछ भी नहीं कह रही है वह इस बात का खंडन तक नहीं कर रही है।
इस दौरान मीडिया में जो रिपोर्ट आई हैं उनमें जानकार कानूनी विशेषज्ञों का यह कहना है कि सॉफ्टवेयर बनाने वाली विदेशी कंपनी अपने हिसाब से कुछ भी बना सकती है लेकिन हिंदुस्तान का कानून इस बारे में बहुत साफ है कि यहां के कानून के मुताबिक तय किए गए तरीकों से ही लोगों के टेलीफोन या ई-मेल की निगरानी की जा सकती है, लेकिन उनमें किसी तरह की हैकिंग नहीं की जा सकती। हैकिंग अगर सरकार भी इस देश में करती है तो भी वह गैरकानूनी होगी ऐसा जानकर लोगों का कहना है। वैसे तो अभी संसद का सत्र चल रहा है और सरकार जवाबदेही के सबसे बड़े मंच पर विपक्ष के सवालों का जवाब देने के लिए एक किस्म से मजबूर है, लेकिन सच तो यह है कि चतुर और चालबाज सरकारें कुछ गोलमोल शब्दों का सहारा लेकर साफ-साफ जवाब देने से बचती हैं, और इससे अधिक कोई जवाबदेही इस देश में किसी सरकार की रह नहीं गई है। फिलहाल हम इस किस्म की सारी हैकिंग और घुसपैठ को बहुत ही अलोकतांत्रिक, बहुत ही परले दर्जे का जुर्म, और बहुत ही असभ्य बात मानते हैं। यह बात मानवाधिकार के भी खिलाफ है और लोकतांत्रिक देश के नागरिकों के निजता के अधिकार के खिलाफ तो है ही। ऐसे ही आरोपों को लेकर अमेरिका में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की सरकार चली गई थी क्योंकि उन्होंने अपने विरोधियों की बातचीत को रिकॉर्ड करवाने की कोशिश की थी, और एक अख़बार ने उसका भंडाफोड़ कर दिया था।
हिंदुस्तान में भी इस मामले को एक तर्कसंगत अंत तक पहुंचाने की जरूरत है क्योंकि यहां केंद्र और राज्य सरकारों को लोगों की जासूसी करवाने में बहुत मजा आता है, और यह बात लोकतंत्र को खत्म करने वाली हो सकती है। जब अपने विरोधियों को, अपने से सहमत लोगों को, ऐसी जासूसी का शिकार बनाया जाए, तो इसके पीछे जो कोई है उसकी जांच होनी चाहिए। हमारा ख्याल है कि अगर यह मामला कोई सुप्रीम कोर्ट में ले जाए तो वहां आज की हालत में इसकी सुनवाई की उम्मीद बंधती है, और हो सकता है कि अदालत सरकार से यह हलफनामा दायर करने को कहे कि उसने इस सॉफ्टवेयर से देश के लोगों की जासूसी करवाई है या नहीं। यह भी बहुत भयानक नौबत होगी कि कोई बाहरी एजेंसी हिंदुस्तान के लोगों की, किसी के भी कहने पर, ऐसी जासूसी करें। उस हालत में भी यह सरकार की ही जिम्मेदारी होगी कि वह इसकी जांच करवाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)