संपादकीय
केंद्र सरकार ने लंबे समय बाद हो रहे संसद के सत्र में एक सवाल के जवाब में कहा कि कोरोना के दौर में देश में ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई। इसे लेकर देश हक्का-बक्का रह गया और संसद में कई विपक्षी दलों के लोगों ने इसे लेकर खासी नाराजगी जाहिर की क्योंकि इस पूरे दौर में लोग ऑक्सीजन की कमी से कोरोना मरीजों को मरते देख रहे थे, परिवार के लोगों को बिलखते देख रहे थे, अस्पतालों ने नोटिस लगा दिए थे कि ऑक्सीजन उनके पास नहीं है, और मरीजों को कहीं और ले जाएं। ऐसे में केंद्र सरकार का यह कहना कि ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई है, एक बड़ी ही अटपटी बात लग रही है। लेकिन इससे भी अधिक दिलचस्प और तकलीफदेह बात यह है कि किसी राज्य सरकार ने अपने भेजे गए आंकड़ों में केंद्र सरकार को यह नहीं कहा कि उनके राज्य में ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत हुई है। केंद्र सरकार की इस बात में दम है कि वह तो महज राज्यों से मिले हुए आंकड़ों को जोडक़र संसद को बतला देती है। यह एक अलग बात है कि केंद्र सरकार लगातार यह देख रही थी कि ऑक्सीजन की कमी से देश में मौतें हो रही हैं और देश में ऑक्सीजन की बहुत बुरी कमी चल रही है, लेकिन जब तक अस्पतालों के इंचार्ज राज्य के अधिकारी यह बात मानेंगे नहीं कि ऑक्सीजन की कमी से मौतें हुई हैं, तब तक केंद्र सरकार अपनी तरफ से कैसे कह सकती है कि कुछ मौतें ऑक्सीजन की कमी से भी हुई हैं ?
भारत में केंद्र और राज्य सरकारों का यह मिला-जुला पाखंड नया नहीं है। इस देश में पिछली करीब पौन सदी से यह देखने में आ रहा है कि जब कभी भूख से कोई मौत होती है, तो वहां की राज्य सरकार बड़ी तेजी से ऐसी पोस्टमार्टम रिपोर्ट पेश कर देती है जिसमें लाश के पेट से पचा हुआ खाना निकला बताया जाता है। मरने वाले के घर पर कुछ किलो अनाज दिखा दिया जाता है। उस इलाके की राशन दुकान के रिकॉर्ड बताने लगते हैं कि मरने वाले को कुछ दिन पहले ही अनाज दिया गया था। कुल मिलाकर कोई भी राज्य सरकार हिंदुस्तान में आज तक इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हुई है कि उनके यहां भूख से कोई मौत हुई है। और तो और, कुपोषण के जो आंकड़े बतलाते हैं कि बहुत से बच्चे कुपोषण की वजह से बहुत गंभीर रूप से कमजोर हैं, उनकी मौत पर भी उनकी मौत को कुपोषण से मौत दर्ज करने में सरकारें कतराती हैं, और उन्हें भी किसी बीमारी से मौत बतला दिया जाता है। बात यहीं तक सीमित नहीं है, कई ऐसे राज्य हैं जिन्होंने पिछले डेढ़ बरस में कोरोना से होने वाली मौतों को कोरोना के साथ दर्ज नहीं किया है और महज किसी और बीमारी से मौत दर्ज कर लिया है। नतीजा यह निकला कि केंद्र सरकार या राज्य सरकार जब कोरोना मौतों पर कोई मुआवजा देने की तैयारी कर रही हैं, तो उस लिस्ट में भी इन मरने वालों के घर वालों का नाम नहीं आ पा रहा क्योंकि उनकी मौतों को ही कोरोना मौत दर्ज नहीं किया गया है।
सरकारों का गजब का करिश्मा तो तब देखने मिलता है जब उनके राज्य में कोई किसान आत्महत्या करते हैं। किसानों की आत्महत्या क्योंकि एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा भी बनता है, और सरकार को जवाब देने में मुश्किल होती है, इसलिए देश के कई राज्यों ने किसान की आत्महत्या को कुछ दूसरी वजहों के साथ दर्ज करना शुरू कर दिया है। आत्महत्या करने वाले के पेशे या रोजगार के कॉलम में किसान दर्ज ही नहीं किया जाता। और आत्महत्या की वजह में नशे की आदत, कर्ज में डूबना, या कहीं अवैध प्रेम और सेक्स संबंध जैसी बातें दर्ज कर ली जाती हैं, लेकिन किसानी के नुकसान से, किसानों के कर्ज से आत्महत्या हुई हो, ऐसा रिकॉर्ड में नहीं आने दिया जाता। नतीजा यह होता है कि सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार किसान की आत्महत्या पर उठने वाले असुविधाजनक सवालों से बच जाती हैं।
हिंदुस्तान में केंद्र सरकार और राज्य सरकारें अपनी सार्वजनिक छवि को बचाने के लिए सरकारी आंकड़ों को किसी भी हद तक दबाने-कुचलने, तोडऩे-मरोडऩे के लिए एक पैर पर खड़ी रहती हैं। जनधारणा का प्रबंधन पूरी तरह आंकड़ों और इमेज को लेकर चलता है। एक वक्त कुछ होशियार लोग यह कहते थे कि भारतीय लोकतंत्र में चुनाव 5 साल काम करके नहीं, चुनाव का मैनेजमेंट करके जीते जाते हैं। अब एक बात लग रही है कि चुनाव जनधारणा प्रबंधन से जीते जाते हैं, और लोगों के सामने सरकार की कैसी छवि पेश की जाती है, इससे भी जीते जाते हैं। भारतीय चुनावों में और भी कई मुद्दे रहते हैं जिनमें धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण, लोगों के बहुसंख्यक तबके को खुश करने वाले कई किस्म के मुद्दे रहते हैं जिनमें अल्पसंख्यकों को प्रताडि़त करने के मुद्दे भी शामिल रहते हैं। जब सरकारें झूठे और फरेबी आंकड़ों से अपने को बेहतर दिखाने की कोशिश करती हैं तो राज्यों के भेजे गए झूठे आंकड़ों पर भी केंद्र सरकार ने कोई आपत्ति नहीं की क्योंकि अलग-अलग पार्टियों की राज्य सरकारें जो भेज रही है उनसे केंद्र सरकार की एक देश के रूप में बेहतर छवि बनाने की कोशिश बिना खुद की मेहनत के पूरी हो रही है।
ऐसे में संसद में एक विपक्षी सांसद के दिए गए इस बयान को देखने की जरूरत है जिसने सोशल मीडिया पर लोगों को हिला कर रख दिया है। राज्यसभा में कोरोना पर बहस के दौरान आरजेडी सांसद मनोज कुमार झा ने कहा कि पूरे सदन को उन लोगों से माफी मांगनी चाहिए जिनकी लाशें गंगा में तैर रही थीं, पर उन्हें कभी स्वीकार नहीं किया गया। झा ने कोरोना संकट के दौरान ऑक्सीजन की कमी का मुद्दा उठाते हुए कहा कि सांसद होने के बावजूद वे लोगों की मदद नहीं कर पाए। मनोज झा ने कहा कि कोरोना के प्रकोप में देश के तमाम परिवारों ने किसी अपने को खोया है। उन्होंने कहा, ‘हम सबको एक साझा माफीनामा उन लोगों को भेजना चाहिए जिनकी लाशें गंगा में तैर रही थीं।’ उन्होंने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि हमने इस कोरोना महामारी में ऑक्सीजन की कमी के कारण कई मौतें देखी है। उन्होंने कहा कि हम आंकड़ों की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि सच्चाई से रूबरू होकर यह कहना चाहते हैं कि ये जो लोग हमारे बीच से आज चले गए, वो एक जिंदा दस्तावेज छोडक़र गए हैं, हमारी नाकामी का, उन्होंने कहा कि यह कलेक्टिव फेल्योर है 1947 से लेकर अब तक की सभी सरकारों का। मुफ्त वैक्सीन पर भी तंज कसते हुए झा ने कहा कि यह मुफ्त राशन, मुक्त वैक्सीन की बात जो हो रही है, यह कुछ मुफ्त नहीं है, इस वेलफेयर स्टेट का एक कमिटमेंट है, उसको सरकार कम ना करे, उसे बौना ना बनाए। उन्होंने कहा ‘मैं चाहता हूं, जगाना चाहता हूं आपको भी और सभी को भी, क्योंकि हमने असम्मानजनक मौत को देखा है, और अगर हमने इसे दुरुस्त नहीं किया तो आने वाली पीढ़ी आप हमें माफ नहीं करेगी।’ (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)