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दक्षिण अफ्रीका में हिंसा और लूट के शिकार क्यों बने भारतीय मूल के लोग?
23-Jul-2021 12:29 PM
दक्षिण अफ्रीका में हिंसा और लूट के शिकार क्यों बने भारतीय मूल के लोग?

-ज़ुबैर अहमद

चौथी पीढ़ी के दक्षिण अफ़्रीकी भारतीय खैरात दीमा का कहना है कि हाल की हिंसा में डरबन शहर के सिटी सेंटर में उनकी किराना दुकान पूरी तरह से लूट ली गई.

उन्होंने बीबीसी अफ़्रीका को बताया, "लुटेरों ने मेरे स्टोर को ख़ाली कर दिया और जाने से पहले तोड़फोड़ की".

खैरात ने अफ़सोस जताया कि "बहुत से लोगों ने अपनी दुकानों से अपना माल खो दिया."

जिन लोगों की दुकानों को लूटा गया या आग लगा दी गई या जिनके घरों में आग लगा दी गई उनमें से कई भारतीय मूल के संपन्न लोग थे जिससे समुदाय को ऐसा लगा कि हिंसा का निशाना वही हैं.

पिछले दिनों सोशल मीडिया दक्षिण अफ़्रीका में हुई हिंसा के वीडियो और तस्वीरों से भरा पड़ा था जिनमें लोग दुकानों, मॉल, घर और ट्रकों को या तो लूट रहे हैं या उन्हें जलाते दिख रहे हैं.

अब हिंसा का दौर थम-सा गया है क्योंकि लगभग 25,000 सैनिक प्रभावित इलाक़ों में तैनात किए जा चुके हैं जिन्होंने हिंसा पर क़ाबू पा लिया है, लेकिन भारतीय मूल के लोगों में अब भी डर है.

माइनॉरिटी फ़्रंट पार्टी की शमीन ठाकुर-राजबंसी दक्षिण अफ़्रीका के क्वाज़ुलु-नटाल प्रांत के विधानसभा की एक निर्वाचित सदस्य हैं. उन्होंने डरबन से बीबीसी हिंदी से बात करते हुए कहा, "मैं आपको बता सकती हूँ कि अभी हर समुदाय डर में जी रहा है. ज़ाहिर है, जब हिंसा अपने चरम पर थी तो भारतीय समुदाय में काफ़ी ख़ौफ़ था क्योंकि यह एक स्वाभाविक बात है."

इस हिंसा का केंद्र क्वाज़ूलू-नटाल का तटीय शहर डरबन था. यह डरबन शहर ही है जहां महात्मा गांधी 1893 में भारत से आकर रहे थे. बाद में गांधी जी ने पास के शहर फ़ीनिक्स में अपना आश्रम बनाया था, जो हाल की हिंसा में बुरी तरह से प्रभावित हुआ है. भारत के बाहर भारतीय मूल के सबसे अधिक लोग किसी शहर में रहते हैं तो वह डरबन ही है.

पूर्व राष्ट्रपति जैकब ज़ूमा की गिरफ़्तारी के बाद दक्षिण अफ्रीका के कई शहरों में भड़की हिंसा में 117 लोग मारे भी गए.

भारतीय मूल के लोग देश की आबादी का केवल ढाई प्रतिशत हैं, लेकिन इनमें से अधिकतर व्यापार से जुड़े हैं और धनी हैं.

उन्हें हुए नुक़सान का अंदाज़ा अभी पूरी तरह से नहीं लगाया जा सका है, लेकिन लूट-खसोट और तोड़-फोड़ ने समुदाय की आर्थिक कमर तोड़ दी है.

डरबन में शैक्षिक और राजनीतिक विश्लेषक लुबना नदवी ने बीबीसी हिंदी को बताया, "रंगभेद के ज़माने में कुछ ख़ास भारतीय टाउनशिप को बसाया गया था. फ़ीनिक्स जैसे कुछ भारतीय टाउनशिप में जो नुक़सान हुआ है वो भारतीय लोगों का ही हुआ है क्योंकि वहां ज़्यादातर भारतीय ही रहते हैं, लेकिन जो बड़े औद्योगिक और आर्थिक क्षेत्र हैं वहां सबका नुक़सान हुआ है."

पंजीयन ब्रदर्स नाम की एक भारतीय कंपनी की पांच शाखाएं हैं जिनमें से चार लूट ली गईं. इसके मालिक ने मीडिया वालों को बताया कि उन्होंने अपनी एक दुकान को लुटते हुए और पूरी तरह से गिरते हुए लाइव टीवी पर देखा. इसके बाद उनके रिश्तेदारों की बग़ल वाली दुकानें को लूटा गया और जला दिया गया.

भारतीय मूल की विधायक शमीन ठाकुर-राजबंसी कहती हैं, "तस्वीर यह है कि व्यवसायों पर अंधाधुंध हमला किया गया और पूर्व भारतीय क्षेत्रों में कई व्यवसाय तबाह हो गए और घरों पर हमला किया गया".

लुबना नदवी के मुताबिक़ कुछ दिनों तक घर में खाना उपलब्ध नहीं था क्योंकि फ़ूड सप्लाई करने वाले ट्रकों को आग लगा दी गई और ब्रेड-दूध वाली छोटी दुकानों को भी तबाह कर दिया गया.

भारतीयों को निशाना बनाया गया?
आम राय ये है कि शुरू के दिनों में हिंसा की चपेट में सभी समुदाय आए, लेकिन बाद में हुए हमलों में भारतीयों की संपत्तियों को निशाना बनाया गया. शमीन ठाकुर-राजबंसी इससे सहमत नज़र आती हैं, "शुरुआत में भारतीय समुदाय पर सीधे हमले नहीं किए गए. लेकिन अराजकता का माहौल रिहाइशी इलाकों में फैलने लगा और इस तरह नस्लीय तनाव पैदा होना शुरू हो गया, हालांकि पहले कोई नस्लीय तनाव नहीं था."

लुबना नदवी का मानना है कि भारतीय समुदाय को जानबूझ कर निशाना नहीं बनाया गया. "ये हमला यहाँ की अफ़्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) की सरकार के ख़िलाफ़ था, ये राष्ट्रपति सिरिल रामफोसा के विरोध में हिंसा की गई थी."

दक्षिण अफ़्रीका को एक रेनबो नेशन कहा जाता है जहाँ कई समुदाय और नस्ल के लोग आबाद हैं. जेल से रिहा होने के बाद नेल्सन मंडेला ने शांति और सुलह से रहने पर ज़ोर दिया. साल 1994 में दक्षिण अफ्रीका पहली बार लोकतंत्र बना और तब से कोशिश इस बात की की जा रही है कि सभी समुदाय मिली-जुली आबादी और मिले-जुले मोहल्लों में आबाद हों. इसमें काफ़ी कामयाबी मिली है, लेकिन अब भी राष्ट्रीय एकीकरण का मिशन पूरा नहीं हुआ है.

भारतीय मूल के लोग आबादी का केवल ढाई प्रतिशत हैं. गोरी नस्ल के लोगों की संख्या नौ प्रतिशत है. इसी नस्ल के नेताओं ने दक्षिण अफ़्रीका पर दशकों तक राज किया. 80 प्रतिशत स्थानीय काली नस्ल के लोग इस देश में रहते हैं. लेकिन दक्षिण अफ़्रीका के काले लोगों का इल्ज़ाम है कि भारतीय मूल के लोग उनके ख़िलाफ़ नस्ली भेदभाव कर रहे हैं.

भारतीयों के ख़िलाफ़ गंभीर आरोप
काली नस्ल के लोगों के साथ भारतीय समुदाय के रिश्ते आम तौर पर अच्छे हैं, लेकिन अंदर ही अंदर दोनों समुदायों के बीच सालों से सामाजिक तनाव जारी है जिसका इज़हार एक बार 1949 की हिंसा में हुआ था और दूसरी बार 1985 में हुई हिंसा के दौरान. लेकिन तब दक्षिण अफ़्रीका रंगभेद करने वाली गोरी नस्ल के नेताओं की सरकारों के अधीन था.

1994 से दक्षिण अफ़्रीका नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में एक लोकतांत्रिक देश बना जिन्होंने सभी समुदायों के साथ मेल-जोल बढ़ाने पर ज़ोर दिया. लेकन आज जो हिंसा हो रही है वो पिछले 25 सालों में कभी नहीं हुई.

काले लोगों में आम धारणा ये है कि भारतीय नस्लवादी हैं. जोहान्सबर्ग के निकट स्वेटो शहर के एक पत्रकार सीज़वे बीको कहते हैं कि नस्ली तनाव एक टिकिंग टाइम बम है. स्वेटो से बीबीसी से एक बातचीत में उन्होंने कहा, "वो (भारतीय मूल के लोग) कहते हैं वो काले हैं जब उन्हें राजनीतिक फ़ायदा होता है और जब उन्हें गोरी नस्ल के साथ गिने जाने की ज़रुरत होती है तो वो आसानी से हमारे ख़िलाफ़ हो जाते हैं.".

बीको के कई भारतीय मूल के दोस्त हैं और वो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि वो भारतीय समुदाय के ख़िलाफ़ नहीं हैं, लेकिन उनके अनुसार हक़ीक़त ये है कि "वो ख़ुद को हमसे कुछ हद तक श्रेष्ठ और गोरों के बराबर मानते हैं".

बीको को भारतीय मूल के लोगों के इस व्यवहार पर आश्चर्य नहीं हैं क्योंकि वो कहते हैं, "वो बंद दरवाजों के पीछे एक-दूसरे के साथ कास्ट सिस्टम की वजह से जिस तरह से पेश आते हैं वो और भी बुरा है. इसलिए हमारे प्रति उनके इस रवैये से हम आश्चर्य नहीं है."

शमीन ठाकुर-राजबंसी कहती हैं कि भेदभाव करने वाले हर समुदाय में हैं. "हमें सच को मानना चाहिए कि भारतीयों के बारे में काली नस्ल के बीच ये एक वास्तविक धारणा है, लेकिन भारतीय समुदाय में भी ये धारणा है कि काले लोग नस्लवादी होते हैं. लेकिन मैं आपको बता दूं कि नस्लवाद सभी समूहों में है."

वो आगे कहती हैं, "ऐतिहासिक रूप से यहाँ समुदायों के बीच तनाव रहा है जिसकी झलक 1949 और 1985 में देखने को मिली, लेकिन याद रखें कि ये घटनाएं दमनकारी शासन के तहत हुई थीं. हम अब लोकतंत्र हैं. लोकतंत्र के बाद पिछले 27 वर्षों से भारतीय समुदाय और अफ़्रीकी समुदाय साथ-साथ रह रहे हैं और वो शांति से सौहार्दपूर्वक रह रहे हैं."

लुबना नदवी कहती हैं कि भारतीय समुदाय के थोड़े लोग ही नस्लवादी हैं. "भारतीय समुदाय में अल्पसंख्यक लोग हैं जो नस्लवादी होंगे, जैसे कि हर समुदाय में कुछ लोग होते हैं जो अपने को दूसरों से ऊँचा समझते हैं और दूसरों को नीचे दिखाने की कोशिश करते हैं, लेकिन यहाँ रहने वाले अधिकतर भारतीय दक्षिण अफ़्रीकी दूसरे समुदायों के साथ मिलकर रहते हैं."

उन्होंने रंगभेद वाली सरकार को दोषी ठहराया. "मुश्किल ये है कि नस्लवाद की वजह से अलग-अलग समुदाय को अलग बसाया गया. नस्लवादी सरकार ने अलग-अलग समुदायों के बीच तनाव पैदा करने की कोशिश की थी."

ताज़ा हिंसा के दौरान सोशल मीडिया पर ऐसे कई वीडियो पोस्ट किए गए जिनमें भारतीय मूल के लोगों को लुटेरों पर गोलियां चलाते दिखाया गया था, ज़्यादातर लुटेरे काले थे. दक्षिण अफ़्रीका के अख़बारों में भी भारतीय लोगों पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने गोलियाँ चलाईं.

इन हमलों पर दक्षिण अफ्रीका के काली नस्ल के नेताओं के बयान अब भी आ रहे हैं. जूलियस सेलो मालेमा एक प्रसिद्ध युवा नेता और सांसद हैं, जिन्होंने 2013 में राजनीतिक दल, इकनोमिक फ़्रीडम फ़ाइटर्स की स्थापना की थी. अपने एक ट्वीट में उन्होंने कहा, "मैं फ़ीनिक्स के केवल एक मामले पर बोलना चाहता हूँ जहां भारतीय हमारे लोगों को मार रहे थे. पुलिस को उन लोगों को ढूंढना होगा क्योंकि हमारे पास उन्हें खोजने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. जितनी जल्दी वे ऐसा करें, उतना ही बेहतर होगा."

अबेदनेगो नाम के एक युवक ने अपने एक ट्वीट में कहा, "उन बंदूकधारी भारतीयों और गोरे लोगों से नफ़रत मत करो, बल्कि हमें यह पूछने की जरूरत है कि काले लोगों के पास बड़ी बंदूकें क्यों नहीं हैं."

सामाजिक एकता के टूटने का खतरा
कई विश्लेषकों के विचार में दक्षिण अफ़्रीका की बड़ी समस्याएं भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और आर्थिक रूप से एक असमान समाज है. जब से दक्षिण अफ़्रीका एक लोकतंत्र बना है अफ़्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस (एएनसी) सत्ता में है जिसकी आर्थिक नीतियां नाकाम रही हैं और पार्टी गुटबंदी का शिकार हो गई है.

'डेली मेवेरिक' के सहयोगी संपादक फ़ेरियल हफ़ाजी ने अपने एक लेख में सुझाव दिया है कि हिंसा का उद्देश्य पहले से ही कमज़ोर अर्थव्यवस्था को और भी कमज़ोर करना था, जिससे राष्ट्रपति रामफोसा की सरकार और भी कमज़ोर होगी. विशेषज्ञ कहते हैं कि गुटबाज़ी से परेशान एएनसी मोटे तौर पर दो मुख्य समूहों में विभाजित है.

एक का नेतृत्व राष्ट्रपति रामफोसा कर रहे हैं, जो उनके समर्थकों के अनुसार जैकब ज़ूमा प्रशासन के दौरान कथित भ्रष्टाचार और लूटपाट के एक दशक के बाद धीरे-धीरे सरकारी संस्थानों और जवाबदेही का पुनर्निर्माण कर रहा है. दूसरा गुट पूर्व राष्ट्रपति ज़ूमा के प्रति सहानुभूतिपूर्ण और कट्टर वफ़ादार है.

भ्रष्टाचार और भारत के गुप्ता बंधुओं की भूमिका
पूर्व राष्ट्रपति जैकब ज़ूमा भ्रष्टाचार के इल्ज़ाम में 15 महीने की जेल की सजा काट रहे हैं. वो भारत से दक्षिण अफ़्रीका जाकर व्यापार करने वाले भारतीय गुप्ता भाइयों के काफ़ी क़रीब थे.

उनके ख़िलाफ़ जारी एक जांच में इस बात का भी पता लगाया जा रहा है कि क्या उन्होंने भारत के तीन गुप्ता भाइयों को उनके व्यापार में फ़ायदा पहुँचाया.

इन भाइयों के नाम हैं अतुल गुप्ता, अजय गुप्ता और राजेश गुप्ता. ज़ूमा के ख़िलाफ़ इल्ज़ाम ये है कि उन्होंने इन तीनों भाइयों को राज्य के संसाधनों को लूटने और सरकारी नीतियों को प्रभावित करने की अनुमति दी. ज़ूमा और गुप्ता भाइयों ने इन इल्ज़ामों को ग़लत बताया है.

जैकब ज़ूमा को 2018 में इस्तीफा देना पड़ा जिसके बाद उनके ख़िलाफ़ जांच शुरू हो गई. इस बीच गुप्ता भाइयों ने दक्षिण अफ़्रीका छोड़ दिया. देश की अदालत में चल रहे कई मुक़दमों में उनके नाम हैं और दक्षिण अफ़्रीका की पुलिस उन्हें तलाश कर रही है.

कई लोग मानते हैं कि गुप्ता ब्रदर्स के ख़िलाफ़ आम जनता का ग़ुस्सा भारतीय पर निकाला गया है. गुप्ता ब्रदर्स 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश के शहर सहारनपुर से दक्षिण अफ़्रीका गए थे. (bbc.com)

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