विचार / लेख
-रमेश अनुपम
माखनलाल चतुर्वेदी जैसा मेधावी शिष्य माधवराव सप्रे जैसे प्रतिभाशाली गुरु की खोज थे। खंडवा से बुलाकर उन्होंने ही जबलपुर में " कर्मवीर ” पत्र के संपादन का गुरूतर भार सौंपा था।
योग्य गुरु ने माखनलाल चतुर्वेदी के भीतर छिपी हुई प्रतिभा को पहचान लिया था।
माधवराव सप्रे के अंतिम दिनों तक गुरु और शिष्य का साथ बना रहा। दोनों एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते थे।
माधवराव सप्रे के निधन के पश्चात माखनलाल चतुर्वेदी ने मई 1926 में अपने गुरु पर एक मार्मिक कविता लिखी है। यह कविता आज गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु और शिष्य का पुण्य स्मरण करते हुए प्रस्तुत है :
कहाँ चले? क्या अपने मठ का पथ भूले हो? कहाँ चले?
कहाँ चले? संयम का जीवन-
रथ भूले हो? कहाँ चले?
कहाँ चले? क्या वहाँ राष्ट्र भाषा का हित है? कहाँ चले?
कहाँ चले? रे तपी बता क्या स्वप्रोत्थित है? कहाँ चले?
क्या सम्मेलन है कोई? क्या 'शास्त्री' ने बुलवाया है
या नर्मदा तीर से तुझको बता बुलावा आया है?
श्वेत केश ही काफी है, तू-पुतली मत कर श्वेत सखे !
हरियाले दिन की आशा को मत अभाव से रेत सखे।
कष्टों का रथ काफी है, मत वीर 'रथी' अपनावे तू
उत्तरा खंड में चलो चलें इस दशा भूल मत जावे तू।
जो अपनी भूमि जगाने को सहसा नंगे पैरों दौड़ा,
आहा ! नंगे ही पावों यों पथ नहीं मृत्यु का भी छोड़ा !
"विश्राम कर्म को कहते हैं" यह कहाँ सुनाई पड़े कहो ?
"भगवान कर्म में रहते हैं " क्यों कर दिखलाई पड़े कहो?
चल बस, कर्म करते-करते रे राष्ट्र-धुरीण कर्मयोगी!
निन्दा झिड़की, अपमान, द्वेष, सप्रेम महान् कष्टभोगी!
अपनों ही के होते अपार तुझ पर प्रहार थे 'कभी-कभी'
हम तेरा गर्व गिराते थे ऐसे उदार थे कभी-कभी!
"मैं विद्यार्थी हूँ" पढ़ो तुम्हारे कष्ट हटाये जायेंगे,
"मैं रोगी, भाषा-सेवी हूँ" सेवा अवश्य ही पावेंगे,
"मैं भावों का दीवाना हूँ" बस मातृभूमि पर चढ़ जाओ,
"लेखनी लिये हूँ" क्रान्ति करो, लिख चलो, युद्ध में बढ़ जाओ;
लाओ जागृति के चरणों में युवकों के शीश चढ़ा डालूँ,
थैलियाँ हजारों माता पर- हँस कर बरबाद करा डालूँ।
बेकार तुम्हारा जाना है है, 'नारायण'' नेत्रों आगे,
तुम तज 'अनन्त' को, यो अनन्त के पथ में क्यों चर अनुरागे?
बलि का शिर सहसा झुके- जहाँ, वह 'वामन' का अवतार यहाँ
रवि - रश्मि नसा दे अन्धकार है वह प्यारा व्यापार यहाँ।
गणपति', शंकर, हैं सेवा में बलि हो जायेंगे
यही रहो इस रुदन मालिका को, कुंठित हैं, क्या शीर्षक दें तुम्हीं कहो?
जिसके लेने से जगते थे जागृति का पावन नाम चला,
फल की आशा को ठुकराये उन्मुक्त मुक्ति धन काम चला!
आत्माभिमान की बेदी का पिछड़े प्रदेश का दाम चला
सब बोल उठे 'जयराम' और दुखियों से अपना राम चला!'
यह नाम चला, यह काम चला यह दाम चला, यह राम चला!
साहित्य कोकिला कहाँ रमें? अपना अभिमत आराम चला!
ना, ना, मत आग लगाओ, हा, लग जायेगी यह लाखों में!
क्यों देते हो तुम 'दाग', दाग? पड़ जाय कहीं मत आँखों में!
क्या मुट्ठी भर हड्डियाँ? नहीं, ये अभिलाषाएँ राख हुई !
गलियाँ कल तक हरियाली थीं सहसा अब वे वैषाख हुई !
मत छेड़ो, जी भर रोने दो, मत रोको अन्तरतम खोलो ;
बस करुण कंठ से एक बार दृढ़ हो, माधव माधव !! बोलो।
वह मूर्ति कर्म में जीती थी हो परम शान्त प्रस्थान किया.
अगणित अनुनय बेकार हुए निष्ठुर हरि ने कब ध्यान दिया !
दुनियाँ की आँखमिचौनी से वे दोनों आँखें बन्द हुई,
बन्धन ठुकराकर, तपोमयी वह आत्मा अब स्वच्छंद हुई
किन्तु प्रेम के अंतस्तल में उलझा उसका काम
स्मृतियों के एकांत देश में लिखा मधुर वह नाम।
अन्तर्धान हुए, पर, सूरत-अभी दृष्टि आती है,
अन्तक हार गया, ध्वनि प्यारी अभी सुनी जाती है।
भुजा न पहुँचे, हृदय चरण तक अभी पहुँच पाता है
खुलने पर मत रहे, बन्द आँखों में आ जाता है!
शोक तरंगिणि में मत छूटे, सहसा मेरा धीर,
सिसक बन्द हो, धुल मत जाये, यह उज्ज्वल तसवीर।
देख न पाये श्रद्धास्पद् वह तेरा देश-निकाला,
देख न पाये, खारूं के तट जलने वाली ज्वाला;
देख न पाये मनसूबों की कैसी थी वह धूल,
देख न पाये, जल जाने पर कैसे थे वे फूल !
देख न पाये मधुर वेदना जीवित है पछताना,
कह न सके "अलविदा-" लौट कर इसी भूमि पर आना?
जिन हाथों पुष्पांजलियाँ थीं उन हाथों हैं ज्वाला,
और कपाल-क्रिया करने को है प्रहार का प्याला!
गा देता था, हँसते देखा मैंने कभी श्मशान,
किन्तु आज नीरस वंशी है नहीं लौटते प्राण।
करुणा बढ़ती है. री मुरली री अगणित अघ-छिद्रा !
हा!हा!! माधव की बढ़ती है यह अपार चिरनिद्रा !
किस मुँह से लौटू अपनों में? क्या सन्देश सुनाऊँ?
बलियों के वे गीत आज मैं किसके स्वर में गाऊँ?
कैसे धन को शील सिखाऊँ?
गुण को धीर बँधाऊँ?
कुटी और महलों तक कैसे हृदय-ज्योति पहुँचाऊँ?
किसको दूनी लगन लगेगी घावों के पाने पर,
और कौन हुंकार उठेगा आँसू आ जाने पर ?
मित्र बना, छत्तीसोगढ़ में कौन प्रकाशन करेगा.
'दास-बोध' में कौन शिवाजी पाने को उतरेगा?
'भारतीय युद्धों का किसको आवेगा उन्माद?
विजय प्राप्ति में किसको आवेगा दिन दूना स्वाद
कौन लोकमान्यत्व लायँगे केसरि हों गरजेंगे
लख 'हिन्दी- गीता रहस्य किस पर लाखों लरजेंगे?
किसे न छू पायेगा अपनी विद्या का अभिमान ?
अपनी मृत्यु कौन देखेगा जीते जी मतिमान ?
किसे करेगी विकल राष्ट्रभाषा की एक पुकार?
टूटे हृदय कौन जोड़ेगा-झुककर अगणित बार!
किसे दिखाई देंगे छोटे-राष्ट्र-हितैषी जीव?
कौन भोग से अधिक-त्याग में तत्पर रहे अतीव?
आगे आने वाली घड़ियाँ किसे दीख जायेंगी?
सम्मानों की राशि कहाँ निश्चित ठोकर पायेंगी?
कहाँ आप्त जन पर बरसेगा गुरुजन का सम्मान ?
कहाँ 'घात का बदला होगा प्रेम और सम्मान ?
किसे कुमारी से हिमगिरि तक 'महाराष्ट्र' दीखेगा?
कौन तपस्वी, घोर तपस्या यों किससे सीखेगा?
किसमें शत्रु वीर श्री पायेंगे: अपने अपना सा?
कौन बधिक के निश्चय को कर डालेगा सपना-सा ?
चढ़ जावेगा कौन अभय हो अपनों के चरणों पर?
अंजलियाँ अर्पित होवेंगी किसके आचरणों पर?
किसे वेदना होगी सबको हिला-मिला देने की?
अपने ही शिर, आप स्वयं एकान्तवास लेने की ?
अहह ! बिना बादल बिजली गिर पड़ी निठुर व्यापार हुआ!
मृत्यु द्वार खुल पड़ा, हाय! यह महँगा देशोद्धार हुआ।
विमल विजय सानी गीता का वीर गान गाते-गाते.
"मैं न मरूँगा अभी" यही ध्वनि अंतिम पल तक गुंजाते;
विकल रायपुर, आकुल परिजन मध्यप्रदेश श्मशान हुआ,
दीन राष्ट्रभाषा चीत्कारी! माधव का प्रस्थान हुआ !
अगले रविवार पिंगलाचार्य जगन्नाथ प्रसाद ’भानु’