विचार / लेख
-गिरीश मालवीय
अरब स्प्रिंग क्या अब किसी को याद है ? कल जब ट्यूनीशिया में हुई हिंसा से जुड़ी खबरें सुर्खियों में आई तो मुझे इस आंदोलन की याद आयी ...दरअसल अरब स्प्रिंग की शुरुआत ट्यूनीशिया से ही हुई थी... हुआ यह था कि 17 दिसंबर 2010 को ट्यूनीशिया में मोहम्मद बउजिजि नाम के फल विक्रेता ने पुलिस और प्रशासन की 'नाइंसाफी' से परेशान होकर खुद को आग लगा ली थी, शासक जैनुल आबिदीन बेन अली की हुकूमत ट्यूनीशिया में 24 साल से चल रही थी। जाहिर है, लोगों का गुस्सा शांत करने की कोई जरूरत उसे नहीं महसूस हुई। ....बोआजिजी की मौत के महज 10 दिनों के भीतर ही पूरे ट्यूनिशिया में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. लोगों में गुस्सा इतना ज्यादा था कि सरकार के खिलाफ हिंसा शुरू हो गई. राष्ट्रपति बेन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा.
इस आंदोलन की आग ट्यूनिशिया तक नहीं रुकी बल्कि इसने देखते-देखते कई देशों को अपनी चपेट में ले लिया. ट्यूनिशिया के बाद लीबिया, मिस्र, यमन, सीरिया और बहरीन में भी हजारों लोग सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आए. 2011 में मिस्र का तहरीर चौक अरब क्रांति की नई तस्वीर बन गई. न सिर्फ बेन अली, गद्दाफी, होस्नी मुबारक और अली अब्दुल्ला सालेह जैसे शासकों को सत्ता छोड़नी पड़ी. मोरक्को, इराक, अल्जीरिया, ईरान, लेबनान, जॉर्डन, कुवैत, ओमान तक प्रदर्शन देखने को मिले।
अरब स्प्रिंग के जरिए दुनिया को पहली बार सोशल मीडिया की संभावनाओं और ताकत का अंदाजा लगा था। इस विद्रोह में सोशल मीडिया ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। लोगों ने यमन, सीरिया, लीबिया, मिस्र जैसे देशों से तस्वीरें और वीडियो ट्विटर, फेसबुक और YouTube पर अपलोड किए। दुनिया ने तानाशाही के मंजर को कभी रिकॉर्डेड तो कभी लाइव देखा. युवाओं ने संगठित होने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया. जिन बातों को सरकारें छुपाना चाहती थीं, वहीं दुनिया हर समय देख रही थी।
इस आंदोलन के ग्लोबल प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि अप्रैल 2011 में भारत में शुरू हुए जनलोकपाल आंदोलन में जंतर-मंतर की तुलना तहरीर चौक से अक्सर की जाती थी।
लेकिन कल ट्यूनीशिया से आई खबर बताती है कि अरब स्प्रिंग का आंदोलन अंदर से कितना खोखला था ट्यूनीशिया में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 70% से अधिक ट्यूनीशियाई सोचते हैं कि उनके बच्चों का भविष्य क्रांति से पहले की तुलना में बदतर है।
अरब स्प्रिंग की शुरुआत के दस साल बाद, फेसबुक, ट्विटर और गूगल जो क्रांति के प्रतीक हुआ करते थे वे अब विशाल विघटनकारी अभियानों को प्रश्रय देने वाले तंत्र में बदल गए हैं जिसमे उत्पीड़न है, सरकार की सेंसरशिप है, मानव अधिकार के कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, और किसी भी असहमतिपूर्ण आवाज को दबाने की ताकत है...