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महिला खिलाडिय़ों के तन दिखने और ना दिखने, दोनों ही पर तिलमिलाहट क्यों?
29-Jul-2021 2:07 PM
महिला खिलाडिय़ों के तन दिखने और ना दिखने, दोनों ही पर तिलमिलाहट क्यों?

-दिव्या आर्य

टोक्यो ओलंपिक में भारत के लिए पदक की दावेदार पहलवान विनेश फोगाट का सबसे पहला ‘दंगल’ अपनी सहूलियत के कपड़े पहनने का था। टी-शर्ट और ट्रैक-पैंट में कुश्ती करना बेहतर था, लेकिन ऐसे कपड़ों में उनके शरीर के उभार दिखने से लोगों को परेशानी थी।

हरियाणा में पली-बढ़ी विनेश जब सलवार-कुर्ते की जगह चुस्त पोशाक पहनकर अभ्यास करती तो कई उंगलियां उठतीं कि लडक़ी को ऐसे कपड़े पहनकर घर से निकलने कैसे दिया गया।
यानी लडक़ी अगर खेल खेले, तो तन ढका रहे और वो दंगल के अखाड़े में पारंपरिक लडक़ी बनी रहे, अगर कुछ लोगों का बस चलता तो वे कुश्ती के मुकाबले में भी घूँघट की माँग करते।
विनेश की बात हरियाणा के गाँव की है और पंद्रह साल पुरानी है, लेकिन दुनिया के हर कोने में, हर दौर में महिला खिलाडिय़ों की पोशाक पर चर्चा कई बार उनकी मेहनत और लगन पर हावी हो जाती है।
टोक्यो ओलंपिक में भी अपनी सहूलियत के कपड़े पहनने का एक दंगल चल रहा है। जर्मनी की महिला जिमनास्टिक टीम ने जांघों से पहले खत्म होने वाली पोशाक ‘लियोटार्ड’ की जगह पूरा बदन ढँकने वाली ‘यूनीटार्ड’ पहनने का फैसला किया।
उनका तर्क ये है कि ढँके बदन में उन्हें ज़्यादा सहूलियत है और मर्दों की तरह उन्हें भी इसकी आज़ादी मिलनी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में महिला खिलाडिय़ों की पोशाक अक्सर ऊंची, छोटी और तंग रहती है।
वहीं मर्दों की पोशाक के नियमों में शरीर को आकर्षक दिखाने वाले कोई कायदे नहीं हैं, सारा ध्यान खेलने की सहूलियत पर होता है। अभी तक ऐसा विवाद शायद नहीं हुआ, लेकिन अगर कोई महिला खिलाड़ी स्कर्ट की जगह, पुरुषों की तरह लंबे शॉर्ट्स में टेनिस खेलने आएगी तो न जाने क्या प्रतिक्रिया होगी?
खेल के नियम बनानेवालों और बाजार ने महिलाओं के शरीर को उनके खेल जितनी ही अहमियत जो दे रखी है। यानी लडक़ी खेल खेले, तो चाहे जितनी दौड़-भाग हो पर वो आकर्षक बनी रहे।
मर्दाना दुनिया में आकर्षक औरतें
खेल की दुनिया को हमेशा मर्दाना माना गया है। औरतों की कोमल समझी जाने वाली प्रवृत्ति से अलग, शारीरिक दम-खम बढ़ाने के लिए पसीने में भीगी, कठोर दिनचर्या वाली जिंदगी। लेकिन विडंबना ये कि उसमें भी औरत से सुंदरता और शारीरिक आकर्षण बनाए रखने की उम्मीद कायम रहती है। और हद तो ये है कि अगर वो आकर्षक बनी रहे तो खेल से ध्यान हटने का आरोप भी सबसे पहले उसी पर लगता है।
विनेश की बड़ी बहन गीता ने कुछ साल पहले एक इंटरव्यू में कहा था कि उनके करियर के शुरुआती समय में लोग घात लगाए रहते थे कि लडक़ी से कोई चूक हो जाए या कोई लडक़ा दोस्त बन जाए तो कैसे इनके मां-बाप को शर्मिंदा करके ये जता दिया जाए कि इन्हें छूट देना गलत था। यानी लडक़ी खेल खेले, और आकर्षक हो तो बदचलन भी हो सकती है।
बीमारी जाती नहीं
भारतीय महिला क्रिकेट टीम की कप्तान मिताली राज ने साल 2017 में जब बिना बाज़ू की टॉप में अपनी एक सेल्फी ट्विटर पर पोस्ट की तो उन पर ताने कसने वालों की कमी नहीं थी।
उन्हें ट्विटर पर तो ट्रोल किया ही गया, मीडिया में उनके बारे में छपे लेख की हेडलाइंस ने भी ‘पॉर्न स्टार’, ‘इनडीसेंट’ और ‘एक्सप्लोसिव’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया।
खेल की मर्दाना दुनिया में ‘मॉडर्न’ और ‘फॉर्वर्ड’ होने के ऐसे तमगे महिलाओं पर ही लगाए जाते हैं। उन्हीं के कपड़ों पर सवाल उठते हैं। चाहे वो मैदान पर हों या बाहर।
18 साल की उम्र में टेनिस की दुनिया में भारत का नाम करने वाली सानिया मिजऱ्ा की पोशाक भी मर्यादाओं के उल्लंघन के आरोप के घेरे में आई थी।
साल 2005 में सुन्नी उलेमा बोर्ड के एक मौलाना ने उनपर ‘अभद्र’ कपड़े पहनकर खेलने का आरोप लगाया जिससे उनके मुताबिक ‘नौजवान लड़कियों पर बुरा असर पड़ रहा था।’
उन्होंने फतवा जारी करके कहा था कि इस्लाम औरतों को छोटी निकर, स्कर्ट और बिना बाज़ू के कपड़े पहनने की इजाजत नहीं देता और सानिया जैसे कपड़े पहनती हैं वो शरीर के बड़े हिस्सों को ढँकती नहीं, जिसके बाद कल्पना करने के लिए कुछ नहीं बचता।
सानिया ने फतवे पर टिप्पणी देने से मना कर दिया और बस इतना कहा कि उनके कपड़ों पर इतना विवाद हो, ये उन्हें परेशान करता है।
परेशान तो करेगा ही। कभी धर्म तो कभी समाज और कभी बाजार, महिला खिलाड़ी के शरीर से नजर हटती ही नहीं है।
‘सेक्सिजम’ और हिंसा का संबंध
मर्दों की दुनिया में, खेल के कपड़ों में, अक्सर महिला खिलाडिय़ों को ‘अवेलेबल’ भी मान लिया जाता है। सुरक्षित माने जाने वाले ट्रेनिंग सेंटर्स और कोच के हाथों यौन उत्पीडऩ के किस्से आम हैं, लेकिन आवाज उठाना मुश्किल है और पहले से ही दुर्लभ मौकों को खोने का दबाव ज़्यादा।
महिला खिलाडिय़ों को उनके आकर्षण के चश्मे से देखने और इस हिंसा का गहरा ताल्लुक है।
जर्मन जिमनास्टिक्स टीम ने टोक्यो ओलंपिक से पहले, इसी साल अप्रैल में यूरोपियन आर्टिस्टिक जिमनास्टिक्स चैम्पियनशिप में पहली बार ‘यूनीटार्ड’ पहनकर अपना विरोध दर्ज किया था।
जर्मन फेडरेशन ने कहा था कि जिमनास्टिक्स में महिलाओं की ‘सेक्सुअलाइज़ेशन’ और यौन हिंसा रोकने के लिए ये कदम जरूरी है।
जिमनास्टिक्स की दुनिया में हिंसा का ताज़ा उदाहरण अमेरिकी महिला टीम के डॉक्टर रहे लैरी नासर का है, जिन पर 150 महिला खिलाडिय़ों ने यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाया और जिन्हें अब 175 साल की जेल की सज़ा हो गई है। लेकिन ‘सेक्सिस्ट’ सोच और संस्कृति में बदलाव लाना आसान नहीं है।
पिछले सप्ताह नार्वे की महिला बीच-हैंडबॉल टीम ने भी जब अपनी सहूलियत को आगे रखते हुए बिकिनी शॉर्ट्स की जगह निकर पहनने का फैसला किया तो उन्हें पोशाक के नियम के उल्लंघन के लिए हर्जाना देना पड़ा, लेकिन महिला खिलाड़ी अकेली भी नहीं। अमेरिकी पॉप स्टार ‘पिंक’ ने इस हर्जाने का खर्च उठाने की पेशकश की है।
अपने ट्वीट में उन्होंने कहा कि हर्जाना तो ऐसे ‘सेक्सिस्ट’ नियम बनाने वाली फेडरेशन पर लगाया जाना चाहिए, ‘मुझे नॉर्वे की महिला टीम पर गर्व है, बढ़े चलो।’
वैसे इस ‘बढ़े चलो’ के नारे को जीने में अभी बहुत सारे दंगल बाकी हैं। (bbc.com/hindi)
 

 

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