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भारत में फिर महिलाओं की जिंदगी के फैसले ले रहे पुरुष
30-Jul-2021 1:49 PM
भारत में फिर महिलाओं की जिंदगी के फैसले ले रहे पुरुष

वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम की लैंगिक समानता दिखाने वाली 'ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स' रिपोर्ट में भारत 156 देशों की लिस्ट में नीचे से 17वें स्थान पर चला गया है. जिसका मतलब हुआ कि यहां महिलाओं की स्थिति लगातार खराब हो रही है.

  डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट

भारत की इन दो तस्वीरों को देखिए. हाल ही में भारत सरकार ने मंत्रिमंडल में बदलाव किए, जिसके बाद केंद्र सरकार में महिला मंत्रियों की संख्या बढ़कर 11 हो गई. इसकी काफी तारीफ हुई और सोशल मीडिया पर सभी महिला मंत्रियों की एक-साथ ली गई तस्वीर शेयर की जाती रही.

दूसरी ओर साल 2021 में वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम की लैंगिक समानता दिखाने वाली 'ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स' रिपोर्ट में भारत 156 देशों की लिस्ट में नीचे से 17वें स्थान पर चला गया. जिसका मतलब हुआ कि यहां महिलाओं की स्थिति लगातार खराब हो रही है.

इस बात को उतनी तवज्जो नहीं मिल सकी. महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत दक्षिण एशिया में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में से एक है. इससे खराब प्रदर्शन सिर्फ पाकिस्तान और अफगानिस्तान का रहा है जबकि बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और भूटान सभी उससे आगे निकल चुके हैं.

वहीं महिलाओं के राजनीतिक रूप से सशक्त होने की बात करें तो भारत की रैंक इस साल 51 हो चुकी है, जो पिछले साल 18 थी. यह सारी चर्चा इसलिए क्योंकि फिलहाल भारत में महिलाओं से जुड़े कुछ जरूरी कानून बनाए जा रहे हैं, जिन्हें बनाने में महिलाएं की संख्या न के बराबर है.

बेहद जरूरी कानून
ये कानून हैं, यूनीफॉर्म सिविल कोड और जनसंख्या नियंत्रण कानून. जनसंख्या नियंत्रण कानून असम और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में तैयार किया जा चुका है जबकि कई अन्य बीजेपी शासित राज्य ऐसे कानून बनाने की अभी तैयारी कर रहे हैं. जनसंख्या नियंत्रण कानून में दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने पर चुनाव लड़ने से रोक और सरकारी सब्सिडी खत्म किए जाने का प्रावधान है जबकि यूनिफॉर्म सिविल कोड सभी समुदायों के लिए शादी और तलाक संबंधी एक जैसे नियमों की वकालत करता है.

फिलहाल भारत में सुगबुगाहट है कि हर साल 5 अगस्त को बड़े कदम उठाने के लिए चर्चित वर्तमान बीजेपी सरकार इस साल यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू कर सकती है. महिलाओं के लिए बेहद जरूरी माने जा रहे इन कानूनों में जानकार दो स्तरों पर समस्या देख रही हैं.

पहली, इन्हें बनाने में महिलाओं का योगदान नगण्य है और दूसरी कि इस बात की गारंटी नहीं है कि इन कानूनों के बन जाने से एक ऐसा समाज बनाया जा सकेगा, जिसमें लैंगिक न्याय सुनिश्चित हो.

दूसरा डर भी पहले डर से ही जुड़ा है. कई जानकार यह सवाल पूछती हैं कि क्या ये कानून सिर्फ पुरुषों द्वारा महिलाओं के लिए बनाए गए कानून नहीं होंगे. उनके डर के लिए पर्याप्त वजहें भी उपलब्ध हैं. हाल ही में भारत के पांच राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में हुए विधानसभा चुनावों में महिलाओं की हिस्सेदारी नहीं बढ़ सकी.

ज्यादातर राज्यों में कुल मतदाताओं की करीब 50% महिलाएं हैं लेकिन इन चुनावों में महिला उम्मीदवार मात्र 10 फीसदी रहीं. केरल में 9 फीसदी, असम में 7.8 फीसदी महिलाएं ही उम्मीदवार थीं जबकि तमिलनाडु, पुद्दुचेरी में करीब 11 फीसदी उम्मीदवार महिलाएं रहीं.

पुरुष ले रहे महिलाओं से जुड़े फैसले
ऐसा नहीं है कि भारत में महिलाएं राजनीति को लेकर उदासीन हैं. केरल की कांग्रेस नेता लतिका सुभाष इस बात की मिसाल हैं. पिछले विधानसभा चुनावों में टिकट न मिलने के विरोध में उन्होंने अपना मुंडन करा लिया था. एक मीडिया बातचीत में उन्होंने कहा, "मैंने उम्मीदवारों में महिलाओं के लिए कम से कम 20 फीसदी टिकट रिजर्व किए जाने की बात की थी. ऐसा नहीं है कि भारत के बड़े राजनीतिक दलों में महिलाओं का अभाव है लेकिन उन्हें लगातार नजरअंदाज किया जाता है और पार्टी चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं देती."

भारत में कई महिलाएं बड़े राजनीतिक पद भी संभाल चुकी हैं लेकिन लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित करने वाला महिला आरक्षण बिल साल 2010 से ही राज्यसभा में पास होने के बाद से ही लटका हुआ है.

जनसंख्या कानून बनाने वाले असम और उत्तर प्रदेश को ही ले लेते हैं, जिनकी विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10% से भी कम है. असम की 126 सदस्यीय विधानसभा में महिलाओं की संख्या मात्र 6 है जबकि उत्तर प्रदेश की 403 सीटों वाली विधानसभा में मात्र 38 महिला विधायक हैं.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो सदस्य कविता कृष्णन इसके लिए भारतीय समाज की पुरुषवादी सोच को जिम्मेदार मानती हैं. वह कहती हैं, "हम समझ सकते हैं 90% से ज्यादा पुरुषों वाली कोई संस्था महिलाओं के लिए कितने संवेदनशील कानून बनाएगी."

वहीं कुछ जानकार यह तर्क भी देती हैं कि अगर पुरुष महिलाओं को समान अधिकार देने वाला 'आदर्श' कानून बना भी लेते हैं तो भारत में कानून लागू कराने वाले प्रशासन की जो पुरुषवादी मानसिकता है क्या वह इन्हें प्रभावी रहने देगी?

कानूनों में गड़बड़ी के पर्याप्त आसार
यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में आती है लेकिन यह कैसा होगा, इसे संविधान में साफ नहीं किया गया है, न ही संविधान सभा ने इसे लेकर स्पष्टता दिखाई है. जानकार डर जताती हैं कि पुरुषों के बनाए कानून के गोवा के यूनिफॉर्म सिविल कोड (पुर्तगाली सिविल प्रोसीजर कोड) जैसे हो जाने का डर है.

इसमें कैथलिक लोगों पर अन्य समुदाय से अलग नियम लागू होते हैं. गोवा का यह कानून हिंदू मर्दों को अब भी विषेश परिस्थितियों में दो शादियां करने का अधिकार देता है जैसे कि तब, जब उसकी पत्नी बच्चे न पैदा कर सकती हो.

नारीवादी कार्यकर्ता कविता कृष्णन कहती हैं, "भारत की ज्यादातर समस्याओं की जड़ संसाधनों का असामान्य वितरण है, न कि गरीबी और जनसंख्या. ऐसे में सबसे जरूरी है कि कानून लोकतांत्रिक हो न कि महिलाओं के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने वाला. कानून का लक्ष्य महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा शिक्षा, नौकरियां और सुविधाएं देने वाला होना चाहिए, न कि अधिकारों से रोक देने वाला. जबकि वर्तमान जनसंख्या कानून इससे उलट हैं."

फायदे नहीं, नुकसान कई
जानकारों के मुताबिक फिलहाल जिस रूप में जनसंख्या नियंत्रण कानूनों को पेश किया जा रहा है, उससे महिलाओं के स्वास्थ्य पर बुरा असर होने का डर है. इन कानूनों के लागू होने के बाद भारत के पुरुषवादी समाज में लड़के की चाहत में महिलाओं को बार-बार गर्भपात कराने पर मजबूर किया जा सकता है, जबकि पहले ही भारत में दूसरे और तीसरे बच्चे के तौर पर लड़कियों का अनुपात लगातार तेजी से गिर रहा है.

कविता कृष्णन कहती हैं, 'यूपी सरकार की ओर से बताया गया है कि बिल पर 8,500 लोगों ने प्रतिक्रिया दी है, जिनमें से सिर्फ 0.5 फीसदी ही इसके खिलाफ हैं. मैं मान लेती हूं कि प्रतिक्रिया देने वालों में महिलाएं भी शामिल होगीं लेकिन यह इस बात की गारंटी नहीं कि कानून लागू होने पर उनपर बुरा असर नहीं होगा. हम अंदाजा लगा सकते हैं कि जब भारत में घर के फैसले लेने में महिलाओं का योगदान बेहद कम है, तो गर्भधारण और गर्भपात जैसे अहम फैसलों में उनकी कितनी सुनी जाएगी.'

जानकार यह भी मानते हैं कि इस कानून का सबसे बुरा असर समाज में हाशिए पर पड़ी महिलाओं को झेलना होगा और यह राजनीति में उनके दखल को बढ़ाने के बजाए कम करने का काम करेगा. पिछले कुछ सालों से भारत में स्थानीय निकायों और पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही थी, इन कानूनों से उस पर भी बुरा असर होने का डर बन गया है.

नये कानूनों के मुताबिक 15-49 की उम्र की महिलाओं को अगर तीसरा बच्चा पैदा होता है, तो न सिर्फ उनकी राजनीतिक भागीदारी बल्कि सामाजिक सुरक्षा, जैसे सब्सिडी आदि भी छीन ली जाएगी. (dw.com)

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