विचार / लेख

इलाहाबाद में जन्मे, कराची में दफन एक लेखक की साझा विरासत
31-Jul-2021 1:37 PM
इलाहाबाद में जन्मे, कराची में दफन एक लेखक की साझा विरासत

हिंदी और उर्दू के पाठकों की तीन पीढ़ियां इब्न-ए-सफी और उनके उपन्यासों से मोहब्बत करती रही हैं. लेकिन लेखकों की कल्पना कई बार पाठकों के जीवन में गहरी छाप भी छोड़ जाती हैं.

  डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट

कल्पना कीजिए 1960 के दशक के बिहार में एक छोटे से गांव की. विकास की दौड़ में यह गांव उस समय कितना पिछड़ा रहा होगा इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि वहां नियमित बिजली और पक्की सड़क 2000 के बाद ही पहुंच पाई. मेरे पापा का परिवार गांव के चंद पढ़े लिखे परिवारों में से था, लेकिन खुद पापा और उनके सभी भाई-बहनों को भी हाई स्कूल जाने के लिए रोज 10 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था.

इस तरह के हालात में पल रहे एक किशोर मन के सपने किस तरह के हो सकते हैं? एक रूढ़िवादी समाज में तथाकथित "ऊंची" जाति का होने का यह विशेष लाभ जरूर था कि इस परिवार को शिक्षा के अवसर उपलब्ध थे. फिर भी आप सोच सकते हैं कि कच्ची-पक्की सड़कों पर चप्पल पहने, रास्ते में कांच की गोलियों के खेल खेलते हुए स्कूल जा रहे इन बच्चों की कल्पना को उड़ान देने के लिए प्रेरणा के कितने और कैसे स्त्रोत होते होंगे?

पापा और उनके भाई-बहनों की यह खुशकिस्मती थी कि उनके परिवार में ना सिर्फ पढ़ाई तक पहुंच बल्कि पढ़ाई को लेकर एक चाव पिछली कई पीढ़ियों से मौजूद था. घर में पाठ्यक्रम की किताबों के अलावा भी पढ़ने के लिए काफी सामग्री हमेशा उपलब्ध रहती थी.

लड़कपन तक पहुंचते पहुंचते इन लोगों का तुलसीदास और वेद व्यास के अलावा, देवकी नंदन खत्री, प्रेम चंद, आशापूर्णा देवी और यहां तक कि लियो टॉलस्टॉय, मैक्सिम गोर्की जैसे नामों की अद्भुत श्रंखला से भी परिचय हो चुका था. उस समय पापा को भनक भी नहीं की थी कि इसी श्रृंखला का एक नाम उनके जीवन पर ऐसा असर छोड़ जाएगा कि "जिंदगी में क्या करोगे" वाला यक्ष प्रश्न जब उनके सामने आएगा तो उसका जवाब उन्हें उसी लेखक की कल्पनाओं में मिलेगा.

तीन पीढ़ियों की पसंद
यह नाम था असरार अहमद उर्फ इब्न-ए-सफी का. इब्न-ए-सफी उर्दू शायर, लेखक और उपन्यासकार थे, लेकिन उनके उपन्यासों का नियमित हिंदी रूपांतरण भी होता था. इस वजह से 1940 से लेकर 1970 के दशकों तक उनके लिखे 125 उपन्यासों की श्रृंखला "जासूसी दुनिया" ने मेरे दादा और पापा जैसे हिंदी के पाठकों की कम से कम तीन पीढ़ियों के दिलों पर राज किया था.

इब्न-ए-सफी का जन्म 1928 में इलाहाबाद जिले में हुआ था. 1940 के दशक में उन्होंने हिंदुस्तान में लिखा लेकिन 1952 में वे पाकिस्तान में बस गए और उसके बाद वहीं से लिखा. इसलिए आज दोनों मुल्कों के पाठकों के बीच इलाहाबाद में जन्मे और कराची में दफन इस लेखक की साझा विरासत है. उन दिनों रेलवे स्टेशनों पर किताबों की चलती फिरती दुकान चलाने वाली कंपनी ए एच व्हीलर इब्न-ए-सफी  के उपन्यासों की वितरक थी.

मोतिहारी रेलवे स्टेशन पर ऐसी ही एक दुकान चलाने वाला ए एच व्हीलर का एक मुलाजिम पापा के बड़े भाई का परिचित था. उसे एक रुपया बतौर जमानत दे कर "जासूसी दुनिया" और उस समय के दूसरे जासूसी उपन्यास उधार ले कर दो-तीन दिनों के लिए हासिल कर लिए जाते थे. बाद में दोनों भाई इब्न-ए-सफी से बहुत प्रभावित हुए और हर महीने निकलने वाले उनके उपन्यासों के अंकों को इकठ्ठा करने लगे.

बॉलीवुड पर असर
इब्न-ए-सफी की कल्पना का लोहा लगभग सभी बड़े लेखक मानते हैं. बल्कि साहित्य ही नहीं हिंदी फिल्मों पर भी विशेष रूप से उनके उपन्यासों के किरदारों का प्रभाव है. 1970 और 80 के दशक की कई मशहूर हिंदी फिल्मों की पटकथाएं लिखने वाली जोड़ी सलीम-जावेद के जावेद अख्तर भी खुद को उनका मुरीद बताते हैं.

अख्तर कहते हैं कि उन्होंने इब्न-ए-सफी के उपन्यासों से ही किरदारों को जीवन से बड़ा गढ़ने की अहमियत सीखी. वो मानते हैं कि उन्हें "शोले" के गब्बर सिंह, "शान" के शाकाल और "मिस्टर इंडिया" के मोगैम्बो जैसे किरदारों को गढ़ने की प्रेरणा इब्न-ए-सफी से ही मिली.

लेकिन इस अद्भुत लेखक के उपन्यासों के जिस पहलू का मेरे जीवन से गहरा ताल्लुक है वो है उनके कथानक यानी प्लॉट. उनकी कहानियों में अक्सर अलग अलग देशों का ना सिर्फ जिक्र बल्कि विस्तृत विवरण होता था. कभी यूरोप, कभी दक्षिण अमेरिका, कभी अफ्रीका, कभी चीन- उनके उपन्यास जैसे पढ़ने वालों के लिए पूरी दुनिया के झरोखे खोल देते थे.

अंतरराष्ट्रीय कथानक
ऐसे ही एक उपन्यास "खूनी बवंडर" में पापा ने पहली बार दक्षिण अमेरिका के बारे में पढ़ा. 'इंका' साम्राज्य के गुप्त खजाने को हासिल करने में लगे एक चीनी और एक अमेरिकी अपराधी का पीछा करते हुए जासूस कर्नल विनोद इक्वाडोर की राजधानी क्विटो पहुंचते हैं. फिर वहां से निकल दुर्गम घने जंगलों से होते हुए साहसिक यात्रा करते हैं.

अब आप सोचिए. कहां हिंदुस्तान के एक पिछड़े राज्य के एक छोटे से गांव में रहने वाले मेरे पापा और कहां हजारों किलोमीटर दूर की एक प्राचीन सभ्यता और एक ऐसा महाद्वीप जो उस समय तो क्या आज भी एक आम हिन्दुस्तानी की कल्पनाओं में शामिल नहीं है. पापा तुरंत उस सुदूर महाद्वीप को लेकर मंत्रमुग्ध हो गए. स्कूल गुजरा, फिर कॉलेज बीता, लेकिन लैटिन अमेरिका के बारे में और जानने की ललक ने उनका सालों तक पीछा नहीं छोड़ा.

उच्च शिक्षा की बारी आने पर यही ललक उन्हें दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तक ले आई. उन्होंने वहां अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एमए किया. उसके बाद भी प्यास नहीं बुझी तो दिल्ली विश्वविद्यालय से दक्षिण अमेरिका पर पीएचडी ही कर डाली.

उन दिनों दिल्ली के सीएसडीएस संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर बशीरुद्दीन अहमद पापा से कहा करते थे कि उनके पिता अगर राजनयिक सेवा में होते तब तो उनकी दक्षिण अमेरिका में यह रुचि समझ में आती. उन्हें इस बात पर घोर आश्चर्य हुआ था कि एक गांव में पले बढ़े एक युवक को इन देशों के बारे में आखिर पता कैसे चला.

ललक अब भी बाकी है
बहरहाल, उन्हीं के सहयोग से पापा ने सीएसडीएस में ही डॉक्टरल फेलो के तौर पर अपनी पीएचडी पूरी की. उसके बाद उनके जीवन में कई तरह के मोड़ आए और वो दूसरे क्षेत्रों में चले गए, लेकिन लैटिन अमेरिका और इब्न-ए-सफी ने उनके जहन में अपनी जगह बनाए रखी. दक्षिण अमेरिका की मोहब्बत में ही स्पैनिश भाषा भी सीखी.

2019 में रिटायर होने के ठीक पहले उस समय न्यू यॉर्क में रह रहे मेरे छोटे भाई ने जब उन्हें मेक्सिको की यात्रा करवाई, तो इब्ने-ए-सफी के इक्वाडोर को देखने की उनकी ललक बाकी रह गई. रिटायर होने के बाद पापा अब जितना समय मिल सके उतना पढ़ने और लिखने में ही बिताते हैं. इतना कुछ है पढ़ने को लेकिन उन्हें अपने लड़कपन के प्रिय लेखक और उनके उपन्यासों की याद लगातार सताती रहती है.

"जासूसी दुनिया" की पुरानी प्रतियों को गांव में वीरान पड़े हमारे पुश्तैनी मकान में दीमक लग गई और हिंदी में नई प्रतियां अब छपती नहीं. लेकिन हमें हाल ही में एक बड़ी कामयाबी हाथ लगी. इंटरनेट पर खोजते खोजते हमें इब्ने सफी हिंदी नाम से वेबसाइट मिली. वेबसाइट से एक ईमेल पता मिला और फिर ईमेल से मोबाइल नंबर मिला.

सपने का पूरा होना
फोन किया तो हिमाचल प्रदेश के नूरपुर में रहने वाले योगेश कुमार से मेरा परिचय हुआ. उन्होंने बताया कि वो भी इब्न-ए-सफी के चाहने वालों में से हैं. योगेश बड़े जतन से अपने प्रिय लेखक के उपन्यासों की लावारिस प्रतियों को ढूंढ निकालते हैं, फिर उनकी मरम्मत करवाते हैं और डिजिटाइज भी करवा कर रख लेते हैं.

जब मेरे जैसे जरूरतमंद उन तक पहुंचते हैं तब वो आर्डर ले कर उपन्यास की एक प्रति छपवा देते हैं और डाक से भिजवा देते हैं. उनसे कई महीनों की बातचीत के बाद हाल ही में हमारी कोशिशें रंग लाई. जिस किताब से मेरे पापा के सपनों की शुरुआत हुई मैं वही किताब एक बार फिर उनके हाथों में पहुंचा सका.

वो आजकल "खूनी बवंडर" दोबारा पढ़ रहे हैं. लड़कपन में देखे सपने से दोबारा रूबरू होने की खुशी के साथ साथ उन्हें इस बात का हल्का मलाल भी है कि योगेश कुमार ने मुझसे पैसे ज्यादा ले लिए. पापा की शिकायत योगेश तक अभी तक पहुंचा नहीं पाया हूं, लेकिन सोच रहा हूं कि जब अगला उपन्यास आर्डर करूंगा तो क्या वो मुझे डिस्काउंट देंगे? (dw.com)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news