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ब्रिटेन- लॉकडाउन में महिलाओं का पीछा करने से जुड़े अपराधों में बड़ी उछाल
02-Aug-2021 1:15 PM
ब्रिटेन- लॉकडाउन में महिलाओं का पीछा करने से जुड़े अपराधों में बड़ी उछाल

पिछले साल कोविड लॉकडाउन के दौरान लगी पाबंदियों के बीच महिलाओं का पीछा करने और नुकसान पहुंचाने की धमकियों जैसे मामलों में कमी आने की बजाय इजाफा हुआ है.

 डॉयचे वैले पर स्वाति बक्शी की रिपोर्ट

ब्रिटेन के ऑफिस ऑफ नैशनल स्टैटिस्टिक्स (ओएनएस) यानी राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय के आंकड़ों के मुताबिक इंग्लैंड और वेल्स में साल 2020 में स्टॉकिंग के 80 हजार मामले दर्ज किए गए. ये साल 2019 में दर्ज 27 हजार 156 मामलों पर भयंकर बढ़त है लेकिन पिछले साल आंकड़े जुटाने के तरीकों में बदलाव के चलते इन नंबरों को एक साथ रखकर देखा नहीं जा सकता.

ओएनएस के ही 2017 के आंकड़ों के मुताबिक ब्रिटेन में हर पांच में से एक महिला अपने जीवन में इस अपराध की शिकार होती है. एक और अहम बात ये है कि जिस तेजी से स्टॉकिंग के मामले बढ़े हैं, गिरफ्तारियां उस गति से नहीं हुई. बीबीसी ने सूचना की स्वतंत्रता अधिकार का इस्तेमाल करते हुए इंग्लैंड, वेल्स और स्कॉटलैंड में पुलिस सेवाओं से गिरफ्तारियों पर जानकारी हासिल की जिसके आधार पर ये पता चला है कि अपराधियों को हिरासत में लेने की रफ्तार बेहद धीमी है.

साल 2019 में पीछा करने और मानसिक प्रताड़ना से जुड़े मामले में बाइस महीने की सजा पाने वाले भारतीय रोहित शर्मा का मामला सुर्खियों में रहा. स्टॉकिंग का ये सिलसिला 18 महीने तक चला जिसमें रोहित ने कई तरीकों का इस्तेमाल करते हुए एक लड़की का पीछा किया.

शादी के लिए मजबूर करने के इरादे से रोहित ने अलग अलग नंबरों से लड़की को दिनभर में 40 कॉल करने और उसके काम की जगहों पर नजर रखने जैसे तरीके अपनाए. लड़की ने खुद को मानसिक प्रताड़ना से बचाने के लिए काम की जगहें, फोन नंबर और घर तक बदल डाला लेकिन मामले का अंत पुलिस की कार्रवाई के बिना मुमकिन नहीं हुआ जिसमें एक साल से ऊपर का वक्त लग गया.

सामाजिक-सांस्कृतिक दायरे
पीछा करने से जुड़े अपराधों में ज्यादातर पीड़ित महिलाएं कानून का सहारा लेने में हिचकिचाती हैं. खास बात ये भी है कि स्टॉकिंग हो रही है इसे स्वीकार करने में भी महिलाओं को वक्त लगता है. ये रवैया व्यापक तौर पर देखा जाता है और ब्रिटिश-भारतीय महिलाओं में आम है.

लंदन के हाउंसलो इलाके में रहने वाली, पेशे से डेंटिस्ट एक भारतीय महिला ने नाम ना बताने की शर्त पर कहा, ”ब्रिटिश-भारतीय समुदाय में शायद ही कोई ऐसी महिला होगी जो इस बारे में खुलकर बात करना चाहेगी. इसका मतलब ये नहीं है कि उनके साथ ये हुआ नहीं है. इसका मतलब ये है कि उन्हें अपने ही लोगों के बीच होने वाली बातों का डर है”.

युवा ब्रिटिश-भारतीय लड़कियों के ख्याल भी ऐसे हैं जो कानूनी मदद के प्रति ज्यादा भरोसा नहीं जगाते. 23 बरस की भारतीय छात्रा सुचित्रा (बदला हुआ नाम) ने बातचीत में बताया कि "शुरुआत में समझ ही नहीं आता कि ये क्या हो रहा है. कई बार लगता है कि सबके साथ होता होगा इसलिए वक्त के साथ बंद हो जाएगा. डर तो होता है लेकिन किसी तरह बच कर निकलना होता है. पुलिस तक जाने से हंगामा होगा."

महिलाओं में स्टॉकिंग के मामलों को रफा-दफा करने के पीछे समुदाय में बातचीत का मुद्दा बन जाने का डर बड़ी भूमिका निभाता है और विशेषज्ञ इसे स्वीकार करते हैं.

ब्रिटेन में स्टॉकिंग पर जानकारी और प्रशिक्षण के क्षेत्र में एक दशक से काम कर रहीं ऐलिसन बर्ड कहती हैं, "ऐसे अपराध झेलने वाली औरतों को ज्यादा चिंता इस बात की होती है कि लोग अपराधी के बारे में नहीं बल्कि उनके बारे में ही चर्चा करेंगे. ऐसे मामलों में महिला की सुरक्षा का इंतजाम करना भी कठिन हो जाता है क्योंकि समुदाय ही अपराधी के लिए सूचनाएं इकट्ठा करने का जरिया बन सकता है. ब्रिटेन में रहने वाले कुछ समुदायों में ये प्रवृत्ति वाकई बहुत ज्यादा चिंताजनक तरीके से काम करती है.” यानी महिलाओं की चुप्पी में अपराधी से ज्यादा सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने का डर समाया हुआ है.

कानून और पुलिस की भूमिका
पीछा करने से जुड़े अपराधों में पुलिस की मदद लेने वाली महिलाओं के अनुभव ये बताते हैं कि उन्हें मामले से निजात पाने में जैसी मदद मिलनी चाहिए थी, वो नहीं मिली. एक ब्रिटिश महिला रेचल (बदला हुआ नाम) ने ईमेल के जरिए अपनी आपबीती बांटते हुए बताया कि एक शख्स से ऑनलाइन मिलने के बाद डेटिंग शुरू हुई. जब रेचल ने इस सिलसिले को खत्म करने का फैसला किया तो पीछा करने और मानसिक प्रताड़ना का लंबा दौर शुरू हुआ.

रेचल कहती हैं "मैंने पुलिस की मदद ली लेकिन उसने मुझे बेहिसाब फोन करना, मेरे बेटे और मुझे नुकसान पहुंचाने की धमकियां देना और मेरा घर जला देने की बातें करना नहीं छोड़ा. एक बार पुलिस ने गिरफ्तार भी किया लेकिन छह महीने बाद वापस आकर उसने फिर वही सब शुरू कर दिया. पुलिस ने पहले मेरे मामले को गंभीरता से नहीं लिया और अब घर के बाहर चारों तरफ कैमरे लगे हैं. मेरी और मेरे बेटे की आजादी खत्म हो चुकी है. ऐसा लगता है कि जेल में कैद अपराधी हम हैं और वो आजाद घूम रहा है.”

ऐसे अनुभव साफ इशारा करते हैं कि पुलिस इस तरह के अपराधों से निपटने के लिए प्रशिक्षित नहीं है. ऐलिसन बर्ड मानती हैं कि पुलिस का अप्रशिक्षित होना इन मामलों में बहुत बड़ी दिक्कत है. वह कहती हैं "जब कोई महिला अपने स्थानीय पुलिस स्टेशन पर शिकायत करती है तो जरूरी नहीं कि जो पुलिस कर्मचारी मदद के लिए आए उसे पता हो कि स्टॉकिंग की शिकायत में क्या कार्रवाई होनी चाहिए. अक्सर इन शिकायतों को गंभीरता से लिया भी नहीं जाता. इन मामलों में बहुत से बिंदुओं को जोड़ना होता है जिसके लिए पुलिस को ट्रेनिंग की जरूरत है”.

स्टॉकिंग को अपराध के तौर पर देखे जाने की मुहिम कई चैरिटी संस्थाएं और ट्रस्ट चला रहे हैं लेकिन इस अपराध की कोई सटीक कानूनी परिभाषा नहीं है. ज्यादातर मामलों में इसे हैरेसमेंट यानी प्रताड़ना कानून, 1997 के तहत बने नियम-कायदों से जांचा जाता रहा है.

साल 2012 में आए स्वतंत्रता की सुरक्षा कानून के तहत पहली बार स्टॉकिंग को कानूनी तौर पर अपराध के रूप में जगह मिली और साल 2020 में आए स्टॉकिंग सुरक्षा आदेश के जरिए अपराधी को रोकने की दिशा में कुछ उम्मीदें जगी हैं. हालांकि अपराध को पहचानने से लेकर अपराधी के खिलाफ शिकायत दर्ज करने की हिम्मत जुटाने और कार्रवाई होने तक का रास्ता औरतों के सब्र का कठिन इम्तेहान साबित होता रहा है. (dw.com)
 

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