संपादकीय
केरल के एक ईसाई पादरी की जमानत अर्जी हाईकोर्ट से खारिज होते हुए सुप्रीम कोर्ट से भी खारिज हो गई है जिसमें उसकी अपील यह थी कि उसके बलात्कार की शिकार लडक़ी अब उससे शादी करना चाहती है, और इस शादी के लिए उसे कुछ वक्त के लिए जेल से रिहा किया जाए। अदालत से इस पादरी को 20 बरस की कैद सुनाई गई थी क्योंकि उसने एक नाबालिग लडक़ी से बलात्कार किया था, जिसमें वह लडक़ी गर्भवती भी हो गई थी। अब अदालत में इस पादरी और उस लडक़ी दोनों ने यह अर्जी लगाई है कि वे शादी करना चाहते हैं और इस औपचारिकता के लिए पादरी को कैद से कुछ दिनों के लिए मुक्त किया जाए। इन दोनों ने यह तर्क भी लिया है कि बलात्कार के बाद इस लडक़ी से जो संतान हुई है, उसके अब स्कूल जाने की उम्र हो गई है, और स्कूल में अगर पिता का नाम नहीं लिखाया जा सकेगा तो उससे सामाजिक अपमान होगा। पादरी के बलात्कार की शिकार नाबालिग लडक़ी अब बालिग हो चुकी है, और शादी की उम्र की हो गई है। बच्चे की उम्र भी अभी स्कूल जाने लायक हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने जब हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ इस अपील की सुनवाई की तो उसके पूछने पर पता लगा कि पादरी 45 बरस का है और यह लडक़ी अब 25 वर्ष की हो चुकी है। हाईकोर्ट ने जेल से छुट्टी कि यह अर्जी इस आधार पर खारिज कर दी थी कि सुप्रीम कोर्ट का कई मामलों का यह रुख रहा है कि बलात्कार की शिकार लडक़ी के साथ शादी करके बलात्कारी किसी तरह की रियायत नहीं पा सकते। ऐसा पहले भी देश के कई मामलों में हुआ है जहां दोनों परिवारों की सामाजिक प्रतिष्ठा की वजह से या लडक़ी पर नाजायज दबाव बनाकर या बलात्कार की वजह से होने वाली किसी संतान का ख्याल करके, इस तरह के प्रस्ताव रखे गए थे और यह सोचा गया था कि शादी हो जाने के बाद अदालत से फैसले में कोई रियायत मिल जाएगी।
छत्तीसगढ़ की एक अदालत में तो कई बरस पहले एक ऐसा दिलचस्प मामला आया था जिसमें बलात्कार का एक मुकदमा चल रहा था। और जिस लडक़ी ने बलात्कार की शिकायत की थी उसकी शादी बलात्कारी के साथ हो हो चुकी थी, लेकिन उसने मामला वापस लेने से मना कर दिया था, और गांव से पति-पत्नी दोनों एक साइकिल पर जिला अदालत आते थे और सुनवाई में आमने-सामने खड़े रहते थे। फिर उस मामले का क्या हुआ वह तो ठीक से याद नहीं है लेकिन भारत में जगह-जगह समाज की पंचायत में बैठकर इस किस्म के कई फैसले करवाती हैं। आज भी देश के अधिकतर राज्यों में जाति पंचायतें या समाज की पंचायतें बैठती हैं, और जो हो गया, सो हो गया, यह मानकर बलात्कारी से लडक़ी या महिला को एक मुआवजा दिलवाने का फैसला सुनाती हैं, और सामाजिक दंड के रूप में समाज को खाना खिलाने जैसा कोई और जुर्माना भी लगा देती हैं ताकि सभी लोग मजा करें। ऐसी खाप या जाति पंचायतों में लड़कियों के अधिकार की तो कोई बात ही नहीं होती, लड़कियों के परिवार की इज्जत मामले मुकदमे से और अधिक हद तक लुट जाएगी, बस यही बात होती है। यह भी बात बिल्कुल नहीं होती कि बलात्कारी की भी इज्जत ऐसे मामलों में खराब होनी चाहिए, और उसके परिवार को भी शर्मिंदगी झेलनी चाहिए। हिंदुस्तानी समाज ऐसा अजीब है कि दहेज प्रताडऩा करने वाला परिवार, दहेज हत्या करने वाला परिवार, और बलात्कार करने वाले का परिवार इन सबमें भी लोगों को रिश्ता करने में कोई परहेज नहीं दिखता है।
लेकिन केरल की इस बात पर लौटें, तो यह सोचने की जरूरत है कि एक पादरी ने एक नाबालिग बच्ची से बलात्कार करके उसे गर्भवती कर दिया, इसे लेकर चर्च के पूरे संगठन को जितनी शर्मिंदगी होनी चाहिए थी, वैसी तो कुछ भी कहीं सुनाई नहीं पड़ी। चर्च को तो अपना रुख इस मामले में भी साफ करना चाहिए कि क्या वह बलात्कार की शिकार लडक़ी से बलात्कारी की ऐसी शादी का हिमायती है? चर्च को बहुत सी बातें साफ करना चाहिए। लेकिन हम पहले कई बार लिखी गई एक बात को फिर दोहराते हैं कि धर्म को बलात्कार से कोई परहेज नहीं रहता। एक नाबालिग छात्रा से बलात्कार का आरोपी बूढ़ा आसाराम जेल में बंद है, सुप्रीम कोर्ट तक से उसे जमानत हासिल नहीं हो पाई है, अदालत से कैद पाकर वह सजा काट रहा है, लेकिन उसके भक्तजन देश भर के शहरों में उसकी तस्वीरें लगाकर झांकी निकालते हैं, उसके प्रवचन के पर्चे बांटते हैं, और अपने पूरे परिवार के बच्चों सहित ऐसी शोभायात्रा में शामिल होते हैं। धर्म के नाम पर अंधविश्वास का यह सिलसिला इतना खतरनाक है कि यह धर्म के सिम्हासनों पर बैठे हुए लोगों को भी बर्बाद कर देता है। अगर (बाबा) राम-रहीम के भक्त न होते, तो क्या किसी की मजाल थी कि राम रहीम इस तरह से बलात्कार कर पाता? अगर केरल के इस चर्च में आस्था नाम के अंधविश्वास के शिकार लोग न होते तो इस पादरी को एक नाबालिग लडक़ी के साथ इस तरह बलात्कार करने मिलता?
धर्म और अध्यात्म से जुड़े हुए लोगों को ऐसे बलात्कार का मौका इसीलिए मिलता है कि उन्हें मानने वाले लोग अंधविश्वास से भरे रहते हैं और उनकी कोई भी बात उन्हें गलत या खराब नहीं लगती है। लेकिन जिस तरह सरकारी और निजी सभी किस्म के दफ्तरों में और कामकाज की जगहों पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए कमेटियां बनाने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू किया जाता है, उसी तरह का फैसला धार्मिक और आध्यात्मिक संगठनों में लागू किया जाना चाहिए क्योंकि किसी भी धर्म के संस्थान सेक्स शोषण जैसे आरोपों से परे रहते हों इसकी मिसालें बहुत ही कम हैं। सुप्रीम कोर्ट में यह मामला इस एक मामले में चाहे जैसा फैसला पाए, लेकिन इस मामले की चर्चा की वजह से लोगों में एक जागरूकता आएगी और धर्म स्थानों में धार्मिक और आध्यात्मिक संगठनों में धड़ल्ले से चलने वाले सेक्स शोषण के बारे में हो सकता है कि भक्तों और अनुयायियों में थोड़ी सी जागरूकता भी आ सके, और उनके बच्चे बर्बाद होने से बच सकें।
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