विचार / लेख
-दिनेश श्रीनेत
अगर आपका लिखा चोरी होने लगे तो यह सोचकर खुश हुआ जा सकता है कि आखिरकार आप लोकप्रिय होने लगे हैं। तारीफ करने की बजाय लोग आपकी तारीफ को खुद के लिए हासिल करना चाहें और उसके लिए उनके पास सबसे अच्छा शॉर्टकट आपका लेखन हो तो क्या ही बात है।
वैसे भी अपने लिखे पर स्वामित्व इतना आसान नहीं है, जब जमीनों पर इतनी लिखा-पढ़ी और बाउंड्री खींचने के बाद कब्जा हो जाता है तो भला शब्दों की क्या औकात है। दार्शनिक नजरिए से देखें तो एक मतलब यह भी हुआ कि आपके लिखे में कुछ ऐसा है जो आपको अमरत्व की तरफ ले जा सकता है। आपको तो लोग भूल जाएंगे मगर आपका लिखा ऐसे ही चुराते रहे तो कब से कम वो तो जि़ंदा रहेगा। शंकर शैलेंद्र के शब्दों में कहें, ‘मैं न रहूँगी तुम न रहोगे, फिर भी रहेंगी निशानिय’ आपकी भाषा, शैली, विचार इस तरह दूसरों की भाषा, शैली और विचार में घुलमिल जाएंगे जैसे पानी में ऑक्सीजन। यह सोचकर संतोष होगा कि चलो अब मैं अपनी वॉल तक सीमित नहीं रहा। अपनी चुराई पोस्ट को पढ़ते हुए ‘गाइड’ फिल्म का डायलॉग दुहरा सकते हैं, ‘सिर्फ मैं हूँ, मैं हूँ, मैं सिर्फ मैं।’
लेकिन हम सब हैं तो अंतत: इंसान ही। इतना बड़ा दिल हर किसी का नहीं होता है। अपने लिखे पर किसी और का नाम देख कलपने लगता है। जिन छोटे शहरों में टूरिस्ट ज्यादा आते हैं, वहां लस्सी, लड्डू और पेठे की लोकप्रिय दुकानों का तो ये हाल होता है कि मिलते-जुलते नामों की ढेरों दुकानें खुल जाती हैं। थक हार कर असली वालों को लिखना पड़ता है-‘यह है असली वाली दुकान’ या फिर ‘नक्कालों से सावधान।’ मजा यह है कि जो नक्काल होते हैं वो भी बोर्ड ठोंक देते हैं, ‘नक्कालों से सावधान।’ अब करते रहिए असली और नकली का फर्क।
पहले पॉपुलर जासूसी और सामाजिक उपन्यास लिखने वालों के साथ भी यही दिक्कत होती थी। उसी लेखक के नाम से कई और किताबें बाजार में आ जाती थीं। असली लेखक की पहचान के लिए किताबों पर उसकी टोपी वाली या चश्मे वाली फोटो लगाई जाती थी। बाद के दौर में ‘होलोग्राम स्टीकर’ आ गए। मगर सोशल मीडिया में तो होलोग्राम लग नहीं सकता। वैसे हाल के दिनों के एक बेहद लोकप्रिय साहित्यिक लेखक ने अपना खुद का लोगो भी बना लिया है। वे संभवत: दुनिया के इकलौते लेखक हैं जिनका अपना लोगो भी है।
प्रिंट से निकलकर ब्लॉगिंग का दौर आया तो चोरियां और आसान हो गईं। बिजली के बल्ब और भाप के इंजन के बाद अगर कोई सबसे क्रांतिकारी आविष्कार हुआ तो वह था ‘कंट्रोल सी’। इसने लेखकों और पत्रकारों का जीवन बहुत आसान कर दिया। न कहीं आना न जाना, न जानकारी जुटाने का झंझट, न किताबें के पन्ने पलटना, न सोचने विचारने की जहमत उठाना... बस ‘कंट्रोल सी’ और फिर ‘कंट्रोल वी’।
जिन दिनों मैं लखनऊ एक अखबार में काम करता था, वहां के एक रिपोर्टर ने ‘कंट्रोल सी’ को बहुत अच्छे से साध रखा था। उसने सबसे कोने की सीट चुनी थी। वह कंप्यूटर के पीछे बैठा चुपचाप आने-जाने वालों को देखता रहता था। और देखते-देखते उसकी 700 शब्दों की स्टोरी इंचार्ज के पास पहुँच जाती थी। मगर हर जगह कुछ खुराफाती तत्व होते हैं। उन्होंने इंटरनेट से निकाले गए प्रिंट आउट को अखबार में छपी स्टोरी के साथ नत्थी करके संपादक तक पहुँचा दिया।
हालांकि इस तरह की हरकतों से वे उसकी प्रतिभा को दबा नहीं सके। वह बहुत जल्दी सब एडीटर से डीएनई बन गया। वहीं पुराने घिसे-पिटे तरीके से एक-एक खबर पर मेहनत करने वाले यूँ ही घिसते रहे। ‘कंट्रोल सी’ से बचने के लिए लोगों ने ‘कॉपीस्केप’ और ‘राइट क्लिक डिसएबल’ जैसे युक्तियां अपनाईं मगर कोई लाभ नहीं हुआ। एक वक्त तो ऐसा आया कि इंटरनेट की दुनिया में ‘कंट्रोल सी जेनरेशन’ एक बहुत ही पॉपुलर शब्द बन गया था।
अगर कोई यह सोचता है कि नकल करना बहुत आसान काम है तो यह गलतफहमी है। नकल करने के लिए जितने धैर्य और सूझबूझ की जरूरत होती है, वह आसान नहीं है। पुरानी हिंदी फिल्में जब हॉलीवुड की नकल करती थीं, तो हीरो के घूंसे पर हॉलीवुड वाला विलेन जितनी बार पलटी खाता था, क्या मजाल कि हमारा विलेन उससे एक कम या ज्यादा पलटी खा जाए। यह आसान काम नहीं था। नकल पकड़ में न आए इसके लिए जो युक्तियां लगाई जाती हैं, उन पर तो अच्छी खासी सस्पेंस थ्रिलर बन जाएगी।
दरअसल सारा खेल क्रेडिट देने और न देने का है। इसके लिए यह भी जरूरी है कि कोई मौलिक न हो और मौलिक जैसा दिखना चाहे और आवश्यक मेहनत या प्रतिभा दोनों का उसमें अभाव हो। कुछ लोग संदर्भों के लिए रात-दिन एक कर देते हैं। जैसे कि बेचारे विश्वविद्यालय के शोधार्थी, 15 पेज में सात पेज का लेख लिखते हैं और आठ पेज में संदर्भ सामग्री की लिस्ट होती है। वहीं एक विश्वविद्यालय के शिक्षक ने कॉपी-पेस्ट की प्रतिभा से ऐसी किताबें लिखीं कि वे ‘चोर गुरू’ कहलाए। न तो यूजीसी ने उनकी प्रतिभा को समझा और न ही विश्वविद्यालय ने। नहीं तो आज हमारे शिक्षण संस्थानों के शोध प्रबंधों का स्तर कुछ और ही होता।
अगर संदर्भ काट दिए जाते तो टीएस एलियट की महान कविता ‘वेस्टलैंड’ पर सबसे ज्यादा नकल के आरोप लगते। इसमें 30 से ज्यादा लेखकों के संदर्भ हैं। इसे साहित्यिक भाषा में ‘अलूशन’ कहते हैं, यानी कि संकेत, इशारा। जब ऑस्कर में भेजी गई ‘बर्फी’ के बारे में पता लगा कि उसके सीन सिंगिंग इन द रेन (1952), प्रोजेक्ट ए (1983), कॉप्स (1922) और द नोटबुक (2004) से उठाए गए हैं तो अनुराग बसु ने कहा कि नहीं मैंने कोई नकल नहीं की है, मैंने तो उन लोगों को श्रद्धांजलि दी है, उनके प्रति कृतज्ञता जताई है। तो नकल का मतलब हमेशा गलत नहीं होता है, हो सकता है कि आपकी चीजें चुराकर लोग आपके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना चाहते हों।
इन झंझटों से छुटकारा पाने के लिए ही कुछ लोग कॉपीराइट फ्री कंटेंट लिखते हैं। कह देते हैं, ‘ले जाओ, चुरा लो, लूट लो, बेच दो, क्रेडिट भी मत दो, जो मन में आए करो, बस मुझे माफ करो...’। ऐसा कहने वालों का कंटेंट लोग नहीं चुराते हैं, यह सीधे-सीधे चुराने वालों के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाना है। हद है, इन्होंने तो चोरी का सारा थ्रिल ही खत्म कर दिया!
मेरा यह अनुरोध है कि इस पोस्ट को भी चुराया जाए। इससे न सिर्फ चुराने वाले को प्रेरणा मिलेगी बल्कि उनके जैसे तमाम दूसरे चुराने वालों के लिए ये लाइनें प्रेरणा देंगी। कुछ लोग जो उनकी वॉल से चुराएंगे, कुछ लोग मेरी वॉल से चुराने वालों की वॉल से चुराएंगे और कुछ चुराने वालों के चुराने वालों के चुराने वालों के यहां से चुराएंगे। इस तरह चोरी को लेकर हमारी सोसाइटी में जो एक टैबू बन गया है, जो एक स्टीरियोटाइप बन गया है, उसे तोडऩे में मदद मिलेगी। (फेसबुक से)