विचार / लेख
-एकलव्य
अस्ल में भारतीय दर्शक 'कुछ ऐसा कर कमाल कि मैं तेरा हो जाऊं' मोड में रहने वाले दर्शक हैं। काश कुछ ऐसा कमाल हो जाता कि पुरुष हॉकी टीम जीत जाती, काश कुछ ऐसा कमाल हो जाता कि महिला हॉकी टीम जीत जाती, काश नीरज चोपड़ा एक हजार मीटर दूर भाला फेक देते, काश कोई कमाल हो जाता और रवि दहिया रूस के पहलवान को फाइनल में ऐसा पटकते कि वो चारो खाने चित्त हो जाता!
हमारे इस 'काश' और 'कमाल' की सूची अंतहीन है और प्रत्येक ओलंपिक में दरअसल बस यही एक एक काश आह में बदलकर हमें निराश करता है।
महिला हॉकी टीम की एक प्लयेर के घर टीवी नहीं है, आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इन्हें कितनी विश्वस्तरीय सुविधाएं मिल रही होंगी लेकिन काश कुछ ऐसा कमाल हो कि टीम जीत जाए।
ओलंपिक में मनु भाकर की पिस्टल का बैरल टूट जाता है/ट्रिगर में खराबी आ जाती है, कोच और खिलाड़ियों के बीच समन्वय की इतनी कमी होती है कि वो एक दूसरे को देखना तक नहीं चाहते लेकिन काश कोई कमाल हो जाता और वो जीत जातीं।
मीराबाई चानू को एक समय तक डाइट के बारे में ही नहीं पता होता है, वो बताती हैं कि घर पर सबको लगता था कि सब्जी रोटी अपने आप में पूरी डाइट है। अब इससे समझिए कि सरकार इन खिलाड़ियों पर कितना समय और कितना पैसा खर्च करती है। लेकिन नहीं, काश कोई ऐसा कमाल हो जाता कि मीराबाई एक ही बार में इतना वजन उठा देंती कि कोई अन्य खिलाड़ी सौ पचास सालों तक उनके करीब न पहुंच पाता।
खिलाड़ियों के अभाव के किस्से जिनपर हमें लज्जित होकर नजरें झुका लेनी चाहिए उनका हम पोस्टर बनाकर फेसबुक, ट्विटर रंग देते हैं। मने आप सोचिए कि कायदे से अभी इस देश ने यह तक नहीं सीखा है कि कौन सी बात शर्म की है और कौन गर्व की।
देश की बेशर्म सरकार खेलों के लिए आवंटित राशि कम कर देती है जो कि पहले ही अपर्याप्त थी लेकिन काश कोई कमाल हो जाता और गोल्ड मेडल की बारिश हो जाती और फिर प्रधानमंत्री सबके साथ कुल्फी खाते हुए फ़ोटो पोस्ट करते।
खैर, आप भारतीय महिला टीम के प्रत्येक खिलाड़ी के बारे में पढ़िए और सरकार ने इन खिलाड़ियों पर कितना खर्च किया यह पता करिये अंत में आपको लगेगा कि इन लड़कियों का यहां तक का सफर अजूबा वाला ही रहा है जो इन्होंने केवल और केवल अपने दम पर तय किया है।