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टोक्यो ओलंपिक: पी. श्रीजेश और वो 'दूसरा गोलकीपर' जिनकी बदौलत 41 साल बाद बना इतिहास
05-Aug-2021 3:51 PM
टोक्यो ओलंपिक: पी. श्रीजेश और वो 'दूसरा गोलकीपर' जिनकी बदौलत 41 साल बाद बना इतिहास

-प्रदीप कुमार

ओलंपिक खेलों में 41 साल के लंबे इतिहास के बाद भारतीय टीम ने कामयाबी हासिल की है. हॉकी जैसे तेज़ खेल की दुनिया में 41 साल का मतलब खिलाड़ियों की कई पीढ़ियों का निकल जाना है.

इन 41 सालों में भारत के मोहम्मद शाहिद, परगट सिंह, धनराज पिल्लई, दिलीप तिर्की, वीरेन रस्किन्हा जैसे खिलाड़ी चमके ज़रूर, लेकिन अपनी चमक से वे वो इतिहास नहीं रच पाए जो इतिहास पी. श्रीजेश और अमित रोहिदास की जोड़ी ने टोक्यो में रच दिया.

पहले तो सारी उम्मीदों और आकलनों को धता बताते हुए भारतीय टीम सेमी फ़ाइनल तक पहुंची और वर्ल्ड की नंबर एक खिलाड़ी बेल्जियम से हारने के बाद जर्मनी की कहीं मज़बूत टीम को रोमांच और रफ़्तार भरे खेल में पछाड़कर ओलंपिक में पदक के सूनेपन को ख़त्म कर दिया.

इस पूरी कामयाबी में भारतीय गोलकीपर पी. श्रीजेश वाक़ई में भारतीय हॉकी टीम के लिए 'दीवार' साबित हुए. उनकी भूमिका का अंदाज़ा जर्मनी के ख़िलाफ़ मुक़ाबले में लगाने से पहले ज़रा इन पलों पर नज़र डालिए - मैच के दसवें मिनट में जर्मन मिडफ़ील्डर मैट्स ग्रैमबाक के शॉट को श्रीजेश ने रोका. इसके बाद 20वें मिनट में एक बार पी. श्रीजेश ने अगर जर्मन फ़ॉरवर्ड फ़्लोरियन फ़ूक के शॉट्स को बेहतरीन अंदाज़ में डायवर्ट ना किया होता तो यह शर्तिया गोल होता.

तीसरे क्वार्टर में वैसे तो भारतीय खिलाड़ियों का दबदबा था, लेकिन 45वें मिनट में श्रीजेश ने बचाव कर भारत की बढ़त को 5-3 से बरक़रार रखा.

लेकिन श्रीजेश किन मज़बूत इरादों के साथ इस मुक़ाबले में उतरे थे इसकी झलक चौथे क्वार्टर के अंतिम छह मिनटों में देखने को मिली जब उन्होंने दो पेनल्टी कॉर्नर को बेकार कर दिया. मैच के आख़िरी लम्हों वाले पेनल्टी कॉर्नर को जैसे ही उन्होंने रोका वैसे ही भारत ने इतिहास बना दिया था.

जर्मनी के लुकास विंडफ़ेडर को वैसे भी दुनिया के सबसे बेहतरीन ड्रैग फ़्लिकरों में गिना जाता है. वैसे आधुनिक हॉकी में कोई भी ड्रैग फ़्लिकर जब झन्नाटेदार शॉट्स लगाता है तो वह 150-160 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से आती है. इस स्पीड का अंदाज़ा लगाइए. गेंद पलक झपकते ही गोलपोस्ट तक पहुंचती है. ऐसे समय में गोलकीपर का अनुमान या ध्यान, कुछ भी भटका तो गोल.

लेकिन दबाव के आख़िरी छह मिनटों में ना तो श्रीजेश का अनुमान ग़लत साबित हुआ और ना ही ध्यान भटका.

श्रीजेश की इस काबिलियत के बारे में भारत के पूर्व गोलकीपर पी सुबैया ने बताया, "दरअसल इस पूरे मैच में श्रीजेश एक चैम्पियन खिलाड़ी के तौर पर उभरे. उन्होंने जिन पलों में गोल बचाए वो निर्णायक थे."

दरअसल श्रीजेश दूसरे गोलकीपरों की तरह कई मौकों पर चूके भी और इस मैच में वह देखने को भी मिला. यही वजह है कि जर्मनी की टीम चार गोल करने में कामयाब रही, लेकिन दबाव के क्षणों में चट्टान की तरह डटे रहने का माद्दा उनमें है. इतना ही नहीं जब लगता है कि टीम की लुटिया अब डूबने वाली है तब जैसे वो सामने आकर कहते हैं कि 'मैं हूं ना.'

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पी. सुबैया कहते हैं, "ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ सात गोल खाने वाले मैच को अगर आप अपवाद मानें तो श्रीजेश ने पूरे टूर्नामेंट में उम्मीद से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया है. उन्होंने कई बेहतरीन बचाव किए जिसकी बदौलत ही टीम 41 साल बाद इतिहास रच सकी है."

जिस रोमांचक मुक़ाबले में नौ गोल हुए हों वहां एक गोलकीपर का कम से कम चार गोल के बचाव का अंतर ही वह पहलू है जिसके दम पर कोई टीम 41 साल बाद इतिहास रचने में कामयाब होती है. टोक्यो ओलंपिक के दौरान भारत के हर मुक़ाबले में कम से कम दो-तीन मौके ऐसे रहे हैं जहां पी. श्रीजेश ने शानदार बचाव किया.

वरिष्ठ खेल पत्रकार सौरभ दुग्गल टोक्यो ओलंपिक में श्रीजेश के योगदान के बारे में बताते हैं, "कई बार ऐसा मौका आया जब विपक्षी टीम ने दो-दो या तीन भी, पेनल्टी कॉर्नर बैक टू बैक हासिल किए. इस वक्त दबाव काफ़ी ज़्यादा हो जाता है, लेकिन श्रीजेश ने उन पलों में भी निराश नहीं किया."

आज के युवा और तेज़ तर्रार हॉकी के दौर में पी श्रीजेश 35 साल के हैं, लेकिन 41 साल बाद ओलंपिक मेडल लाने का जज़्बा ऐसा है कि इतिहास रचने के बाद वे गोलपोस्ट पर उछलकर चढ़ बैठते हैं.

दरअसल हॉकी की कोई टीम बेहतरीन तभी साबित होती है जब उसके पास अनुभवी गोलकीपर हो. अनुभव हासिल करने में वक्त तो लगता ही है.

भारत के पूर्व गोलकीपर और कोच रहे पी सुबैया बताते हैं, "कम से कम दस साल बाद ऐसी स्थिति आती है जब किसी गोलकीपर के प्रदर्शन में निरंतरता आती है. इस लिहाज़ से देखें तो श्रीजेश अपने सबसे बेहतरीन दौर में हैं. जर्मनी का गोलकीपर युवा था, वह बड़े मैच का दबाव नहीं झेल सका और भारत ने मैच पलट दिया."

सौरभ दुग्गल कहते हैं, "श्रीजेश का अनुभव ही भारतीय टीम के काम आया और श्रीजेश ने भी अपने अनुभव का पूरा फ़ायदा उठाया. वो आख़िरी तक बिखरे नहीं."

यही वजह है कि कामयाबी हासिल करने के बाद पी श्रीजेश की हंसी थमने का नाम नहीं ले रही थी. दरअसल उनकी यह हंसी बीते 15 साल के उनके उतार-चढ़ाव की ही नहीं है बल्कि भारतीय हॉकी के सुनहरे इतिहास में ये लंबे समय तक याद की जाएगी.

इस हंसी के पीछे 41 साल से पदकों के सूनेपन को ख़त्म करने का गर्व तो झलक ही रहा था. साथ में अपनी एक लड़ाई को मंज़िल तक पहुंचा देने का भाव भी नज़र आ रहा था.

हॉकी प्रेमियों को याद ही होगा कि 2017 में सुल्तान अज़लान शाह हॉकी के दौरान पी श्रीजेश एक ऑस्ट्रेलिया खिलाड़ी से टकरा गए थे, उनका घुटना ज़ख़्मी हो गया था.

तब टीम के डच कोच रॉलैंड ऑल्टमैन थे. उन्होंने जब श्रीजेश को घुटने के गंभीर रूप से चोटिल होने की जानकारी दी तो श्रीजेश ने उनसे कहा था, 'आर यू जोकिंग.'

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लेकिन यह मज़ाक़ नहीं था, इस चोट के चलते आठ महीने तक वे खेल के मैदान से दूर रहे. इसके बारे में श्रीजेश मीडिया को कई मौकों पर बता चुके हैं कि इसके बाद उन्होंने दूसरी बार चलना सीखा.

तब यह अनुमान लगाया जाने लगा था कि शायद श्रीजेश कभी वापसी नहीं कर पाएंगे, लेकिन ना केवल वो वापस लौटे बल्कि दुनिया के 'सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर' की जगह तक पहुंच गए.

श्रीजेश ने 15 साल पहले दक्षिण एशियाई खेलों से भारतीय सीनियर टीम के साथ अपना सफ़र शुरू किया था.

केरल के इराकुलम से निकले श्रीजेश बचपन में एथलीट बनना चाहते थे. स्प्रिंट और लॉन्ग जंप में उनकी दिलचस्पी थी, लेकिन जीवी राजा स्पोर्ट्स स्कूल के उनके शुरुआती प्रशिक्षकों ने उन्हें हॉकी की तरफ़ प्रेरित किया.

शुरुआती दिनों में वे एक औसत गोलकीपर ही साबित हो रहे थे, लेकिन उनकी प्रतिबद्धता में कहीं कोई कमी नहीं दिख रही थी.

करियर शुरू होने के पांच साल बाद एशियन चैम्पियंस ट्रॉफी के फ़ाइनल में उन्होंने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ एक नहीं दो-दो पेनल्टी स्ट्रोक का बचाव करके दिखाया था. तब से उन्हें नेशनल हीरो के तौर पर देखा जाने लगा.

2013 में भारत को एशिया कप में जीत दिलाने में उनकी अहम भूमिका रही. उसके बाद 2014 की चैम्पियंस ट्रॉफ़ी में टीम भले चौथे स्थान पर रही, लेकिन श्रीजेश बेस्ट गोलकीपर आंके गए.

2016 की चैम्पियंस ट्रॉफी और 2016 के रियो ओलंपिक में भी पी श्रीजेश ने अपने खेल से लोगों को प्रभावित किया. 2016 की चैम्पियंस ट्रॉफ़ी के दौरान भारतीय टीम को सिल्वर मेडल मिला था और उस टीम की कप्तानी भी श्रीजेश ही कर रहे थे.

हालांकि बाद में टीम का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहने के चलते कप्तानी, टीम के युवा स्टार मनप्रीत सिंह को सौंपी गई. लेकिन श्रीजेश ने इसे कोई इगो का सवाल नहीं बनाया. भारत के कोच रह चुके हरेंद्र सिंह ने एक चैनल पर ओलंपिक मेडल की कायमाबी पर कहा, 'श्रीजेश निस्संदेह मौजूदा समय में दुनिया के सबसे बेहतरीन गोलकीपर हैं. '

उन्होंने कहा कि किसी भी गोलकीपर को एडजस्ट होने में टाइम लगता है और श्रीजेश को भी करियर के शुरुआती दिनों में संघर्ष करना पड़ा. लेकिन वे संघर्षों से निखर कर सामने आए हैं और हर मुश्किल पल में उन्होंने ख़ुद को दीवार साबित किया है.

चौंकिए नहीं, टीम के दूसरे गोलकीपर अमित रोहिदास रहे जो कि एक डिफ़ेंडर हैं.

28 साल के अमित रोहिदास के शानदार खेल की तारीफ़ करते हुए भारत के पूर्व गोलकीपर पी. सुबैया ने कहा, "भारत के लिए दूसरे गोलकीपर की भूमिका निभाई अमित रोहिदास ने. उन्होंने एक बेहतरीन डिफ़ेंडर के तौर पर आधे से ज़्यादा मौकों पर टीम के लिए गोल बचाने का काम किया."

अमित रोहिदास ने सेमी फ़ाइनल में बेल्जियम के 14 पेनल्टी कॉर्नर में से सात का बचाव अपने शरीर पर गेंदें झेलकर किया था. कांस्य पदक के मुक़ाबले में उनके अलावा उनके सब्स्टीट्यूट सुमित कुमार ने भी यही भूमिका अदा की.

वैसे पूरे टूर्नामेंट में अमित रोहिदास का खेल सबसे बेहतरीन रहा. पी सुबैया कहते हैं, "टोक्यो ओलंपिक में भारत की कायमाबी की असली हीरो श्रीजेश और रोहिदास की जोड़ी है. दोनों ने एक-दूसरे को ना केवल सपोर्ट किया है बल्कि एक-दूसरे का उत्साह भी बढ़ाए रखा."

अमित रोहिदास की सबसे बड़ी ख़ासियत यही है कि पेनल्टी कॉर्नर के दौरान वे बड़ी तेज़ी से ड्रैग फ़्लिकर की ओर भागते हैं. उनकी इस वजह से ड्रैग फ़्लिकर को अपनी रणनीति तक बदलनी पड़ी.

वरिष्ठ खेल पत्रकार सौरभ दुग्गल बताते हैं, "मैच ख़त्म होने से छह मिनट पहले उन्होंने इसी तरह से ड्रैग फ़्लिकर को छकाया. इस मैच में कम से कम दो प्रत्यक्ष और दो मौकों पर अप्रत्यक्ष तौर पर गोल बचाया."

जर्मनी जैसी टीम दर्जन भर पेनल्टी कॉर्नर हासिल करके भी मैच नहीं जीत सकी तो इसमें अमित रोहिदास का अहम योगदान रहा.

हॉकी की नर्सरी से निकले हैं रोहिदास
अमित रोहिदास ओडिशा के पहले ऐसे ओलंपियन हैं जो जनजातीय समुदाय से नहीं हैं. हालांकि अपने राज्य की ओर से ओलंपिक में हिस्सा लेने वाले छठे पुरुष और कुल मिलाकर दसवें खिलाड़ी हैं.

भारतीय हॉकी की नर्सरी माने जाने वाले सुंदरगढ़ के सुनामारा गांव में जन्मे अमित रोहिदास बचपन से अपने ही गांव से निकले मशहूर डिफ़ेंडर दिलीप तिर्की को आदर्श मानते रहे हैं.

अपने करियर के शुरुआती दिनों में वे फ़ॉरवर्ड खिलाड़ी के तौर पर खेलते थे, लेकिन राउरकेला के स्पोर्ट्स हॉस्टल में उनके कोच बिजय लकड़ा ने उन्हें डिफ़ेंडर के तौर पर खेलने की सलाह दी. दो साल के अंदर ही वे राज्य टीम का हिस्सा बन गए.

2013 में उन्हें नेशनल टीम में जगह मिली, लेकिन अगले तीन साल तक वे टीम में अपनी जगह पक्की नहीं कर पाए. वे अपने खेल को सुधारते रहे और 2017 में उन्होंने वापसी की, जिसके बाद से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा.

सौरभ दुग्गल अमित रोहिदास के बारे में कहते हैं, "अमित रोहिदास जिस पॉजिशन पर खेलते हैं, वहां खेलना आसान नहीं होता है. कई बार चोट लगने की संभावना होती है, लेकिन मौजूदा दौर में आप कह सकते हैं कि वे सबसे बेहतरीन डिफ़ेंडर हैं."

ओलंपिक में हिस्सा लेने से पहले अमित रोहिदास ने कहा था कि 12 साल की मेहनत के बाद ओलंपिक टीम में शामिल होने का मौका मिला है, ये मेरे सबसे बड़े सपने के पूरा होने जैसा है.

इस टूर्नामेंट में अपना 100 इंटरनेशनल मैच पूरा करने वाले रोहिदास को शायद ही अंदाज़ा रहा होगा कि उनका सपना इस ख़ूबसूरत मोड़ पर जाकर पूरा होगा. (bbc.com)

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