संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गांधी से ग्रेटा थनबर्ग तक, सादगी की नसीहतों पर अमल कैसे हो?
12-Aug-2021 5:45 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  गांधी से ग्रेटा थनबर्ग तक, सादगी की नसीहतों पर अमल कैसे हो?

गांधीवादी किफायती जिंदगी को अगर देखें तो यह लगेगा कि आज की अर्थव्यवस्था की बुनियाद उससे हिल जाएगी। लोग पैदल या साइकिल से चलने लगेंगे, छोटी-छोटी आवाजाही के लिए कारों का इस्तेमाल कम हो जाएगा, सडक़ों पर गाडिय़ों की भीड़ घटेगी, और पैदल चलने वाले या साइकिल चलाने वाले लोग प्रदूषण पैदा नहीं करेंगे तो हवा साफ करने वाली मशीनों की बिक्री घट जाएगी, गाडिय़ां कम चलेंगी तो ऑटोमोबाइल की कंपनियों का भट्टा बैठ जाएगा, पेट्रोलियम कम बिकेगा, और लोग सेहतमंद भी रहेंगे। सोशल मीडिया में पैदल और पैडल के फायदे गिनाते हुए लोग यह भी गिनाते हैं कि इससे नुकसान किस-किसका होगा। सेहतमंद लोग देश की अर्थव्यवस्था को चौपट करके रख देते हैं, न महँगे इलाज की जरूरत पड़ती, न बड़े अस्पतालों की, न कसरत की मशीनों की, और न उन्हें जिम जाना पड़ता। ऐसे लोग देश की अर्थव्यवस्था में कुछ भी नहीं जोड़ पाते, न किसी चीज की बर्बादी करते, ना खुद बर्बाद होते। दूसरी तरफ महज बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में चलने वाले लोग, रेस्तरां का फास्ट फूड खाने वाले लोग, कुल मिलाकर अस्पतालों को चलाते हैं, उनका खुद का आकार हर बरस बदल जाता है, तो उनकी वजह से फैशन उद्योग भी चलता है। और पैदल और पैडल में भी सबसे खतरनाक पैदल लोग रहते हैं क्योंकि वे तो साइकल तक नहीं खरीदते और साइकिल उद्योग भी नहीं चलता।

सोशल मीडिया पर हल्के फुल्के मिजाज में लिखी गई ऐसी गंभीर बातों के साथ-साथ एक दूसरी बात को भी समझने की जरूरत है। अभी दो दिन पहले ही यूरोप की सबसे चर्चित पर्यावरणवादी आंदोलनकारी किशोरी ग्रेटा थनबर्ग का एक बयान सामने आया है जिसमें उसने अंधाधुंध मार्केटिंग करने वाले फैशन उद्योग की आलोचना की है कि वह लोगों के बीच गैरजरूरी फैशन को बढ़ावा देता है। और ग्रेटा ने यह बात कहने के लिए एक फैशन मैगजीन वोग को दिए हुए एक इंटरव्यू का इस्तेमाल किया जिसमें उसने कहा कि पर्यावरण की बर्बादी के लिए और मौसम की तरह-तरह की इमरजेंसी आने के लिए फैशन उद्योग बहुत हद तक जिम्मेदार है। फैशन उद्योग हर कुछ महीनों में फैशन बदलकर लोगों को नए कपड़े और सामान खरीदने के लिए उकसाते रहता है। ग्रेट ने यह कहा कि वह कभी नए कपड़े नहीं खरीदती, अगर जरूरत भी रहती है तो पुराने कपड़ों के बाजार से इस्तेमाल होने के बाद बिकने वाले पुराने कपड़े ही खरीदती है, और जान-पहचान के करीबी लोगों से कपड़े उधार लेकर भी अपना काम चला लेती है 18 बरस की ग्रेटा थनबर्ग स्वीडन की एक किशोरी है और पर्यावरण को लेकर अपने आंदोलन की वजह से वह खबरों में भी रही। पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बावलेपन की हद तक जाकर ग्रेटा थनबर्ग पर हमला करते थे जिसका मजा लेते हुए ग्रेटा अमेरिका की पर्यावरण विरोधी नीतियों को उजागर करते रहती थी।

इन दो अलग-अलग बातों को अगर देखें तो इनका एक दूसरे से बहुत सीधा रिश्ता नहीं है, लेकिन दोनों ही बातें पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरी हैं। एक तो यह कि लोग एक सेहतमंद जीवनशैली इस्तेमाल करें जिसमें वे पैदल और पैडल पर अधिक निर्भर करें। यह जरूरी है। इसके साथ ही यह भी समझने की जरूरत है कि हिंदुस्तान से हजारों मील दूर किस तरह एक संपन्न यूरोपियन देश स्वीडन में एक किशोरी उन्हीं जीवनमूल्यों को बढ़ावा दे रही है जिन्हें गांधी ने अपनी जिंदगी में इस गरीब हिंदुस्तान में बढ़ाया था. आज अगर यह सोचें कि क्या हिंदुस्तान में कोई लडक़ा या लडक़ी अपने किशोरावस्था में पर्यावरण को लेकर ऐसी जागरूकता की बात कर सकते हैं, तो गांधीवादी होने का दावा करने वाले परिवारों में भी ऐसे कोई बच्चे नहीं मिलेंगे। इसलिए गांधीवादी किफायत न सिर्फ धरती के पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरी है, बल्कि गांधी के किस्म की आत्मनिर्भरता लोगों की सेहत के लिए भी जरूरी है। यह एक अलग बात है कि आज दुनिया की अर्थव्यवस्था जिस तरह से फिजूलखर्ची पर टिक गई है, वह अर्थव्यवस्था जरूर डांवाडोल होने लगेगी।

आज हिंदुस्तान में किसी संपन्न तबके के बच्चों को तो छोड़ ही दें, औसत दर्जे की कमाई वाले परिवारों में भी बच्चे धरती को बचाने के लिए बाजार से पुराने कपड़े खरीदें या यार दोस्तों से उधार में लेकर पहन लें ऐसा किसी ने देखा-सुना भी नहीं होगा। इसलिए ग्रेटा की बातों को ग्रेट मानना भी जरूरी है और उनको गांधी के नजरिए से देखना भी जरूरी है. यह भी समझना जरूरी है कि किस तरह आज का फैशन उद्योग लोगों को गैरजरूरी खरीदारी के तरफ धकेलता है और फैशन को बार-बार बदल कर लोगों को ग्राहक बनाए रखता है, समर्पित ग्राहक।

वैसे तो देश और दुनिया में चर्चित बहुत से फिल्मी और खिलाड़ी सितारों को देखें तो उनकी एक अपील भी गैरजरूरी फैशन खपत को घटा सकती है, लेकिन घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या? यही सारे फिल्म और क्रिकेट के सितारे ऐसे हैं, जो तमाम किस्म की फैशन के इश्तहार करते हैं, उनको बढ़ावा देते हैं। अब अगर अमिताभ बच्चन ही यह कहने लगें कि वे तो पिछले 15 वर्षों से एक ही पतलून पहन रहे हैं, या उन्होंने तो पिछले 5 बरस से कोई नया सूट सिलवाया नहीं है, तो उनके खुद के पेट पर लात पड़ेगी। इसलिए जो लोग मॉडलिंग और बिक्री को बढ़ावा देने के ऐसे धंधे की कमाई पर नहीं टिके हुए हैं, उन लोगों को खुलकर सादगी, और फैशन की बात करनी चाहिए। अब कनाडा का प्रधानमंत्री अगर किसी मौके पर अपने रंग-बिरंगे मोजों के रंग, या उन पर छपी हुई डिजाइन को लेकर अपने सामाजिक सरोकार के प्रदर्शन पर वाहवाही पाता है, तो दुनिया के और भी बहुत से नेता और दूसरे चर्चित व्यक्ति फैशन की बर्बादी घटाने के लिए इस तरह के बयान दे सकते हैं। बहुत छोटी-छोटी बातों को देखें तो फेसबुक कंपनी का नौजवान मालिक मार्क जुकरबर्ग अधिकतर वक्त सलेटी रंग की मामूली टी-शर्ट और जींस में ही दिखता है। उसे किसी मौके के लिए कपड़े छंाटने में भी अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती क्योंकि उसने इन्हीं रंगों के, ऐसे ही डिजाइन के यही कपड़े 4-6 जोड़ी रखे हुए हैं। ऐसे चर्चित लोग भी अगर किफायत को लेकर कोई आंदोलन शुरू करेंगे तो उसका धरती पर बड़ा असर पड़ सकता है लेकिन सवाल यह है कि जिस फेसबुक पर रात-दिन फैशन के इश्तहार आते हैं, क्या वहां पर धंधा मार नहीं खायेगा? इसलिए बहुत से लोग जो सीधे-सीधे मॉडलिंग से जुड़े हुए नहीं है वे लोग भी इश्तहार की कमाई से तो जुड़े हुए हैं। देखें इन्हीं के बीच से कोई रास्ता ऐसा निकल सकता है क्या, जिसमें चर्चित लोग गांधी या ग्रेटर थनवर्ग की तरह किफायत और सादगी को बढ़ावा दे सकें। जिस वक्त चीन में अकाल की नौबत थी और लोगों के पास काम नहीं था, खाना नहीं था, उस वक्त वहां औरत-मर्द सभी के लिए एक ही किस्म की पतलून और वैसा ही कोट, और वह भी एक ही रंग के, लागू कर दिए गए थे ताकि लोग फैशन में बर्बाद ना हों। आज भी सरकार और समाज में जिम्मेदार लोगों को यह देखना चाहिए कि जिंदगी कैसे अधिक किफायती हो सकती है, और कैसे हम धरती पर अधिक बड़ा बोझ बनने से बचें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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