संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अमरीकी नाकामयाबी और उसकी भयानक गैरजिम्मेदारी की मिसाल, अफगानिस्तान
16-Aug-2021 5:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अमरीकी नाकामयाबी और उसकी भयानक गैरजिम्मेदारी की मिसाल, अफगानिस्तान

20 बरस बाद अफगानिस्तान में एक बार फिर तालिबान का राज कायम हो गया है। अभी कुछ हफ्ते पहले की ही बात थी जब अमरीकी फौजियों की अफगानिस्तान से वापस ही शुरूआत हुई थी और नए अमेरिकी राष्ट्रपति डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडन ने खुलकर पिछले रिपब्लिकन राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के इस फैसले पर अमल की बात कही थी कि अमेरिका 11 सितंबर 2021 तक अमेरिकी फौजियों को अफगानिस्तान से निकाल लेगा। अमेरिका और उसके फौजी-समुदाय में नाटो के बैनर तले अमेरिकी लीडरशिप में फौज अफग़़ानिस्तान में 20 बरस से काबिज थी, और उन्होंने वहां की सरकार को अपने कब्जे में कठपुतली की तरह चलाया हुआ था, क्योंकि असली काबू अमेरिकी फौजियों का था, वहां के बजट का 80 फीसदी हिस्सा विदेशी मदद से आ रहा था। लेकिन इस पूरे दौर में भी जब अमरीका ने यह पाया कि 20 बरस में भी तालिबान को कुचलना उसके लिए मुमकिन नहीं हो सका उसके लड़ाकू फौजी विमानों की बमबारी से भी तालिबान पूरी तरह खत्म नहीं हो रहे थे, तो पिछले 3 बरस में अमेरिका ने तालिबान से बातचीत का सिलसिला शुरू किया और अफगानिस्तान की जमीन से बाहर एक तीसरे देश में हुई बातचीत में यह तय हुआ कि अमेरिका एक तय समय में अफगानिस्तान छोडक़र निकल जाएगा, अब वहीं कुछ हफ्ते चल रहे हैं, जब अमेरिकी फौजी निकल रही हैं और तालिबान तकरीबन तमाम देश पर काबिज हो चुके हैं। अमेरिका की मदद से राष्ट्रपति बने हुए अशरफ़ गऩी देश छोडक़र दूसरे देश में शरण ले चुके हैं, और अफगानिस्तान में आज तालिबान का राज पूरी तरह से स्थापित हो चुका है।

अभी 2 दिन पहले की ही बात है कि अमेरिकी खुफिया विभाग की एक रिपोर्ट खबरों में आई कि अमेरिकी फौजों की अफगानिस्तान से वापसी पूरी तरह हो जाने के 6 महीनों के भीतर वहां की सरकार खतरे में आ सकती है, वहां तालिबान का राज लौट सकता है। लेकिन इस रिपोर्ट के आने के कुछ घंटों के भीतर ही 6 महीने तो दूर, अमेरिका की वापसी तो दूर, तालिबान का राज वैसे भी कायम हो चुका है। लेकिन आज का यह मौका तालिबान पर चर्चा का जितना है, उतना ही इस बात पर चर्चा का भी है कि तीसरे देश में जाकर 20 बरस पहले अमेरिका ने जिस तरह से वहां उस वक्त की सोवियत समर्थित सरकार को बेदखल करने का काम किया था, और उसके बाद वहां अपना राज एक बहुत महंगे दाम पर कायम रखा, उसके बारे में सोचने की जरूरत है।

अमेरिका के इतिहास को देखें तो उसने कुछ इसी अंदाज़ में, इतने ही वक्त 20-21 बरस तक वियतनाम के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, और वियतनाम में अमेरिकी फौजियों को वहां की एक पूरी पीढ़ी को खत्म करने में झोंक दिया था। लेकिन उसके बाद बिना किसी नतीजे के अमेरिका को वियतनाम छोडऩा पड़ा था और अमेरिकी फौज की एक पूरी पीढ़ी वियतनाम युद्ध की त्रासदी को लेकर वहां आज तक मानसिक चिकित्सा करवाते हुए जी रही है। और कुछ उसी किस्म के 20 वर्ष का यह फौजी दौर अमेरिका ने अफगानिस्तान में चलाया है। यहां के हालात बिल्कुल अलग थे, यहां की वजह बिल्कुल अलग है, लेकिन 20 बरस के फौजी हमले जो वियतनाम पर चलते रहे, वैसे ही 20 बरस के फौजी हमले अफगानिस्तान पर चलते रहे। वियतनाम में अमेरिकी फौजियों ने अमेरिकी अंदाज के लोकतंत्र का जैसा नंगा नाच किया था, वैसा ही अफगानिस्तान में भी चलते रहा, और बेकसूरों को मारने का अमेरिकी फौज का अंदाज यह था कि वह वहां पर तालिबान होने के शक में अफगान नागरिकों की उंगलियां काट रही थी, उन्हें इकट्ठा करने का एक फौजी खेल खेला जाता था।

आज के वक्त की दिक्कत यह है कि आज अमेरिकी फौज की आलोचना करने का मतलब कई लोग धर्मांध, कट्टर और इस्लामिक राज्य कायम करने वाले तालिबान की तारीफ या तालिबान का समर्थन भी मान सकते हैं। लेकिन यह चर्चा आज जरूरी इसलिए है कि अमेरिका ने 20 वर्षों में अफगानिस्तान के पूरे ढांचे को अपने हिसाब से ढाला, अफगान नागरिकों को अपने हिसाब से जिंदगी जीने का एक मौका मुहैया कराया, उन्हें अमेरिका की मदद करने के काम में लगाया और आज रातों-रात अमेरिका उन तमाम लोगों को तालिबान के रहमोकरम पर छोडक़र जिस तरह से निकल जा रहा है, और जिस तरह से इन 20 वर्षों को मानो मिटाकर तालिबान के हवाले कर दिया जा रहा है वह एक अंतरराष्ट्रीय गैरजिम्मेदारी का ऐतिहासिक मामला है। इन 20 वर्षों में लाखों अफगान नागरिक अमेरिकी हमलों, तालिबानी हमलों, और इन दोनों तबकों के बीच की लड़ाई में मारे गए। आज की तारीख में भी लाखों अफगान औरत-बच्चे, आम नागरिक बेदखल हैं, शरण पाने के लिए दूसरे देशों की सरहदों पर जा रहे हैं, और आज अफगानिस्तान दुनिया का सबसे बड़ा बेदखल नागरिक समुदाय बन गया है, जिसकी कोई जिम्मेदारी अमेरिका आज उठाते नहीं दिख रहा है। अमेरिका की हालत यह है कि अफगानिस्तान पर कब्जा करने के वक्त ब्रिटिश फौज को उसने अपना सबसे बड़ा साथी बनाकर रखा हुआ था, वह ब्रिटिश सरकार भी आज अमेरिकी फौजियों की अफगान से वापिसी के खिलाफ है। लोगों को याद होगा कि चाहे इराक पर अमेरिकी हमला हो, चाहे अफगानिस्तान पर, इनमें ब्रिटिश सरकार उसकी सबसे बड़ी भागीदार रही है, और आज ब्रिटिश प्रतिरक्षामंत्री ने खुलकर अमेरिकी फौजियों की इस तरह से एकतरफा वापिसी के खिलाफ सार्वजनिक बयान दिया है।

यह पूरा सिलसिला एक विश्व समुदाय के रूप में दुनिया की नाकामयाबी का भी है कि आज संयुक्त राष्ट्र जैसे किसी अंतरराष्ट्रीय संगठन की बोलती ही अफगानिस्तान को लेकर बंद है, और वह महज एक शरणार्थी कार्यक्रम चलाकर अपनी जिम्मेदारी को पूरा मान रहा है। दूसरी तरफ पूरी दुनिया का सबसे बड़ा दादा बना घूम रहा अमेरिका किस तरह इराक पर हमले के बाद कुछ भी साबित नहीं कर सका कि इराक के पास जनसंहार के हथियार थे। अमेरिका ने इराक के उस वक्त के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को जिस अंदाज में फांसी चढ़ाया  और अमेरिकी सरकार के सारे दावे झूठे साबित हुए कि इराक के पास पूरी दुनिया को खत्म करने के हिसाब से जनसंहार के हथियारों का जखीरा मौजूद था। इराक के पास से ऐसा एक हथियार भी अमेरिका बरामद करके नहीं दिखा सका। अब उसके बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी रणनीति की ऐसी शिकस्त और शरणार्थियों की अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी से मुंह मोडऩे के अमेरिकी तौर-तरीकों को देखने की जरूरत है। हम अफगानिस्तान को एक धार्मिक कट्टरता में डुबा देने वाले तालिबानों के जुर्म कहीं से भी कम आंकने के हिमायती नहीं हैं। लेकिन तालिबान तो दुनिया के किसी लोकतंत्र के प्रति जवाबदेह नहीं थे, उन्होंने कभी किसी लोकतंत्र में भरोसा नहीं दिखाया था। दूसरी तरफ अफगानिस्तान में लोकतंत्र कायम करने, बचाने, के नाम पर अमेरिका ने अपने आपको दुनिया का एक सबसे ताकतवर लोकतंत्र साबित करते हुए जिस तरह की फौजी कार्रवाई 20 बरस अफगानिस्तान पर की, वह जरूर अधिक फिक्र की बात है। यह अधिक क्षेत्र की बात है कि 20 बरस पहले अफगानिस्तान जिस हाल में था, उस हाल से अधिक बदहाल उसे छोडक़र, तालिबान के रहमोकरम पर छोडक़र अमेरिका जिस गैरजिम्मेदारी के साथ वहां से बाहर निकला है, उससे दुनिया को यह भी सबक लेने की जरूरत है कि क्या दुनिया के इस गुंडे देश को इस तरह 20-20 बरस किसी इलाके पर फौजी हुकूमत चलाकर उस इलाके को एक अंधड़ के बीच में छोडक़र निकल जाने की इजाजत दी जानी चाहिए?

लेकिन सवाल यह है कि अमेरिका को रोकेगा कौन? सद्दाम हुसैन पर हमले के वक्त संयुक्त राष्ट्र में कुछ देशों ने यह बात तो उठाई थी लेकिन अमेरिका ने उस वक्त भी किसी की कोई बात नहीं सुनी। लोगों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सोवियत कब्जे के खिलाफ, सोवियत फौजियों की मौजूदगी के खिलाफ अफगानिस्तान में तालिबानों को अमेरिका ने ही बढ़ाया था और पाकिस्तान के रास्ते इन तालिबानियों को फौजी ट्रेनिंग और फौजी हथियार दे-देकर अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट फौजियों को छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया गया था। तालिबानियों के खिलाफ अमेरिका उस वक्त अधिक हमलावर हुआ जब उसे लगा कि न्यूयॉर्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर में हमला करने वाले ओसामा बिन लादेन को तालिबानी बचाकर रख रहे हैं। लेकिन हकीकत यह निकली ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान में, पाकिस्तानी सरकार की जानकारी में, शहर के बीच छुपा बैठा था और वहां घुसकर अमेरिका को उसे मारना पड़ा था। लेकिन फिर भी अमेरिका की पाकिस्तान पर मेहरबानियां कम नहीं हुई थीं और हिंदुस्तान जैसा देश बार-बार अमेरिका को यह याद दिला रहा था कि पाकिस्तान आतंकियों की पैदावार की जगह हो गई है, और वहां से आतंक की उपज आसपास के देशों में जा रही है।

आज भी जब तालिबानी अफगानिस्तान पर चारों तरफ कब्जा कर चुके हैं, तब भी बार-बार यह बात आ रही है कि पाकिस्तान की जमीन से तालिबानियों को साथ दिया जा रहा है। इसलिए अमेरिका की साजिश किसी कोने से खत्म होते नहीं दिखती है, वह खुद एक मोर्चे पर अपनी फौजों को तालिबानियों के खिलाफ झोंककर रख रहा है, और दूसरी तरफ उसी के पैसों से पाकिस्तान जैसे देश तालिबानियों की मदद करते आ रहे हैं। अमेरिका दुनिया का एक सबसे गैरजिम्मेदार देश से साबित हुआ है जिसने बिना किसी जरूरत दूसरे देशों पर जंग थोपी है और फिर वहां के लोगों को एक आंधी-तूफान के बीच में छोडक़र अपनी फौज सहित भाग निकला है। आज दुनिया के बाकी देशों को देखें तो अमेरिका के मुकाबले यूरोप के अधिकतर देश अधिक जिम्मेदार साबित हो रहे हैं जिन्होंने इराक और सीरिया और दूसरी जगहों के शरणार्थियों को अपने देश में जगह दी है, आज देखने की बात यह रहेगी कि अमेरिका अपने देश के  लाखों मील के बंजर इलाकों में अफगानिस्तान के शरणार्थियों के लिए कितनी जगह निकालता है, या फिर उसके लिए अफगानिस्तान महज रूस के फौजियों को शिकस्त देने का एक मैदान था, और उस काम को पूरा करने के बाद वह अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों से मुंह चुराकर भाग निकला है। अमेरिका ने आज ना महज अफगानिस्तान को बेसहारा नहीं छोड़ा है, हिंदुस्तान जैसे देशों को भी एक चौराहे पर लाकर छोड़ दिया है। उसने हिंदुस्तान जैसे बहुत से देशों को भी खतरे में डाल दिया है जो कि अफगानिस्तान में एक निर्वाचित सरकार को देखना चाहते थे, और वहां ऐसी सरकार की मदद कर रहे थे। अब तालिबानियों ने हिंदुस्तान जैसी फ़ौज से यह साफ कर दिया है कि हिंदुस्तान वहां ना आए, हिंदुस्तान तालिबानियों से टकराव न ले। और दूसरी तरफ हिंदुस्तान के कुछ नेताओं ने इस बात को लेकर आशंका जाहिर की है भारत-पाकिस्तान सरहद पर पाकिस्तान की तरफ से होने वाले आतंकी हमलों में तालिबान भारत के खिलाफ जा सकते हैं। अमेरिका दुनिया को अस्थिरता में हिंसक धार्मिक कट्टर लड़ाकों के भरोसे छोडक़र भाग निकला है। उसके बुरे नतीजे दुनिया के बहुत से देश भुगतने जा रहे हैं, सबसे अधिक तो अफगानिस्तान के लोग जिनके पास आज जाने के लिए कोई देश भी नहीं बचा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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