विचार / लेख

ठंडा शरीफ आदमी
03-Sep-2021 7:24 PM
ठंडा शरीफ आदमी

-दिनेश चौधरी
उनके और मेरे घर के बीच सिर्फ एक दीवार है, इसलिए लिहाज करना पड़ जाता है। आमतौर पर मैं उनसे टकराना नहीं चाहता। घर से बाहर निकलने पर उन्हें कहीं जाते या खड़े हुए देखता हूँ, तो धीरे से कन्नी काट लेता हूँ। न हुआ तो उल्टे पाँव घर में दुबक जाता हूँ। नहीं, वे कोई बुरे आदमी नहीं है। भले इंसान है। इतने भले कि उनकी भलमनसाहत बर्दाश्त नहीं होती।

हमउम्र ही होंगे, या कुछ ज्यादा; पर अभी से बूढ़े लगने लगे हैं। या शायद पैदा ही बूढ़े हुए होंगे। मुझे लगता है कि उनके बचपन और जवानी की कडिय़ाँ गायब हैं। वे बचपन मे भी वैसे ही दिखते रहे होंगे, जैसे अब दिखते हैं। कोई और अक्स जेहन में उभरता ही नहीं। खड़े होते हैं तो कमान की तरह झुके लगते हैं। अजीब-सी मुद्रा होती है। पैदायशी याचक लगते हैं। हाथ हर वक्त जुड़े हुए। आँखे कोटर से बाहर निकलने को बेताब। कभी-कभी यूँ लगता है कि उनके चेहरे पर बस दो आँखे ही रह गयी हैं। मुझे बचपन में पढ़ी वह कहानी याद आती है जिसमें एक इंसान की पत्थर की नकली आँख हुआ करती थी। रात को वह अपनी आँख निकालकर प्लेट में धर देता और नौकर बेचारा मारे डरके रात भर पँखा झलता।

वे कभी किसी पर गुस्सा नहीं करते। उन्हें आज तक किसी बात पर उत्तेजित होते नहीं देखा। कभी किसी से बहस नहीं करते। किसी बात पर ठहाका लगाना तो दूर, हँसते भी नहीं देखा। कुछ बहुत ज्यादा ही विनोद की बात हो तो बस दो आँखे कुछ और बाहर निकल आती हैं। जिस इंसान को कभी हँसते हुए न देखा हो, उसे रोते हुए देखने की बात कहना इस सदी का सबसे बड़ा मजाक होगा। वे अपनी जिंदगी में शायद ही कभी रोए होंगे। दु:ख भी उनके पास फटकने में हजार बार सोचता होगा और उन्हें छूकर और दु:खी हो जाता होगा कि किसके पल्ले पड़ गए। संक्षेप में वे ऐसे किस्म के इंसान हैं, जिसे रसायन-शास्त्र की भाषा में रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन कहा जाता है। भौतिकी के लिहाज से वे जड़ वस्तु हैं और कहना न होगा कि उनका गणितीय योगफल शून्य के बराबर है। आप हजरात सोच रहे होंगे कि मैं उनकी कुछ ज्यादा ही बुराई करने में लगा हुआ हूँ और बेहद खराब किस्म का पड़ोसी हूँ। माफ कीजियेगा! मुझे इसकी सफाई में कुछ नहीं कहना है।

घर में पत्नी और एक बेटा है। नौजवान है। बहुत सारे इम्तिहान दिए पर कहीं कामयाबी नहीं मिली। वैसे लडक़ा भला है पर ‘आई क्य’ लेवल बहुत कमजोर है। कहना नहीं चाहिए, पर उसका कुछ नहीं हो सकता। प्रतियोगिता का जमाना है। सामान्य ज्ञान बढाने के लिए दिन भर टीवी की खबरें देखता है। उसे नहीं पता कि खबरों से ज्ञान नहीं बढ़ रहा है, बुद्धि भ्रष्ट हो रही है। बहुत सीधा है बेचारा। कुछ समझाने की कोशिश करता हूँ तो ‘जी अंकल, जी अंकल’ कहता है। पिता की तरह भला आदमी है। कभी किसी बात पर प्रतिवाद नहीं करता। कोई तर्क नहीं। कोई जिज्ञासा नहीं। मुझे चिंता है कि पिता की तरह वह भी असमय बूढ़ा न हो जाए। बाप निजीकरण का हिमायती है, पर चाहता है कि बेटे को सरकारी नौकरी मिल जाए। अभी कल ही रेल के निजीकरण की चर्चा चल रही थी। उन्होंने कहा, ‘हाँ जी, ये तो बहुत जरूरी है। प्राइवेट सेक्टर में सर्विस अच्छी मिलती है।’

बचते-बचाते भी मिलना तो पड़ता ही है। अभी पिछले सप्ताह वायरल से पीडि़त था। उन्हें पता चला तो दौड़े चले आए। भले पड़ोसी होने का इतना धर्म तो बनता है। उम्र में बड़े हैं, पर उल्टे पैर छूते हैं। मुझे बड़ी कोफ्त होती है। उन्होंने बहुत अपने-पन के साथ शिकायत की कि बुखार में पड़े होने के बावजूद इत्तिला क्यों नहीं की। फिर उन्होंने बहुत सारे नुस्खे, परहेज और खुराक के बारे में बेशकीमती सलाह दी। जड़ी-बूटियों के नाम बताए। कहा कि अंग्रेजी दवाएँ न लूँ, गर्म करती हैं। स्नान नहीं करने की सलाह दी और शाम को मना करने के बावजूद जबरन खिचड़ी ले आए। मैंने सोचा कि उनके जाने के बाद प्लेट धीरे से खिसका दूँगा, पर वे अपने सामने खिलाने पर आमादा हो गए। उनकी आंखों पर नजर पड़ी। मैंने सोचा चुपचाप गुटकने में ही भलाई है। यह ख्याल भी जेहन में आया कि वे ठीक इंसान हैं, मैं ही शायद कुछ कमीने किस्म का हूँ।

मैंने कहा- ‘वायरल सब तरफ फैल रहा है। आप भी जरा बचकर रहें।’ उन्होंने कहा, ‘हाँ जी फैल तो रहा है। सबको होगा तो हमें भी हो सकता है।’
-‘फिर भी सावधानी तो बरतनी ही चाहिए।’
-‘हाँ जी, बिल्कुल बरतनी चाहिए। सब बचे रहेंगे तो हम भी बचे रहेंगे।’
-‘असल में शहर में साफ-सफाई की व्यवस्था ठीक नहीं है। बीमारी महामारी की तरह फैल रही है।’
-‘सभी शहरों का यही हाल है जी। सब जगह महामारी फैल रही है।’
-‘पिछली बार तो कितने ही लोग मर गए। कई तो अपने नजदीकी भी थे।’
-‘सभी जगह लोग मर रहे थे जी। सबके नजदीकी लोग मर रहे थे।’
-‘आपको क्या लगता है, सबके मरने से अपनों के मरने का दुख कम हो जाता है।’
-‘नहीं जी, ऐसा कैसे हो सकता है..। पर सब मर रहे हो तो अपने भी तो मरेंगे।’
-‘आपने टीके लगवा लिए?’
-‘हाँ जी! सब लगवा रहे थे तो हमने भी लगवा लिए।’

उनकी तर्क पद्धति के आगे मैंने हथियार डाल दिए। खिचड़ी गटकना मुश्किल हो रहा था। उबकाई-सी आने लगी। उन्होंने घबराकर मेरे माथे पर हाथ धर दिया। हाथ ठंडा था। वैसा नहीं, जिसकी तासीर में ठंडक हो। मुर्दाघर में रखने वाली बर्फ की सिल्लियों सी ठंडक थी। मैं घबराकर उनका हाथ हटाना चाहता था, पर उनकी आँखों पर नजर पड़ गई। मैंने अपनी आँखें मूँद लीं और देह को ढीला छोड़ दिया।
 

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