विचार / लेख
-दिनेश श्रीनेत
हमारे लौकिक जीवन में शामिल देवताओं से मेरा वास्ता सबसे पहले बचपन में कैलेंडर के जरिए हुआ था। उन दिनों कैलेंडर हर घर की सजावट का हिस्सा हुआ करते थे। इन पर राजा रवि वर्मा की शैली से प्रभावित देवी-देवताओं के चित्र होते थे। दुर्गा के कैलेंडर थोड़े बाद में आए मगर राम, हिमालय में साधना करते शिव, हनुमान अक्सर उन कैलेंडर में नजऱ आते थे। बचपन की इन्हीं स्मृतियों से देवता जीवन में प्रवेश करते हैं।
हनुमान को देखकर मन में क्या भाव जगता था? अहंकार रहित बल और सेवा की अवधारणा, जो उन्हें साधारण प्राणी से ऊपर उठाता और अनुकरणीय बनाता था। वहीं शिव अपने भीतर जैसे इस सृष्टि की एक आदिम गूंज़ को समेटे हुए थे, गंगा नदी, सर्प, विष और हिमालय की विशाल पर्वत श्रृंखलाओं में उनका निवास। गंगा एक नदी भर नहीं स्त्री थीं, दुर्गा एक स्त्री भर नहीं सिंह की सवारी करने वाली वीर योद्धा थीं। गणेश किसी ऐश्वर्य से भरे परिवार के बालक लगते थे और कैलेंडर में उनके समक्ष बूंदी के लड्डू बनाने में ऐसी कलाकारी की जाती थी कि वे असली, सुनहरे और घी में डूबे लगते थे।
मंदिरों में जाना बहुत कम हुआ और वहां भीड़-भाड़ और आडंबर कभी अच्छा भी नहीं लगा मगर गांव में होने वाले अनुष्ठानों में लोग जिस तन्यमता में डूब जाते थे वह कोई अलग और अलौकिक सा अहसास कराता था। जिन दिनों बिजली नहीं होती थी रात के अंधेरे में विशाल हवेली के कोने-कोने में धुएँ और कालिख में डूबे देवताओं के गोपन स्थान, पीपल की हठीली जड़ों में या जर्जर होती दीवारों पर दिए जलते दिए देखकर लगता था कि इसी धरती पर कुछ है जो अभी जानने से रह गया है।
सितारों जड़े आसमान के नीचे पेट्रोमैक्स की सफेद रोशनी में औरतें इक_ा होकर बड़े बड़े कड़ाहों में आधी-आधी रात तक प्रसाद तैयार करती थीं, या जब पुरुष मंत्रोच्चार करते हुए हवन कुंड में आहुति देते तो लगता था कि हम सब न सिर्फ किसी अदृश्य धागे से बंधे हैं बल्कि कुछ ऐसा भी है जो हमें हमारे अतीत और भविष्य से भी जोड़ रहा है, हम किसी बड़ी महागाथा का एक प्रसंग भर हैं। और यह भावना ही हमारे भीतर उत्साह भर देती थी। हमें लगता था कि इस सृष्टि में हमारी भी कोई भूमिका है।
वक्त बीतता गया और देवताओं के प्रति मेरा सौंदर्यबोध भी बदलता गया। कैलेंडर आर्ट अब उतनी नहीं लुभाती थी मगर राम और शिव अपने धीरोदात्त रूप के कारण अनुकरणीय लगते थे। मुझे दोनों के व्यक्तित्व में ठहराव और धीरज बहुत पसंद था। गांव में दशहरे के समय रामलीला होती थी और घर के ही लडक़े राम से लेकर रावण तक का किरदार अदा करते थे। कई कई घंटों तक उनका मेकअप होता था। उन्हें लगभग किसी स्त्री की तरह सजाया जाता था। और जब वह मंच पर आते थे तो वो नहीं होते थे जिसे हम अब तक देखते आए थे। उनके कदम भी मंच पर किसी नृत्य की लय पर पड़ते थे। बिना अभिनय स्कूल में गए वे जाने कैसे सब कुछ सीख जाते थे।
उन्हीं दिनों दूरदर्शन पर फिल्म प्रभाग की एनीमेटेड फिल्म में एक प्रसंग दिखाया जाता था जिसमें पांडवों के वनवास के वक्त जब उनके पास कुछ खाने को नहीं होता है तब कृष्ण आकर द्रौपदी से भोजन की फरमाइश कर बैठते हैं, जिसमें कहीं न कहीं सखा भाव से छेड़छाड़ भी शामिल है। द्रौपदी पतीले की तली में लगा चावल लेकर आती है, जिसे कृष्ण स्वीकार करते हैं और तृप्त होते हैं। संदेश था कि अन्न का हर दाना कीमती है। इसका आर्टवर्क लोक कलाओं के ज्यादा करीब था। यानी राजा रवि वर्मा की जगह जामिनी राय के ज्यादा निकट।
बचपन में ही दक्षिण से निकलने वाली चंदामामा में राम की धारावाहिक कथा चल रही थी। उनके स्रोत तुलसी रामायण से भिन्न थे, लिहाजा कई प्रसंग भी अलग थे। राम, लक्ष्मण, हनुमान, सीता और जाने कितने किरदार और उनकी रंगीन तस्वीरें, पर्वत मालाओं घने जंगल या उफनते गरजते सागर के पास खड़े श्रीराम... हम उनकी कहानी हर पखवारे दम साधे पढ़ते रहते। देखते कि कैसे एक-एक कदम अपने लक्ष्य की तरफ वे बढ़ते जाते हैं।
स्कूल में आए तो कृष्ण से परिचय हिंदी साहित्य के काव्य के माध्यम से हुआ, किसी खिलंदड़े, प्रेम में पगे किंतु बुद्धिमान व्यक्तित्व से। मगर राम हमेशा से बड़े अनुकरणीय लगे। खास तौर पर जीवन के बहुत मुश्किल क्षणों में उनके फैसले लेने की क्षमता और सत्य से न डिगने का साहस और विपरीत परिस्थितियों में धीरज।
वक्त और बदला हम कॉलेज गए, ज्यादा तार्किक हुए। इतिहास और मिथ में अंतर समझने लगे। नास्तिकता की तरफ स्वाभाविक रूप से बढ़े। धीरे-धीरे बचपन के देवी और देवता मेरी सांस्कृतिक स्मृतियों का हिस्सा बनते गए। उनकी उत्सवधर्मिता, इन आर्किटाइप छवियों में छिपे उदात्त मानवीय मूल्य और शेक्सपियर के पात्रों की तरह जीवन के झंझावातों के प्रतीकात्मक संकेत जिन्हें डिकोड करने पर जीवन सरल हो जाता था- मन पर वैसा ही बचपन के दिनों सी अमिट छाप छोड़ती थी।
सन् 1992 में जब सारे शहर में कर्फ्यू लगा तो रात के अंधेरे में एक हुंकार सुनाई देती थी, जय श्री राम! और तब पहली बार लगा कि मैंने अपने राम को खो दिया।
हर कहीं राम नजऱ आने लगे थे। बड़े-बड़े पोस्टरों में। मगर ये राम अब परिवार के साथ नहीं नजर आते थे। उनकी प्रिय संगिनी सीता भी उनकी बगल से जाने कैसे विलुप्त हो गईं। वे अकेले धनुष लेकर युद्ध के लिए तत्पर दिखते थे।
कौन थे ये राम? मेरे राम ने वानरों और भालुओं की सेना लेकर चढ़ाई का हौसला दिखाया था। अपने प्रेम के लिए वन, पर्वत, सागर को पार करते हुए चले गए। एक नन्हीं सी गिलहरी भी उनको सहयोग करने के लिए तैयार थी।
धीरे-धीरे हमारे देवता एक पॉप आर्ट में बदलने लगे। उन्हें इस कदर बलशाली मानों वे जिम से निकले हों इस तरह चित्रित किया जाने लगा। शिव भी बहुत बदल गए। हाल के दिनों में उनकी कई अप्रिय छवियों का सृजन हुआ है। ‘हर हर महादेव’, ‘जय महाकाल’ और चिलम वाली तस्वीरों से शिव की जो तस्वीर बनती है वो मेरी बचपन की स्मृतियों से बहुत अलग है।
जैसा समाज वैसे देवता... मुझे लगता है हमने तो अपना ही रूप उन पर आरोपित कर दिया है।
हमारे देवता कहीं खो गए हैं।