संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जिन पर संवैधानिक जिम्मा है वैज्ञानिक सोच बढ़ाने का, वे लगे हैं पाखंड को बढ़ाने में...
05-Sep-2021 5:02 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  जिन पर संवैधानिक जिम्मा है वैज्ञानिक सोच बढ़ाने का, वे लगे हैं पाखंड को बढ़ाने में...

cartoon santosh chandan

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुधवार को एक निर्णय में कहा कि वैज्ञानिक मानते हैं कि गाय ही एकमात्र पशु है जो ऑक्सीजन लेती और छोड़ती है, तथा गाय के दूध, उससे तैयार दही तथा घी, उसके मूत्र और गोबर से तैयार पंचगव्य कई असाध्य रोगों में लाभकारी है। हिंदी में लिखे अपने आदेश में जस्टिस शेखर कुमार यादव ने दावा किया है, ‘भारत में यह परंपरा है कि गाय के दूध से बना हुआ घी यज्ञ में इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इससे सूर्य की किरणों को विशेष ऊर्जा मिलती है जो अंतत: बारिश का कारण बनती है।’ कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा, ‘‘हिंदू धर्म के अनुसार, गाय में 33 कोटि देवी देवताओं का वास है। ऋगवेद में गाय को अघन्या, यजुर्वेद में गौर अनुपमेय और अथर्वेद में संपत्तियों का घर कहा गया है। भगवान कृष्ण को सारा ज्ञान गौचरणों से ही प्राप्त हुआ।’’  फैसले में लिखा गया है कि गाय को सरकार राष्ट्रीय पशु घोषित करे और हर हिन्दू को उसकी रक्षा का अधिकार रहे।

हिंदुस्तान बड़ी दिलचस्प जगह बनते जा रहा है। यहां पर बड़ी-बड़ी अदालतें अवैज्ञानिक बातों को विज्ञान कहकर उसे लगातार बढ़ावा दे रही हैं, और संविधान की मूल भावना में अच्छी तरह साफ-साफ लिखी गई इस बात के खिलाफ काम कर रही हैं कि देश में एक वैज्ञानिक सोच विकसित की जानी है। भारतीय संविधान की धारा 51-ए यह कहती है कि हर नागरिक की यह बुनियादी जिम्मेदारी है कि वे वैज्ञानिक सोच विकसित करें। संविधान कहता है कि वैज्ञानिक सोच लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद, और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना विकसित करते हैं।

देश के सबसे बड़े इस हाई कोर्ट के इस जज ने तमाम किस्म की अवैज्ञानिक बातों को लिखकर यह लिख दिया है कि वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं। अब इस फैसले के खिलाफ जब तक सुप्रीम कोर्ट से कोई आदेश नहीं आता है, तब तक इस देश में गाय के नाम पर पाखंड फैलाने वाले धर्मांध लोगों के हाथ एक बड़ा हथियार लग गया है। गाय के ऑक्सीजन छोडऩे को भाजपा के एक मुख्यमंत्री और ढेर सारे दूसरे मंत्रियों और नेताओं के साथ-साथ अब एक हाई कोर्ट जज ने भी सर्टिफिकेट दे दिया है। लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले एक-दूसरे हाई कोर्ट, राजस्थान के जज महेश चंद्र शर्मा ने यह कहा था कि मोर सेक्स नहीं करते और मोर के आंसुओं को पीकर मोरनी गर्भवती हो जाती है। कुछ साल हुए हैं जब एक हाईकोर्ट जज ने यह लिखा था कि गीता को भारत का राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करना चाहिए। लोगों को राजस्थान से निकलकर आने वाले एक हाई कोर्ट जज का वह फैसला याद है जिसमें उन्होंने सती प्रथा का समर्थन किया था। अलग-अलग समय पर इस केस में के फैसले लिखने वाले लोग जब हाईकोर्ट में बैठे हुए दिखते हैं तो लगता है कि बाकी मामलों में इनका राजनीतिक रुझान इनकी धार्मिक मान्यताएं इनके सांस्कृतिक पूर्वाग्रह इनके फैसलों को किस तरह प्रभावित करते होंगे। जो साधारण जानकारी है उसके मुताबिक सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के किसी जज को हटाने के लिए संसद की एक लंबी कार्रवाई की जरूरत पड़ती है और वह आसान नहीं होती है। जज को हटाने के लिए एक महाभियोग चलाना पड़ता है जिसके लिए बहुत सारे सांसदों की जरूरत पड़ती है। और आज तो यह सारे जज जिस भाषा को बोल रहे हैं, जैसे विचार सामने रख रहे हैं, वह तो संसद में सबसे बड़े गठबंधन की भाषा है, तो फिर वहां पर इनके खिलाफ क्या हो सकता है? लेकिन सोशल मीडिया पर, सार्वजनिक जीवन में जजों के ऐसे पूर्वाग्रहों के खिलाफ लगातार लिखे जाने की जरूरत है, और उन्हें संविधान की वैज्ञानिक जिम्मेदारी याद दिलाने की जरूरत है, ताकि अगली बार कोई दूसरा जज इस तरह का कुछ लिखते हुए चार बार सोच तो ले।

अभी-अभी हमने अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के बारे में लिखा था कि किस तरह एक बहुत ही दकियानूसी कानून को बनाने वाले राज्य में उसे रोकने से सुप्रीम कोर्ट ने मना कर दिया क्योंकि जजों का बहुमत बहुत ही संकीर्णतावादी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बनाए हुए लोगों का था। भारत में जिस तरह सामाजिक हकीकत को अनदेखा करके, सर्वधर्म समभाव को अनदेखा करके कुछ जज जिस तरह कट्टरता की बात को बढ़ावा देते हैं, जिस तरह वे वैज्ञानिकता और पाखंड को बढ़ाते हैं, वह बहुत भयानक है। जाहिर है कि ऐसे जज बहुत से मामलों में अपनी इसी विचारधारा के चलते हुए किसी नेता, या किसी सरकार, या किसी नीति के पक्ष में अनुपातहीन ढंग से झुके हुए भी रहेंगे। भारत में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने अपने आपको अवमानना का एक कानून बनाकर जिस तरह एक फौलादी कवच के भीतर सुरक्षित रखा हुआ है, उस गैरजरूरी हिफाजत को भी खत्म करने की जरूरत है। अवमानना के कानून के चलते अगर किसी जज या उसके फैसले की कोई आलोचना होती है, तो छुईमुई के पत्तों की तरह संवेदनशील न्यायपालिका तुरंत ही उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू कर देती है। इस बारे में भी देश के जागरूक तबके ने लगातार इस मुद्दे को उठाया है कि अवमानना का यह कानून खत्म किया जाना चाहिए ताकि अदालत के फैसले, उसकी सोच के बारे में जनता के बीच एक खुली चर्चा हो सके।

अदालत का अपने आपको जनचर्चा से इस तरह ऊपर रखना अलोकतांत्रिक रवैया है। अब तो सोशल मीडिया की मेहरबानी से बहुत से लोग बिना डरे-सहमे और शायद अवमानना के कानून से अनजान रहते हुए कई बातें लिख भी देते हैं। और यह लोकतांत्रिक सिलसिला आगे बढऩा चाहिए क्योंकि हो सकता है कि किसी दिन ऐसे किसी मामले को अवमानना के तहत कटघरे में खड़ा किया जाए तो उस पर होने वाली बहस इस कानून की संवैधानिकता को खत्म करने के काम आ जाए। फिलहाल हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट को खुद होकर किसी हाईकोर्ट के ऐसे फैसले का नोटिस लेना चाहिए, और उसे खारिज करने के लिए किसी अपील का इंतजार नहीं करना चाहिए, खुद होकर यह काम करना चाहिए। देश में सरकार से लेकर न्यायपालिका तक और सांसदों तक पर वैज्ञानिक सोच को विकसित करने की संवैधानिक जिम्मेदारी है, लेकिन यह तीनों ही संस्थाएं लगातार अवैज्ञानिक बातों को बढ़ावा देने में लगी हुई हैं। इन तीनों को संवैधानिक जिम्मा याद दिलाते हुए लोगों के बीच बहस छिडऩी चाहिए और इन पर खुलकर लिखा जाना चाहिए।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news