विचार / लेख
-संजय श्रमण
ज्योतिबा फुले ने भारतीय महिलाओं को शुद्रातिशूद्र की श्रेणी में गिना था। न केवल शूद्रों की तरह उनका शोषण होता है बल्कि सवर्णों और शुद्रो दोनों श्रेणियों के मर्दों द्वारा भी उनका एक ही जैसा शोषण होता है।
भारतीय समाज व्यवस्था में बंगाल सहित पूरे देश में सवर्ण जातियों में एक पुरुष बहुत कम उम्र की बच्ची से शादी कर सकता था। ईश्वरचंद विद्यासागर के गुरू ने सत्तर पार की उम्र में पांच साल की लडक़ी से शादी की थी। ऐसे ही ज्योतिबा फुले के एक ब्राह्मण मित्र ने भी एक बच्ची से शादी की थी। उम्र में इस अमानवीय अंतर के साथ अवसरों में भी अंतर था। एक विधुर, अलग हो चुका या पहले से ही विवाहित पुरुष कई बार विवाह कर सकता था।
ऐसे में बूढ़े पति की मृत्यु से या चार पांच पत्नियों के एक पति की मृत्यु से समाज में विधवाओं और अबलाओं की संख्या बढ़ जाती थी, इस कारण समाज में व्यभिचार, अनैतिक संबन्ध आदि बढ़ जाते थे। इस बड़ी समस्या का इलाज विश्वगुरु ने अपने ही निराले अंदाज में निकाला। दुनिया का कोई सभ्य समाज ऐसे उपायों की कल्पना नहीं कर सकता। ये इलाज पूरे भारत में प्रचलित और स्वीकृत थे।
पहला इलाज था सती प्रथा, हर स्त्री को अपने पति के साथ जल मरना चाहिए।
दूसरा इलाज था कि विधवा घर के एक कोने में गाय बकरी की तरह आजन्म बंधी रहे या आत्महत्या कर ले या कुपोषित रहकर खुद ही मर जाये।
तीसरा इलाज था वैश्यालय जो हर बड़े धार्मिक तीर्थ के आसपास बन जाया करते थे।
सबसे पहले ज्योतिबा फुले ने इन स्रियों की बेहतरी के लिए आवाज उठाई, उन्होंने विधवा गर्भवतियों के लिए एक आश्रम खोला और ‘अवैध’ बच्चों की जिम्मेदारी खुद उठाई। ऐसे ही एक ब्राह्मणी विधवा के बेटे को उन्होंने अपना बेटा बनाकर पाला। इसी क्रम में स्त्रीयों के लिए स्कूल भी खोले और बेहद गरीबी की हालत में इन स्कूलों को चलाया। इस बात की चर्चा नहीं होती। क्योंकि फूले एक शुद्र हैं।
अंग्रेजों के साथ उठने बैठने के दौरान बंगाली भद्रलोक के कुछ लोगों को इसपर बड़ी शर्म महसूस हुई और उन्हीने कम से कम सती प्रथा को विराम लगाने का प्रयास किया। राजा राम मोहन रॉय ने बडे संघर्ष के बाद अंग्रेजी सरकार की मदद और प्रेरणा से इस कुप्रथा को बंद किया। इस बात की खूब चर्चा होती है। क्योंकि रॉय एक ब्राह्मण हैं।
सोचिये अगर यूरोपीय सभ्य समाज का सम्पर्क भारत से न हुआ होता तो क्या क्या नहीं चल रहा होता इस देश में?