संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : उम्र सवा सौ बरस हो भी जाये, तो क्या-क्या होगा, यह भी सोचें
27-Sep-2021 5:26 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : उम्र सवा सौ बरस हो भी जाये, तो क्या-क्या होगा, यह भी सोचें

ब्रिटेन में एक भारतवंशी वैज्ञानिक सर शंकर बालासुब्रमण्यम ने इंसानों के जींस से जुड़ी हुई एक नई खोज की है जिससे उनकी बीमारियों को शुरुआती दौर में ही पकड़ा जा सकेगा और उनके लिए अलग से दवाइयां बनाकर उनका इलाज भी किया जा सकेगा। ऐसा माना जा रहा है कि बीमारियों की ऐसी शिनाख्त और उसके इलाज से औसत उम्र भी काफी बढ़ सकती है और 120 बरस तक उम्र बढऩे की एक अटकल लगाई जा रही है। यूनिवर्सिटी आफ कैंब्रिज के विशेषज्ञ सुब्रमण्यम ने अपनी इस कामयाबी का खुलासा किया है और दिलचस्प बात यह भी है कि अब इंसानी जींस कि यह जांच बहुत मामूली खर्च से हो सकती है, जबकि कई बरस पहले जब पहली बार इस किस्म की एक जांच शुरू हुई थी तो उस पर सैकड़ों करोड़ों रुपए खर्च हुए थे।

यह अकेला विश्वविद्यालय या अकेली प्रयोगशाला नहीं है जहां पर इस तरह की खोज चल रही थी, या अभी चल रही है। इंसान की जिंदगी को कैसे बढ़ाया जाए यह एक बड़ी चुनौती है और इसका एक बड़ा बाजार भी है. जिस तरह लोग अमर हो जाना चाहते हैं, जिस तरह लोग अपने हमशक्ल और अपने किस्म के क्लोन बनवाना चाहते हैं, लोग उम्र को अधिक से अधिक लंबा और सेहतमंद भी करवाना चाहते हैं, तो उन सबको देखते हुए इस किस्म की तमाम रिसर्च पर खासा खर्च भी हो रहा है क्योंकि अतिसंपन्न लोगों के बीच ऐसी खोज का एक बड़ा महंगा बाजार भी रहेगा। लेकिन चिकित्सा विज्ञान की कामयाबी और लोगों की बढ़ी हुई उम्र से परे कुछ और चीजों पर भी सोचने की जरूरत है कि अगर इंसान की उम्र 25-50 बरस बढ़ जाती है, तो उसके क्या-क्या असर होंगे? यह महज चिकित्सा विज्ञान के सामने बड़ी चुनौती नहीं रहेगी कि वह इतनी अधिक उम्र के लोगों की सेहत की दिक्कतों के बारे में अंदाज लगाए और उनका इलाज ढूंढ कर रखे बल्कि यह दुनिया के लिए बड़ी सामाजिक और आर्थिक चुनौती भी रहेगी।

सामाजिक चुनौती से हिसाब से संपन्न तबकों के लोग जिनके अस्सी-सौ बरस होकर गुजर जाने का अब तक सिलसिला चल रहा है, वे अगर अपनी अगली पीढ़ी की छाती पर सवा सौ बरस की उम्र तक मूंग दलते बैठे रहेंगे, तो उनकी औलाद कब काम संभाल सकेगी, और कब परिवार और कारोबार की मुखिया हो सकेगी? फिर यह भी रहेगा कि सामाजिक लीडरशिप, राजनीतिक लीडरशिप, इन सब में लोगों का रहना और 20-25 वर्ष बढ़ जाएगा, और फिर नई सोच के ऊपर छाए हुए ऐसे वटवृक्ष किसी को पनपने का मौका भी नहीं देंगे। आज जिस तरह भारतीय जनता पार्टी में 75 बरस की उम्र के बाद लोगों को मार्गदर्शक मंडल में भेजने की एक घोषित या अघोषित नीति चली आ रही है, वह मान लें कि सौ बरस की उम्र तक बढ़ा दी जाएगी, तो नई लीडरशिप को तो आने का मौका ही नहीं मिलेगा। और ऐसा ही हाल उन पार्टियों में भी होगा जिन पार्टियों में एक कुनबे की लीडरशिप चलती है, वहां की औसत लीडरशिप और 25-30 बरस लंबी खिंच जाएगी।

फिर यह भी होगा कि सरकारी नौकरी से जो 58 या 60 बरस में रिटायर होते हैं, उनके सामने अगले 58 या 60 बरस और बचे रहेंगे, और पता नहीं वे उसे कैसे गुजारेंगे। उनकी यह भी उम्मीद हो सकती है कि रिटायरमेंट की उम्र को बढ़ाकर 70 वर्ष या 75 वर्ष कर दिया जाए, और उस हालत में आज की बेरोजगार भीड़ कहां जाएगी? परिवार के भीतर आज तो दादा-दादी ही नजर आते हैं, लेकिन उनके भी ऊपर एक पीढ़ी और बढ़ जाएगी, तो फिर परिवार के अंदरूनी सांस्कृतिक टकराव का क्या होगा? चार या पांच पीढिय़ों के बीच पोशाक का फर्क, खानपान का फर्क, रहन-सहन का फर्क, क्या सचमुच ही परिवार को खुशहाल रख सकेगा या फिर टकराव बढ़ते चलेगा? या फिर ऐसे में नई पीढ़ी यह चाहेगी कि पुरानी पीढ़ी के लिए वृद्धाश्रम बढ़ते चलें और वृद्धाश्रम में लोगों का रहना 25-50 बरस तक का होने लगेगा!

दरअसल चिकित्सा विज्ञान की अपनी सोच रहती है जो वैज्ञानिक कामयाबी तक सीमित रहती है। उसे इस बात से लेना-देना नहीं रहता कि इससे समाज पर क्या फर्क पड़ेगा, मानवीय रिश्तों पर क्या फर्क पड़ेगा। एक अंधाधुंध सीमा तक जीने वाली बूढ़ी आबादी, हो सकता है कि चिकित्सा सुविधाओं के ढांचे पर इतना बड़ा बोझ बन जाए कि दूसरे जरूरी और गरीब मरीजों को इलाज मिलना मुश्किल हो जाए। लेकिन एक दूसरी संभावना भी हो सकती है कि इतना लंबा जीने वाली एक आबादी दुनिया का बड़ा ग्राहक भी बन सकती है जिसे इलाज की जरूरत हो, सहायक कर्मचारियों की जरूरत हो, जिसके लिए एक पूरे बुजुर्ग-केंद्रित कारोबार का ढांचा खड़ा करने की जरूरत हो. इसलिए यह सोचना भी कुछ तंग नजरिए की बात होगी कि यह दुनिया के लिए अनिवार्य रूप से एक समस्या ही रहेगी। हो सकता है कि संपन्नता के साथ अगर आबादी के एक हिस्से की उम्र ऐसी बढ़ती है, तो हो सकता है उससे बहुत लोगों को रोजगार और बहुत लोगों को कारोबार भी मिले।

लेकिन खुद चिकित्सा विज्ञान के नजरिए से देखें तो उम्र के लंबे होने का मतलब उस लंबी उम्र के सेहतमंद होने जैसा नहीं है। हो सकता है कि इंसानी जिस्म के बहुत से ऐसे हिस्से रहें जिन्हें जवान रखने का कोई तरीका ढूंढा न जा सके। वैज्ञानिक एक जेलीफिश की मिसाल को बड़ा महत्वपूर्ण मान रहे हैं जिसमें वह जब चाहे अपने पुराने हो रहे अंगों को छोडक़र अपने पूरे बदन को अपने कम उम्र की हालत में ले जा सकती है.  इसे इस तरह समझा जाए, कि 60 बरस के इंसान जब चाहें वे फिर से 16 बरस के हो जाएं। जेलीफिश में उसकी एक प्रजाति ऐसी क्षमता रखती है, और ऐसा करती भी रहती है। अब वैज्ञानिकों को उसकी इस खूबी से बड़ी उम्मीदें हैं, और उन्हें लगता है कि जीव विज्ञान के हिसाब से ऐसा होना अगर उसमें मुमकिन है, तो हो सकता है कि कुछ हद तक दूसरे जीवों में भी यह हो सके। अब देखना होगा कि इंसानों के लिए क्या क्या खोजा जा सकता है।

हम जेनेटिक्स की ऐसी खोज की किसी भी किस्म से आलोचना करना नहीं चाहते क्योंकि यह हो सकता है कि जींस में फेरबदल करने की एक वैज्ञानिक क्षमता से आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा कई किस्म की ऐसी बीमारियों से छुटकारा पा जाए, जिनके साथ पूरी जिंदगी गुजारना उसकी मजबूरी रहती है। अस्थमा हो या डायबिटीज, या फिर कैंसर हो, ऐसी बहुत सी बीमारियां रहती हैं जिनसे पूरी जिंदगी लदी हुई रहती है, और अगर इनसे छुटकारा मिल सके तो हो सकता है कि अस्पतालों के मौजूदा ढांचे पर से बोझ कम भी हो जाए। फिलहाल अमर बनने की चाह रखने वाले लोग ऐसी किसी भी खोजे से बड़ी उम्मीद पाल लेते हैं जो कि बहुत गलत भी नहीं है। लेकिन बढ़ी हुई उम्र के साथ-साथ दुनिया का नक्शा कैसा होगा, समाज और अर्थव्यवस्था पर, परिवार के ढांचे पर इसका क्या फर्क पड़ेगा, इस बारे में भी लोगों को सोचना चाहिए। यह पूरा सिलसिला रातों-रात में हो जाने वाला नहीं है, ऐसी कोई कामयाबी मिलने पर भी उसका असर दिखने में दो-चार पीढिय़ां निकल सकती हैं, लेकिन जब भविष्य की कल्पना करके किसी योजना को बनाया जाए तो अगले सौ-पचास बरस की बात भी सोच लेना बेहतर होता है।
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