संपादकीय
अभी दो दिन पहले कनाडा के कैथोलिक बिशप ने एक बयान जारी करके देश के आदिवासी मूल निवासियों से उन जुल्मों के लिए माफी मांगी है जिन्हें चर्च के चलाए जा रहे आश्रम स्कूलों में एक सदी से अधिक समय तक किया गया था। यह बयान कनाडा में दो ईसाई स्कूलों के अहातों में हजार से अधिक बच्चों की कब्र मिलने के बाद चल रहे हंगामे को लेकर सामने आया है। हालांकि बिशप ने सीधे-सीधे इन कब्रों का जिक्र नहीं किया है, लेकिन कुछ महीने पहले कनाडा की सरकार ने चर्च से इन कब्रों को मिलने के बाद माफी मांगने की अपील की थी। ऐसे रिहायशी स्कूलों को कनाडा में एक जांच आयोग ने कुछ बरस पहले एक सांस्कृतिक जनसंहार कहा था। आने वाले दिसंबर के महीने में पोप फ्रांसिस कनाडा के आदिवासियों के प्रतिनिधिमंडल से मिलने वाले हैं।
लोगों को याद होगा कि पहले ऑस्ट्रेलिया में भी मूल निवासियों को उनके गांवों से, उनके परिवार और संस्कृति से छीनकर शहरों में लाकर, चर्च की स्कूलों में पढ़ाकर, और शहरी गोरे परिवारों के साथ रखकर, उन्हें सांस्कृतिक रूप से तथाकथित आधुनिक बनाने का काम होते आया है। इसके लिए आस्ट्रेलिया ने अपनी संसद के बीच आदिवासी समुदाय को आमंत्रित करके, तमाम सांसदों ने खड़े होकर उनसे माफी मांगी थी। हम इस बात को हिंदुस्तान से भी जोडक़र देख चुके हैं, लिख चुके हैं कि किस तरह यहां कुछ हिंदू संगठन उत्तर पूर्वी राज्यों से आदिवासी परिवारों की लड़कियों को लाकर, उन्हें हिंदी भाषी इलाकों में शबरी आश्रम बनाकर वहां रखते आए हैं, जिसमें वे अपनी आदिवासी संस्कृति से कट जाती हैं, अपनी भाषा से, अपने परिवार, अपनी जमीन से कट जाती हैं। किसी दिन हिंदुस्तान भी सभ्य देश बनेगा तो यहाँ की संसद भी इन आदिवासी बच्चियों के समुदायों से माफी मांगेगा।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कोरिया की लाखों महिलाओं को सेक्स-गुलाम बनाकर रखने वाले जापान ने तय किया था कि अपने इस ऐतिहासिक अपराध के लिए वह कोरिया से माफी मांगेगा। युद्ध के दौरान सैनिकों के सुख के लिए न सिर्फ जापान में, बल्कि दुनिया के कुछ और देशों ने भी ऐसे जुर्म सरकारी फैसलों के तहत किए हुए हैं। अब अगर ऐसी माफी मांगी जाती है, तो उससे इतिहास में दर्ज एक जख्म का दर्द कुछ हल्का हो सकता है। हिटलर ने जो यहूदियों के साथ किया, अमरीका ने जो जापान पर बम गिराकर किया, वियतनाम में पूरी एक पीढ़ी को खत्म करके किया, और अफगानिस्तान से लेकर इराक तक जो किया, अमरीका के माफीनामे की लिस्ट दुनिया की सबसे लंबी हो सकती है। लेकिन बात सिर्फ एक देश की दूसरे देश पर हिंसा की नहीं है। देश के भीतर भी ऐतिहासिक जुर्म होते हैं, और उनके लिए लोगों को, पार्टियों को, संगठनों को, जातियों और धर्मों को माफी मांगने की दरियादिली दिखानी चाहिए। ऑस्ट्रेलिया की एक मिसाल सामने है जहां पर शहरी गोरे ईसाइयों ने वहां के जंगलों के मूल निवासियों के बच्चों को सभ्य और शिक्षित बनाने के नाम पर उनसे छीनकर शहरों में लाकर रखा था, और अभी कुछ बरस पहले आदिवासियों के प्रतिनिधियों को संसद में बुलाकर पूरी संसद में उनसे ऐसी चुराई-हुई-पीढ़ी के लिए माफी मांगी।
अब हम भारत के भीतर अगर देखें, तो गांधी की हत्या के लिए कुछ संगठनों को माफी मांगनी चाहिए, जिनके लोग जाहिर तौर पर हत्यारे थे, और हत्या के समर्थक थे। इसके बाद आपातकाल के लिए कांग्रेस को खुलकर माफी मांगनी चाहिए, 1984 के दंगों के लिए फिर कांग्रेस को माफी मांगनी चाहिए, इंदिरा गांधी की हत्या के लिए खालिस्तान-समर्थक संगठनों को बढ़ावा देने वाले लोगों को माफी मांगनी चाहिए, बाबरी मस्जिद गिराने के लिए भाजपा को और संघ परिवार के बाकी संगठनों को माफी मांगनी चाहिए, गोधरा में ट्रेन जलाने के लिए मुस्लिम समाज को माफी मांगनी चाहिए, और उसके बाद के दंगों के लिए नरेन्द्र मोदी और विश्व हिन्दू परिषद जैसे लोगों और संगठनों को माफी मांगनी चाहिए। इस देश के दलितों से सवर्ण जातियों को माफी मांगनी चाहिए कि हजारों बरस से वे किस तरह एक जाति व्यवस्था को लादकर हिंसा करते चले आ रहे हैं। और मुस्लिम समाज के मर्दों को औरतों से माफी मांगनी चाहिए कि किस तरह एक शाहबानो के हक छीनने का काम उन्होंने किया। इसी तरह शाहबानो को कुचलने के लिए कांग्रेस पार्टी को भी माफी मांगनी चाहिए जिसने कि संसद में कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटा।
दरअसल सभ्य लोग ही माफी मांग सकते हैं। माफी मंागना अपनी बेइज्जती नहीं होती है, बल्कि अपने अपराधबोध से उबरकर, दूसरों के जख्मों पर मरहम रखने का काम होता है। दुनिया के कई धर्मों में क्षमायाचना करने, या जुर्म करने वालों को माफ करने की सोच होती है, लेकिन ऐसे धर्मों को मानने वाले लोग भी रीति-रिवाज तक तो इसमें भरोसा रखते हैं, असल जिंदगी में इससे परे रहते हैं। इसमें आज की हमारी यह चर्चा भी जुड़ सकती है क्योंकि बीती जिंदगी की गलतियों और गलत कामों से अगर उबरना है, एक बेहतर इंसान बनना है, तो उन गलत कामों को मानकर, उनके लिए माफी मांगे बिना दूसरा कोई रास्ता नहीं है। आने वाला वक़्त छत्तीसगढ़ के नक्सलग्रस्त इलाकों में दशकों से चली आ रही पुलिस ज्यादती के लिए भी माफी मांगने का रहेगा। देखेंगे कि इस राज्य की विधानसभा के भीतर आदिवासियों से माफी मांगने की नैतिक हिम्मत राजनीतिक दलों में जुट पाती है या नहीं।
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