विचार / लेख
-चैतन्य नागर
इतिहासकार गोपाल कृष्ण गाँधी ने महात्मा गाँधी की शव यात्रा के बारे में लिखा है कि यह एक विडम्बना ही थी कि अहिंसा के पुजारी गाँधीजी के शव को तोप ढोने वाले वाहन में रखा गया था। गाँधीजी के सचिव प्यारेलाल ने लिखा है कि गाँधीजी अपने शव को रसायन में लपेटकर सुरक्षित रखने के विरोधी थे और उन्होंने सख्त हिदायत दी थी कि जहाँ उनकी मृत्यु हो, वहीं उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाना चाहिए। पर प्यारेलाल के दस्तावेजों में यह उल्लेख भी मिलता है कि उनके दाह संस्कार में ‘पंद्रह मन चन्दन की लकडिय़ाँ, चार मन घी, दो मन धूप, एक मन नारियल के छिलके और पंद्रह सेर कपूर का उपयोग हुआ’। जो इंसान एक फक़ीर की तरह रहा, और अपना जीवन बस थोड़े से सामान के साथ बिताया, उसके दाह संस्कार में इतना कुछ खर्च किया गया! यदि गाँधी इस बारे में पूरी स्पष्टता से निर्देश देते तो शायद यह सब थोड़े संयम के साथ होता, जैसा वे शायद खुद भी चाहते। इस मामले में दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति बड़े स्पष्ट थे।
कृष्णमूर्ति से उनके निकट सहयोगियों ने पूछा था कि उनके शव के साथ क्या किया जाना चाहिए। उन्होंने बड़े विस्तार से बताया था कि शव को स्नान करवाने के बाद एक साफ कपड़े में लपेटा जाए, जो महंगा न हो और फिर जितनी जल्दी हो सके, उसका दाह संस्कार कर दिया जाए। शव को कम से कम लोग देखें, कोई कर्मकांड न हो। अस्थियों का क्या किया जाना चाहिए, इस सवाल पर उन्होंने कहा कि आप जो चाहे करें बस उसके ऊपर कोई स्मारक, मंदिर वगैरह न बनाया जाए।
सुकरात से भी उनके मित्रों ने पूछा था उनके शव के साथ क्या किया जाना चाहिए। सुकरात ने कहा- ‘पहले मुझे पकड़ तो लेना, और सुनिश्चित कर लेना कि जिसे पकड़ा है वह मैं ही हूँ; फिर जो चाहे कर लेना!’ एंड्रू रोबिनसन ने सत्यजित रे की जीवनी ‘द इनर ऑय’ में एक दिलचस्प बात लिखी है। कविगुरु रविन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु के बाद सत्यजित रे टैगोर के घर पहुँच गए थे और वहां नन्दलाल बोस को सफेद फूलों से गुरुदेव के शव को सजाते हुए देखा। यहाँ तक तो ठीक था, पर जब शवयात्रा शुरू हुई, तो जिसके लिए मुमकिन हुआ उन लोगों ने कविगुरु की दाढ़ी का कम से कम एक बाल नोचने की कोशिश की, अपनी स्मृति के लिए!