संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : राज्यों में कांग्रेस को छोड़ें, पहले पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर ही सम्हालने की जरूरत
30-Sep-2021 5:42 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  राज्यों में कांग्रेस को छोड़ें, पहले पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर ही सम्हालने की जरूरत

कांग्रेस पार्टी ने हो सकता है कि अपने इतिहास में इससे अधिक चुनौतियों वाले दिन देखे हों जब उसे इमरजेंसी लगानी पड़ी, जब वह इमरजेंसी के बाद हार गई। लेकिन इन मौकों पर इंदिरा गांधी मौजूद थीं। आज कांग्रेस अपने सबसे बुरे दिनों को देख रही है, और लोग यह देख रहे हैं कि कांग्रेस को अभी और क्या-क्या देखना बाकी है। इस बात की चर्चा पंजाब को लेकर करनी पड़ रही है जहां कांग्रेस ने हटाने लायक मुख्यमंत्री को हटाने में बरसों लगा दिए, और अध्यक्ष न बनाने लायक नवजोत सिंह सिद्धू को पल भर में अध्यक्ष बना दिया, जो कि कुछ महीनों में ही उस कुर्सी को लात मारकर पूरी कांग्रेस पार्टी के लिए एक चुनौती बनकर खड़ा हो गया है। इस बीच राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस से जो 23 असंतुष्ट नेता सवाल लेकर खड़े हुए हैं, उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह सवाल किया है कि आज जब पार्टी के पास कोई अध्यक्ष नहीं है, तो इन सब फैसलों को कर कौन रहे हैं? बात सही भी है सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष हैं, लेकिन तमाम फैसले लेते राहुल गांधी दिख रहे हैं जो कि पार्टी के अध्यक्ष नहीं रह गए हैं, और जिन्होंने पार्टी का अध्यक्ष न बनने की खुली मुनादी की हुई है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि पार्टी में अधिकार किसके पास हैं, और जवाबदेही किस पर है? अभी कुछ दिन पहले ही हमने इसी मुद्दे पर कुछ बातों को लिखा था लेकिन अब पंजाब की ताजा घटनाओं को देखते हुए और असंतुष्ट नेताओं के ताजा बयान देखते हुए यह लगता है कि कांग्रेस की बची-खुची सरकारों के बजाय कांग्रेस संगठन के बारे में बात करना चाहिए, कांग्रेस के उस तथाकथित हाईकमान के बारे में बात करना चाहिए जो कि दिखता नहीं है, लेकिन एक अदृश्य ताकत की तरह पार्टी पर अपनी फौलादी जकड़ बनाए हुए है।

बहुत सारे राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि राहुल गांधी और सोनिया गांधी भी वक्त रहते कोई फैसले नहीं ले पा रहे हैं और जब पानी सिर से गुजर चुका रहता है तब वे पंजाब जैसे फैसले लेते हैं, जिनमें चुनाव के कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री को बदल रहे हैं, और उसके कुछ महीने पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को बदल रहे हैं और अब वह अध्यक्ष भी पार्टी की कुर्सी पर नहीं रहा। विश्लेषकों का यह भी मानना है कि नया मुख्यमंत्री तय करते हुए कांग्रेस ने किसी गैरसिक्ख को मुख्यमंत्री बनाना तय किया जिससे सिखों के बीच कुछ नाराजगी होना जायज है। इसके बाद उन्होंने एक दलित को मुख्यमंत्री बनाया तो गैर दलितों के बीच नाराजगी जायज है। कांग्रेस की एक नेता अम्बिका सोनी आग में घी डालते हुए यह बताती हैं कि उन्हें सीएम बनने कहा गया था, लेकिन वे तो नहीं बनेंगी, किसी सिख को ही सीएम बनाना चाहिए। कांग्रेस के पंजाब प्रभारी हरीश रावत एक दलित के सीएम घोषित हो जाने के बाद कहते हैं कि अगला चुनाव सिद्धू के चेहरे पर लड़ा जायेगा। एक दलित का सम्मान कुछ घंटे भी नहीं रहने दिया कांग्रेस ने। चुनाव में अधिक से अधिक तबकों के अधिक से अधिक वोटों की जरूरत रहती है तो कांग्रेस पार्टी, एक-एक करके हर तबके तो नाराज कर रही है, चुकी है।  कुछ बदनाम अफसरों और मंत्रियों को पंजाब की सरकार में स्थापित कर रही है, कर चुकी है, और अपने करिश्मेबाज होने का दावा करने वाले नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर और गवा कर बैठी है। नतीजा यह है कि आज किसी को यह समझ नहीं पड़ रहा है कि चुनाव तो बाद में लड़ा जाएगा आज कांग्रेस पार्टी के भीतर कौन किससे लड़ेंगे ? यह उस वक्त हो रहा है जब कैप्टन अमरिंदर सिंह दिल्ली में घूम घूम कर अमित शाह से मिल रहे हैं, और अजीत दोवाल से मिल रहे हैं।

कांग्रेस को प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों या दूसरे नेताओं को सुधारने के बजाय अपने-आपको सुधारने के बारे में पहले सोचना चाहिए। इस किस्म की अदृश्य, अनौपचारिक, और सर्वशक्तिमान हाईकमान पार्टी में किसके भीतर भरोसा पैदा कर सकती है? पंजाब के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के वक्त कैप्टन अमरिंदर सिंह ने औपचारिक रूप से यह कहा कि उनकी राहुल गांधी से 2 बरस से मुलाकात नहीं हुई है। यह किसी पार्टी की किस तरह की नौबत है कि उसके बचे-खुचे 3-4 मुख्यमंत्रियों में से किसी एक से, पार्टी के सर्वेसर्वा राहुल गांधी की 2 बरस तक मुलाकात ही ना हो? यह पूरा सिलसिला बड़ा ही अजीब सा है, बहुत अटपटा है और इसके चलते हुए कोई राजनीतिक दल किसी भविष्य की उम्मीद नहीं कर सकता। यह इंदिरा गांधी के करिश्मे वाले दौर की कांग्रेस पार्टी नहीं है। यह तो आज मोदी के करिश्मे वाले वाली भाजपा के मुकाबले हाशिये के भी एक किनारे पर पहुंच चुकी कांग्रेस है, जिस पर रात-दिन मेहनत करने की जरूरत है। कांग्रेस पार्टी पर किसी जागीरदार की तरह काबिज सोनिया गांधी का परिवार आज अपने ही संगठन के लिए एक बहुत ही कमजोर मिसाल बन चुके हैं कि ऐसी लीडरशिप से कोई पार्टी कैसे चल सकती है। जिन दो दर्जन बड़े नेताओं ने हाईकमान के ऐसे हाल पर सवाल उठाए हैं, उन्हें पार्टी का गद्दार करार देना, उन्हें भाजपा का दलाल बतलाना, यह सब कुछ हो चुका है। लेकिन इन दो दर्जन बड़े नेताओं में से कोई एक भी तो बीजेपी में नहीं गया! तो इसका मतलब है कि कांग्रेस में चापलूस जिस अंदाज में अपने नेता को खुश करने के लिए, सवाल उठाने वालों पर टूट पड़े थे, उनके सारे हमले नाजायज थे।

वक्त आ गया है कि कांग्रेस पार्टी बिना देर किए चुनाव करवाए और जैसा कि राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि इस परिवार से परे कांग्रेस अपना अध्यक्ष देखे। यह मानकर चलना कि इस परिवार के बिना कांग्रेस टूट जाएगी, यह मानकर चलना कि सिर्फ यही परिवार कांग्रेस को बांधकर रख सकता है, यह इस परिवार के साथ भी पार्टी के चापलूस नेताओं की नाइंसाफी है। इस परिवार को भी सांस लेने का मौका देना चाहिए, और पार्टी को कोई नया नेता तय करके आगे बढऩा चाहिए। पार्टी के चुनाव करवाने का रास्ता निकालना चाहिए क्योंकि अब तो कोरोना भी खत्म हो चुका है, और तकरीबन तमाम राज्यों में सारी राजनीतिक गतिविधियां भी शुरू हो चुकी हैं। ऐसे में चुनाव न करवाने का केवल एक ही मतलब निकाला जा सकता है कि पार्टी की लीडरशिप को छोडऩे की नीयत नहीं है। ऐसा तस्वीर को मिटाने के लिए चुनाव से कम किसी में काम नहीं चलेगा, और 2-3 राज्य कांग्रेस के पास बचे हैं, उनके और डूब जाने के पहले अगर यह चुनाव हो जाए, तो हो सकता है किसी काम भी आए।
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