संपादकीय
वैसे तो कांग्रेस पार्टी कुछ अच्छी और कुछ बुरी बातों के लिए लगातार खबरों में बनी हुई है, और पंजाब से लेकर राजस्थान, छत्तीसगढ़ तक पार्टी के भीतर अलग-अलग किस्म के मुद्दों को लेकर बेचैनी भी बनी हुई है, लेकिन उसकी खबरें दिल्ली से बन रही हैं। राज्यों को लेकर फैसले भी क्योंकि परंपरागत रूप से इस पार्टी में, और सच तो यह है कि बाकी तमाम पार्टियों में भी, दिल्ली से होते हैं, इसलिए राज्यों की खबरें भी दिल्ली से निकल रही हैं. लेकिन कुछ दूसरी दिलचस्प बातें भी हो रही हैं। देश की नौजवान पीढ़ी में एक सबसे चर्चित नौजवान चेहरा, जेएनयू का छात्र नेता रहा हुआ कन्हैया कुमार, अपने सीपीआई से राजनीतिक संबंधों का एक लंबा दौर छोडक़र कांग्रेस में शामिल हुआ। उसी के साथ जिग्नेश मेवाणी नाम का गुजरात का एक दलित राजनीतिक कार्यकर्ता, और मौजूदा निर्दलीय विधायक भी कांग्रेस में आया। जिग्नेश मेवाणी वकील और अखबारनवीस भी रह चुका है और बाद में एक दलित कार्यकर्ता की हैसियत से निर्दलीय विधायक बना है। इन दोनों के कांग्रेस में आने की चर्चा कई दिनों से चल रही थी, और राहुल गांधी से मिलकर शायद एक से अधिक मुलाकातें करके ये कांग्रेस में आए हैं. इनके पहले गुजरात में एक और नौजवान सामाजिक कार्यकर्ता हार्दिक पटेल भी कांग्रेस में लाया गया था और उसे हैरान कर देने वाले तरीके से गुजरात प्रदेश कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाया गया। हार्दिक ने पिछले कुछ वर्षों में गुजरात में लगातार सामाजिक और आरक्षण आंदोलनों में बड़ी अगुवाई की थी, और वहीं से हार्दिक का नाम लगातार खबरों में आया, बने रहा, और इतनी कम उम्र का कोई नौजवान इतने बड़े आंदोलन का अगुआ बने ऐसा कम ही होता है। तो हार्दिक पटेल गुजरात के पाटीदार-ओबीसी समुदाय का एक बड़ा असरदार चेहरा है और जिग्नेश मेवानी गुजरात का एक दलित चेहरा है, इन दोनों का कांग्रेस से कोई पुराना इतिहास नहीं रहा बल्कि इन दोनों का कोई चुनावी राजनीतिक इतिहास नहीं रहा है। पाटीदार आंदोलन से हार्दिक पटेल खबरों में आए क्योंकि वे अपने समाज को ओबीसी आरक्षण में शामिल करवाना चाहते थे। और गुजरात के दलितों की तकलीफ तो बहुत बुरी तरह खबरों में बनी हुई रहती ही हैं।
अब यह सिलसिला थोड़ा सा अटपटा लगता है कि कांग्रेस में एक तरफ तो अपने जमे-जमाए पुराने नेताओं से बातचीत का सिलसिला भी टूटते जा रहा है। कांग्रेस के मौजूदा तौर तरीकों से बेचैन, लेकिन कांग्रेस में ही अब तक बने हुए, करीब दो दर्जन बड़े नेताओं से ऐसा लगता है कि राहुल गांधी, या कांग्रेस हाईकमान, या सोनिया परिवार ने सीधे बातचीत बंद ही कर रखी है। और दूसरी तरफ प्रशांत किशोर नाम के एक चुनावी राजनीतिक रणनीतिकार से जिस तरह कांग्रेस सलाह-मशविरा कर रही है, उसे ऐसा लगता है कि कांग्रेस अपने भीतर की जड़ हो चुकी, फॉसिल बन चुकी, भूतपूर्व प्रतिभाओं को छोडक़र, कुछ नई नौजवान प्रतिभाओं की तरफ जा रही है। यह भी हो सकता है कि कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी को कांग्रेस में लाने के पीछे प्रशांत किशोर जैसे किसी गैरकांग्रेसी की राय रही हो। जो भी हो कांग्रेस को आज एक नए खून की जरूरत है, और बहुत बड़ी जरूरत है. जरूरत तो उसे कांग्रेस की लीडरशिप के स्तर पर भी है कि वहां पर भी कुछ नया होना चाहिए, लेकिन जब तक वह नहीं हो सकता, जब तक वह नहीं होता है, तब तक कम से कम कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी जैसे लोग पार्टी में लाए जाएं, तो इसे कारोबारी दुनिया में एक नए कामयाब स्टार्टअप को किसी पुरानी बड़ी कंपनी द्वारा अधिग्रहित कर लेने जैसा मानना चाहिए। कारोबार से भी राजनीति कुछ सीख सकती है, और उसमें यह है कि अपने पुराने लोग अगर एसेट के बजाय लायबिलिटी अधिक हो चुके हैं, तो बाहर से कम से कम कुछ नई नई प्रतिभाओं को लाकर पार्टी की एसेट बढ़ाई जाए।
यह बात हम कन्हैया कुमार के आज कांग्रेस में लाए जाने को लेकर नहीं कह रहे हैं, जिस दिन कन्हैया कुमार जेल से छूटकर जेएनयू पहुंचे थे और वहां पर करीब पौन घंटे का उनका भाषण टीवी चैनलों पर बिना किसी काट-छांट के पूरा दिखाया गया था, उस दिन से ही हम यह मानकर चल रहे हैं कि देश को ऐसे नौजवानों की जरूरत है। हमारे नियमित पाठकों ने इसी जगह पर उसी दौर में कई बरस पहले हमारा लिखा हुआ पढ़ा होगा कि देश की संसद में अगर किसी एक व्यक्ति को लाया जाना चाहिए तो वह कन्हैया कुमार है। सार्वजनिक जीवन में और चुनावी राजनीति में निजी ईमानदारी के साथ जब मजबूत विचारधारा को ओजस्वी तरीके से बोलने का हुनर किसी में होता है, तो उसका बड़ा असर भी होता है. यह बात फुटपाथ पर चूरन या तेल बेचने वाले के बोलने के हुनर से अलग रहती है। और जनसंघ के जमाने से भाजपा के इतिहास के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेई अपनी साफगोई और बोलने की अपनी खूबी के चलते हुए ही इतने लोकप्रिय रहते आए थे। इसलिए कन्हैया कुमार का कांग्रेस में आना और खासकर ऐसे वक्त आना जब उसका वर्तमान ही अंधेरे में दिख रहा है, और उसका भविष्य एक लंबी अंधेरी सुरंग के आखिर में टिमटिमाती रोशनी जैसा दिख रहा है, तब यह कांग्रेस के लिए एक हासिल है।
अब इसे एक दूसरे पहलू से भी देखने की जरूरत है। जिन चार नामों की हमने यहां चर्चा की है, हार्दिक पटेल, कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवाणी, और प्रशांत किशोर, इन सबके साथ एक बात एक सरीखी है कि ये कांग्रेस की राजनीति में अगर रहते हैं, तो भी ये राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी कोई पकड़ नहीं रखते कि ये राहुल गांधी या प्रियंका गांधी के लिए कई बरस बाद जाकर भी किसी तरह की कोई चुनौती बन सकें। जबकि कांग्रेस पार्टी के भीतर के जिन दर्जनों नेताओं को धीरे-धीरे अलग-अलग वजहों से किनारे होना पड़ा है, उनमें से कई ऐसे हो सकते थे जिन्हें कांग्रेस की मौजूदा लीडरशिप के लिए एक किस्म की चुनौती माना जा सकता था। अभी भी यह संभावना या आशंका खत्म नहीं हुई है कि जब कभी कांग्रेस के संगठन चुनाव होंगे तो 23 बेचैन नेताओं में से कोई पार्टी अध्यक्ष का चुनाव भी लडऩे के लिए तैयार हो जाए. इसलिए राहुल गांधी या उनके परिवार ने देश के कुछ चर्चित और दमखम वाले नौजवानों को पार्टी में लाकर पार्टी को समृद्धि तो किया है, लेकिन शायद अपनी हिफाजत का भी पूरा ध्यान रखा है। राजनीति किसी किस्म के त्याग और आध्यात्म का कारोबार नहीं है और इसमें लोग अगर अपने प्रतिद्वंद्वियों को कम करते हैं, कमजोर करते हैं, तो उसमें कोई अटपटी बात नहीं है। ऐसे में कांग्रेस ने अपने बड़े कमजोर राज्यों में, गुजरात और बिहार में इन नौजवानों को पार्टी में लाकर अपनी संभावनाओं को बेहतर बनाने की कोशिश की है, जो कि एक अच्छी बात है।
हो सकता है कि कांग्रेस संगठन के पुराने जमे जमाए मठाधीशों को यह बात अच्छी न लगे, लेकिन वह अधिक काम के रह नहीं गए हैं। वे भाजपा में होते तो घोषित या अघोषित मार्गदर्शक मंडल में भेजे जा चुके रहते। लेकिन कांग्रेस की संस्कृति कुछ अलग है, और इसने अभी एक बरस पहले तक देश के सबसे बुजुर्ग कांग्रेस नेता मोतीलाल वोरा को राहुल और सोनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलते देखा हुआ है। इसलिए बिना रिटायर किए या बिना घर भेजे भी कांग्रेस अपने पुराने बोझ को किनारे करना जानती है, और अब उसने जिन नए होनहार लोगों को पार्टी में लाने का काम किया है, वह उसके लिए एक अच्छी बात है। हम यहां पर किनारे किए गए पुराने लोगों के साथ इन नए लोगों को जोडक़र कोई नतीजा निकालना नहीं चाहते क्योंकि संगठन के भीतर की राजनीति का इतना सरलीकरण करना मुमकिन नहीं है। लेकिन देश में तेजस्वी और होनहार नौजवानों को आगे लाना किसी भी पार्टी के लिए एक अच्छी बात है और कांग्रेस ने इस हफ्ते कुछ हासिल ही किया है। हो सकता है कि इसी संदर्भ में पंजाब में भारी अलोकप्रिय हो चुके बुजुर्ग मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को किनारे करना, और एक दलित, तकरीबन नौजवान को मुख्यमंत्री बनाना भी गिना जा सकता है। देखें आगे-आगे होता है क्या।
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