विचार / लेख
-रमेश अनुपम
बंबई में रहते हुए और फिल्मों में बेहद व्यस्त रहते हुए भी किशोर साहू के सीने में छत्तीसगढ़ धडक़ता रहता था।
राजनांदगांव, खैरागढ़, सक्ती की धूसर स्मृतियां उनके भीतर किसी खुशबू की तरह महकती रहती थी।
राजनांदगांव के राजकुमार दिग्विजय दास (जिन्हें प्यार से वे दिग्वि राजा कहते थे) के साथ उनकी गहरी मित्रता थी। मित्रता ऐसी कि जब दिग्विजय दास को विवाह के लिए दो राजकुमारियों में से किसी एक को पसंद करना था तो उन्होंने पसंद करने की जिम्मेदारी किशोर साहू और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती प्रीति (पांडेय) साहू पर डाल दी।
यह दिलचस्प किस्सा कुछ इस तरह से है। नवंबर 1953 में दिग्विजय दास ने किशोर साहू को पत्र लिखकर सूचित किया कि वे अपनी मां रानी साहिबा ज्योति देवी के साथ लडक़ी देखने के लिए बंबई आ रहे हैं।
बंबई में पहले से ही इंदौर महाराजा अपनी सुपुत्री राजकुमारी और बारिया महाराजा अपनी राजकुमारी बहन के साथ पहुंच चुके थे। दिग्विजय दास को इन्हीं में से एक को अपनी वधू के रूप में चुनना था।
दिग्विजय दास असमंजस की स्थिति में थे। वे तय नहीं कर पा रहे थे कि अपनी भावी रानी के रूप में किसे पसंद करें। रानी साहिबा ज्योति देवी बार-बार अपने राजकुमार बेटे पर अपनी पसंद बताने के लिए दबाव बना रही थीं।
रानी साहिबा का रुझान बारिया महाराजा की बहन संयुक्ता देवी की ओर अधिक था पर दिग्विजय दास किशोर साहू और प्रीति साहू की पसंद के बिना इस पर मुहर लगाने को तैयार नहीं थे।
सो दिग्विजय दास के दबाव के चलते रानी साहिबा, दिग्विजय दास, बारिया महाराजा जयदीप सिंह, उनकी बहन राजकुमारी संयुक्ता देवी सभी मोटरों में बैठकर किशोर साहू के निवास स्थान वाटिका पहुंचे।
वाटिका में किशोर साहू और प्रीति ने सभी मेहमानों की आवभगत की। दोनों ने राजकुमारी संयुक्ता देवी से बातचीत की। दिग्विजय दास से भी उनकी पसंद के बारे में पूछताछ की और संयुक्ता देवी के पक्ष में अपना निर्णय सुना दिया।
इस तरह 11 दिसंबर 1953 को बारिया में धूमधाम से दिग्विजय दास और राजकुमारी संयुक्ता देवी का विवाह संपन्न हुआ।
बारात में किशोर साहू भी सम्मिलित हुए। विवाह में देश भर से राजा महाराजा शामिल हुए। खैरागढ़ के राजा बहादुर वीरेंद्र बहादुर सिंह और सक्ती राजा लीलाधर सिंह भी उपस्थित थे।
सक्ती के जिस राजा के अधीन किशोर साहू के दादा जी दीवान हुआ करते थे, उस परिवार के वारिस राजा लीलाधर सिंह से मिलना उनके लिए किसी रोमांचक अनुभव से कम नहीं था।
27 अप्रैल 1954 को राजनांदगांव में राजकुमार दिग्विजय सिंह का राज्याभिषेक हुआ। दिग्वि का राजतिलक हो और वहां किशोर साहू उपस्थित न हो, यह संभव ही नहीं था। किशोर साहू इस राज्याभिषेक समारोह में अपनी धर्मपत्नी प्रीति के साथ राजनांदगांव आए और इस समारोह में शरीक हुए।
राजतिलक होने के बाद दिग्वि राजा को तिमाही 70,000 हजार रुपए प्रिविपर्स के रूप में मिलने लगे थे। साल भर तो दिग्वि राजा अपनी पत्नी रानी साहिबा संयुक्ता देवी उर्फ टाइनी के साथ राजनांदगांव स्थित लालबाग पैलेस में रहे। पर राजनांदगांव न दिग्वि राजा को रास आ रहा था न महारानी साहिबा संयुक्ता देवी को। इसलिए वे बंबई चले आए। बंबई के महालक्ष्मी स्थित वसुंधरा में एक फ्लैट किराए पर लेकर रहने लगे।
बंबई में राजासाहब रात-दिन शापिंग करते और फिल्में देखते थे। पर इससे भी जब वे उकता गए तो उन्होंने स्वयं को व्यस्त रखने के लिए महेन्द्र एंड महेंद्र कंपनी में अवैतनिक नौकरी ज्वाइन कर ली। रोज कार में बैठकर ऑफिस जाते थे और दिनभर नीली वर्दी पहनकर, हाथ में मोटर सुधारने का औजार लेकर वे यहां-वहां घूमते रहते थे। उनके लिए समय बिताना सबसे कठिन काम था।
कौन जानता था कि एक दिन दिग्वि राजा आत्महत्या जैसी आत्महंता कदम उठाएंगे और मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में वे सबको रोता-बिलखता छोडक़र एक दूसरी दुनिया में चले जायेंगे।
दिग्विजय दास की आत्महत्या यूं तो आज भी रहस्यमय मानी जाती है, पर इस संबंध में किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बोनाई के जंगल में दिग्विजय दास ने एक जंगली हाथी का शिकार किया। गोली उन्होंने हाथी की कनपटी पर मारी थी। वहां के आदिवासियों को यह सब अच्छा नहीं लगा था। वे लोग हाथी को गणेश भगवान का रूप मानते थे। दिग्विजय दास को भी इसका अफसोस होने लगा था कि उसने उस निर्दोष हाथी की हत्या क्यों की। उन्होंने स्वयं इस घटना के बारे में किशोर साहू को जानकारी दी थी और अपने हृदय की वेदना को उनके समक्ष प्रकट किया था।
दो दिन बाद दिग्विजय दास राजनांदगांव चले गए। तीसरे दिन वहां से खबर आई कि दिग्वि राजा ने अपनी कनपटी पर पिस्तौल तानकर आत्महत्या कर ली।
यह आत्महत्या ठीक उसी तरह की थी जिस तरह उन्होंने हाथी की कनपटी पर बंदूक चलाकर उसे मार डाला था। क्या यह केवल एक संयोग मात्र था?
22 जनवरी 1958 को किशोर साहू के अभिन्न मित्र और राजनांदगांव के युवा राजा दिग्विजय दास सदा-सदा के लिए अनंत में विलीन हो गए। छोड़ गए ढेर सारे अनुउत्तरित प्रश्न, जो आज भी उत्तर की प्रत्याशा में हैं।
किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
‘राजनांदगांव का वह राजवंश जो वास्तव में गोसाई वंश था और जिस वंश पर श्राप था कि किसी राजा (महंत) के संतान नहीं होगी- संपूर्णत : नष्ट हो गया। ’
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