संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन के अहिंसक और कम नुकसानदेह तरीकों को रोकना ठीक नहीं
10-Oct-2021 5:01 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय  :  लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन के अहिंसक और कम नुकसानदेह तरीकों को रोकना ठीक नहीं

हिंदुस्तान के शहरों में आए दिन विपक्षी पार्टियां सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री या किसी दूसरे मंत्री के पुतले जलाते दिखती हैं। ऐसे मौके पर पुलिस का यह जिम्मा हो जाता है कि सत्ता का पुतला न जलने दे। कई बार तो ऐसा होता है कि किसी थानेदार के इलाके में मंत्री या मुख्यमंत्री का पुतला जल गया तो नाराज होकर उसका तबादला कर दिया जाता है। इसलिए पहले तो पुतले को लेकर पुलिस छीना-झपटी करती है, उसके बाद भी अगर आंदोलन करने वाले लोग पुतले को बचा ले जाते हैं, या कहीं से दूसरा पुतला ले आते हैं, और जला देते हैं, तो पुलिस जवान और अफसर अपने जूतों से उस आग को बुझाने की कोशिश करते हैं कि सत्ता कहीं जल ना जाए। यह देखना दिलचस्प रहता है कि पुतला जलाने वाले लोग तो हाथों में, या सिर पर लादकर पुतला लाते हैं, लेकिन आग बुझाने के लिए पुलिस जूते मार-मारकर सत्ता की आग बुझाती है। पता नहीं इन दोनों में से कौन सी बात अधिक अपमानजनक है, प्रतीक के रूप में पुतले को जलाने की, या ऐसे जलते हुए पुतले को जूते मार-मारकर आग बुझाने की। लेकिन यह पुलिस का जिम्मा रहता है कि सत्ता का पुतला जल न पाए और इसके लिए जरूरत पड़ती है तो पुलिस आसपास की दुकानों से पानी की बोतल खरीद कर लाती है, और उनसे आग बुझाती है।

यह सिलसिला बड़ा बेहूदा है, और जिस पुलिस के मत्थे सैकड़ों-हजारों मामले बाकी रहते हैं, उसे इस तरह पुतले बचाने के लिए लगा दिया जाता है मानो पुतले कोई जादू-टोने वाले हैं, और उनसे उस नेता का सचमुच ही कोई बड़ा नुकसान होने वाला हो जिसका नाम बतलाकर पुतला जलाया जा रहा है। यह पूरा सिलसिला पुतले जलाने की हद तक तो लोकतांत्रिक है, लेकिन उसे जलने से रोकने के लिए पुलिस झोंक देने के मामले में अलोकतांत्रिक है। बिना किसी हिंसा के अगर किसी का पुतला जलाकर लोगों को तसल्ली मिलती है, तो वह सबसे कम नुकसानदेह विरोध प्रदर्शन है, और इसे होने देना चाहिए। बल्कि होना तो यह चाहिए कि हर शहर में जहां पर धरना-प्रदर्शन या आंदोलन के लिए जगह तय की गई है, वहां पर भट्टी वाली ईंटों से एक चबूतरा बना देना चाहिए, जहां पर पुतले जलाए जा सकें, और वे प्रदर्शनकारी चाहें तो वे अगले दिन वहां से पुतले का अस्थि संचय करके उसका विसर्जन भी कर सकें। लोकतंत्र में तो धरनास्थल पर ऐसे फंदे का इंतजाम भी कर देना चाहिए जिसमें लोगों को चाहिए तो किसी का पुतला बनाकर उसे फांसी दे सके। लोगों के मन की भड़ास और उनकी नाराजगी निकलने का कोई जरिया देना चाहिए। ऐसे तरीकों से अगर लोगों की नाराजगी निकल जाएगी तो हो सकता है कि वे दूसरों पर किसी हिंसा से बचें।

जापान में एक बड़ी दिलचस्प परंपरा है। वहां शहरी जिंदगी में इतनी कुंठा है, इतने किस्म के तनाव लोगों में हैं कि उससे आजाद होने के लिए लोग तरह-तरह के तरीके आजमाते हैं। वहां पर ऐसे पार्लर बने हुए हैं जहां पर लोग जा सकते हैं, और वहां जाकर अपनी मर्जी के सामान खरीद सकते हैं, और फिर भीतर बने हुए कमरों में उन सामानों को फेंककर, तोडक़र अपनी भड़ास निकाल सकते हैं, वहां वे चीख-चिल्ला भी सकते हैं, और अपनी क्षमता के मुताबिक खरीदा सामान तोड़ सकते हैं। इसके बाद वे भड़ासमुक्त होकर घर जा सकते हैं, ताकि वहां किसी का सिर ना तोड़ें, और घर के दूसरे सामान ना तोड़ें।

हिंदुस्तानी लोकतंत्र में प्रदर्शन एक आम बात है, और ऐसे में लोगों को अपनी भड़ास निकालने के लिए कई तरह की अहिंसक आजादी मिलनी चाहिए। अभी हमने देखा देशभर में जगह-जगह लोग बहुत हिंसक प्रदर्शन करते हैं, और हिंसा करते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि लोगों को जब प्रतीकों में भी हिंसा करने ना मिले तो उनकी हिंसा की हसरत बची रह जाती होगी, और वे धीरे-धीरे जाकर असली हिंसा की शक्ल में निकलती होगी। अब यह बात तो सामाजिक मनोवैज्ञानिक जानकार बता सकते हैं कि आंदोलनकारियों और प्रदर्शनकारियों की मानसिक उत्तेजना को शांत करने के लिए कौन-कौन से लोकतांत्रिक तरीके मुहैया कराए जाने चाहिए।

किसान आंदोलन के तहत कल ही यह घोषणा की गई है कि लखीमपुर खीरी में किसानों से हुई हिंसा के खिलाफ 18 तारीख को देशभर में रेल रोको आंदोलन किया जाएगा। हम किसानों के मुद्दों से सहमत हैं, लेकिन रेलगाडिय़ां सरकार को नहीं ढोतीं जनता को ढोती हैं। आंदोलनकारियों के लिए यह मुमकिन नहीं होगा कि वे केंद्र सरकार के किसी भी विमान का उडऩा रोक सकें, इसलिए वे ट्रेन रोक रहे हैं। लेकिन इससे क्या होना है, बड़े नेता, बड़े अफसर ट्रेन में न सफर करते, न उनकी सेहत पर आम मुसाफिरों के घंटों लेट होने से भी कोई फर्क पड़ता। आंदोलन प्रतीकात्मक रूप से केंद्र सरकार का ध्यान खींचने वाला कहा जाएगा लेकिन प्रतीक से परे इसका असली असर आम जनता पर पड़ेगा जो वक्त पर इलाज के लिए नहीं पहुंच पाएगी, या किसी इम्तिहान या इंटरव्यू के लिए लोग नहीं पहुंच पाएंगे। इसलिए देश में आंदोलन के ऐसे तरीकों के बजाय तो पुतला जलाना बेहतर है जिससे बहुत मामूली सा प्रदूषण होता है, लेकिन और कोई नुकसान नहीं होता। इस 18 तारीख को देश में सैकड़ों-हजारों जगहों पर रेलगाडिय़ों को रोकने से मुसाफिरों को जो दिक्कत होगी, उसकी तुलना में पुतला जलाना एक बेहतर रास्ता है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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