संपादकीय
ब्रिटेन के ग्लासगो में इसी महीने के आखिर में दुनिया भर से पर्यावरण के विशेषज्ञ इकट्ठे होने वाले हैं जिनमें अधिकतर देशों की सरकारों के प्रतिनिधि भी रहेंगे। पर्यावरण आंदोलनकारियों से लेकर पर्यावरण पत्रकारों तक सबने वहां पहुंचने की तैयारी कर ली है और ऐसा माना जा रहा है कि आने वाले कुछ वर्षों में यह धरती बचाई जाए या ना बचाई जाए इसका फैसला ग्लासगो में होने जा रहा है। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति थे उस वक्त पेरिस में एक क्लाइमेट समिट हुई और अमेरिका ने उससे बाहर निकलने की घोषणा कर दी थी। ऐसे पर्यावरण सम्मेलनों का एक मकसद यह होता है कि दुनिया के विकसित देश पर्यावरण बहुत अधिक तबाह कर रहे हैं, वे दुनिया के विकासशील और गरीब देशों में पर्यावरण को बचाने के लिए आर्थिक योगदान दें ताकि धरती का औसत पर्यावरण बेहतर हो सके, लेकिन बहुत से देशों ने इस जिम्मेदारी से हाथ खींच लिया था। अब ग्लासगो में एक बार फिर यह सामने आएगा कि किस देश का कैसा रुख है।
कुछ समय पहले हमने इसी जगह पर इस मुद्दे पर लिखा था, लेकिन कल ब्रिटिश अखबार गार्डियन ने यह कहा है कि आगे जाकर जब कभी 2021 का इतिहास लिखा जाएगा तो इस दौर को अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी, या कोरोना की वजह से याद नहीं किया जाएगा, बल्कि इस बात के लिए याद किया जाएगा कि दुनिया के देशों ने पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाना तय किया, या उससे मुंह चुराया। यह बात कुछ हफ्ते बाद होने जा रही इस ग्लासगो सम्मेलन को लेकर कहीं गई है, और इसके साथ-साथ दुनिया भर में यह चर्चा हो रही है कि मौसम की जो अभूतपूर्व बुरी मार दुनिया के देशों पर पड़ रही है, सौ-पचास बरसों में जैसी बाढ़ नहीं आई थी, वैसी बाढ़ आ रही है, जैसी बारिश नहीं हुई थी, वैसी बारिश हो रही है, जैसा सूखा नहीं पड़ा था, वैसा सूखा पड़ रहा है, और अमेरिका से लेकर रूस तक के जंगलों में जैसी आग लग रही है, वैसी किसी ने देखी नहीं थी। ऑस्ट्रेलिया के जंगलों की भयानक आग की तस्वीरें और भयानक हैं, जिनमें कंगारू खड़े-खड़े अपनी जगह पर ही जल गए और अब उनका ठूंठ वहां खड़ा हुआ है।
इस बीच अमेरिका के कैलिफोर्निया से खबर आ रही है कि वहां पर ऐसा भयानक सूखा पड़ा है कि लोगों ने अपने घरों में हवा से पानी बनाने वाली मशीनें लगाई हैं। हवा से नमी को इक_ा करके या हवा से ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को लेकर पानी बनाने की तकनीक तो पहले से है, लेकिन आज लोगों को अपने खुद के लिए, अपने घरों की सफाई के लिए, अपने पेड़-पौधों और पालतू जानवरों के लिए पानी की जिस तरह कमी पड़ रही है, वह किसी ने कभी देखी-सुनी नहीं थी। लोगों ने यह जरूर सुना था कि कुछ दूरदर्शी लोग यह कहते थे कि दुनिया का तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। तब भी बात उन लोगों को समझ नहीं आती है जिनके घरों पर जमीन के नीचे से पानी निकालने के लिए पंप लगे हुए हैं और जिन्हें खुद पानी की कोई कमी नहीं है। लेकिन अब लोगों को यह समझ आने लगा है कि पंप हैं भी तो उन्हें सौ-सो दो-दो सौ फीट और गहरे उतरना पड़ रहा है, तब जाकर पानी मिल रहा है। हिंदुस्तान के भीतर ही महाराष्ट्र के कुछ इलाकों की ऐसी भयानक तस्वीरें आती हैं जिनमें महिलाएं जान पर खेलकर गहरे कुएं में उतरकर वहां से किसी तरह रिसते हुए पानी को घड़ों में इकठ्ठा करके लंबी रस्सी से ऊपर पहुंचाती हैं, और उन्हें कई किलोमीटर दूर घरों तक ले जाया जाता है। कहने के लिए तो हिंदुस्तान ने स्वच्छ भारत मिशन के नाम पर जगह-जगह फ्लश से चलने वाले शौचालय बना लिए हैं। लेकिन हर घर में शौचालय बनाने कि यह सोच कुल मिलाकर महिला की कमर ही तोड़ रही है। कई जगहों पर तो कई किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता है, और तब कहीं जाकर उन शौचालयों का इस्तेमाल हो सकता है, क्योंकि वहां फ्लश करने के लिए अधिक पानी लगता है।
हिंदुस्तान में पानी की दिक्कत एक बात है लेकिन पूरी दुनिया में पर्यावरण पर छाया हुआ खतरा एक अलग मुद्दा है जो कि पानी से अधिक व्यापक है। पानी की बात तो अमेरिका के सबसे विकसित प्रदेश में पानी की कमी को देखकर याद पड़ रहा है जहां लाखों रुपए की मशीन लगाकर ढेरों बिजली जलाकर एक-एक घर के लिए पानी बनाया जा रहा है हिंदुस्तान में ना तो किसी के पास पानी के लिए ऐसी मशीनें खरीदने को पैसा है और ना ही इतनी बिजली ही है। लोगों को यह भी समझने की जरूरत है कि खुद हिंदुस्तान के भीतर ही पानी की कमी अकेला पर्यावरण मुद्दा नहीं है, हिंदुस्तान में हवा में इतना जहर घुला हुआ है कि शहरों में जीना मुश्किल है, लोग अधिक बीमार होने पर दिल्ली के बाहर जाकर बसने की सोचने लगते हैं, और हवा के प्रदूषण से हिंदुस्तान में हर बरस लाखों लोगों के बेमौत मरने का एक अंदाज है। ऐसे में पर्यावरण को केवल पानी तक सीमित मानना ठीक नहीं होगा, आज तो जिस तरह से कोयले से चल रहे बिजलीघर हैं, और कोयले से बिजली के वायु प्रदूषण पर पूरी दुनिया में फि़क्र जाहिर की जा रही है, तो वह भी एक बात है। हिंदुस्तान में जहां पर गरीब अधिक हैं, और जहां पर डीजल-पेट्रोल दुनिया में सबसे महंगा है, वहां पर भी न तो केंद्र सरकार ने, न किसी राज्य सरकार ने निजी गाडिय़ों को घटाने के लिए सार्वजनिक परिवहन को पर्याप्त बढ़ावा दिया है। आज भी देश के महानगरों से लेकर देश के छोटे शहरों तक कहीं भी इस बात की पर्याप्त योजना नहीं बनाई गई है कि कैसे मेट्रो, बस या कोई और तरीका निकालकर निजी गाडिय़ों को घटाया जाए। इससे पर्यावरण का नुकसान बढ़ते चल रहा है क्योंकि हर दिन हिंदुस्तान में दसियों हजार गाडिय़ां सडक़ों पर बढ़ जाती हैं।
पर्यावरण को लेकर मुद्दे इतने अधिक हैं कि जिसके हाथ जो मुद्दा लगता है, जिसकी समझ जहां तक जाती है, वे उसे ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण मान लेते हैं। लेकिन हिंदुस्तान के सामने गांधी की एक मिसाल है जिन्होंने किफायत से जिंदगी जीने की बात कही थी, कम से कम सामानों के इस्तेमाल की बात कही थी, और जो एक लंगोटी जैसी आधी धोती में पूरी जिंदगी गुजार रहे थे, और अपनी जिंदगी को एक मिसाल की तरह लोगों के सामने रख रहे थे। ऐसे गांधी के देश में किफायत नाम का शब्द ही आज कहीं सुनाई नहीं पड़ता है। गांधी की मेहरबानी से देश आजाद हुआ यहां लोकतंत्र आया, लेकिन इस लोकतंत्र का उपभोग करने वाले सत्तारूढ़ लोग जिस बेदर्दी के साथ एक-एक घर-दफ्तर में दर्जनों एसी चलाते हैं, गाडिय़ों का काफिला लेकर चलते हैं, सामानों की अंधाधुंध खपत करते हैं, और इन सबका बोझ पर्यावरण पर पड़ता है। आज गरीब जनता के पैसों से सरकारें अपने लिए बड़ी-बड़ी इमारतें बनाती हैं, और सरकार चला रहे लोग अपने लिए बड़े-बड़े बंगले बनाते हैं। जब जनता के पैसों से सत्ता को कुछ लेना रहता है या बनाना रहता है तो वह सब कुछ बहुत बड़ा-बड़ा बनाती है बहुत बड़ी-बड़ी गाडिय़ां लेती है।
ग्लासगो में दुनिया भर के मुद्दों पर जो भी चर्चा हो, हिंदुस्तान को तो अपने भीतर के बारे में भी देखना चाहिए। इसके भीतर पर्यावरण को बचाने की अभी अपार संभावनाएं हैं। और इतने वर्षों में जितना हमने देखा है, उसके मुताबिक सत्ता पर बैठे हुए लोग, और अति संपन्न तबके पर्यावरण को बर्बाद करने के सबसे बड़े गुनहगार हैं। इस बारे में भी जनता को सार्वजनिक बात करना चाहिए।
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