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अफगानिस्तान में भारतीय निवेश का क्या भविष्य है?
16-Oct-2021 2:21 PM
अफगानिस्तान में भारतीय निवेश का क्या भविष्य है?

2001 में अफगानिस्तान में अमेरिका के प्रवेश के बाद भारत ने अफगानिस्तान की विकास परियोजनाओं में भारी निवेश किया. लेकिन तालिबान की दोबारा सत्ता में वापसी के बाद यह स्पष्ट नहीं है कि इन परियोजनाओं का भविष्य क्या होगा.

  डॉयचे वैले पर रोशनी मजुमदार की रिपोर्ट

2001 में अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में तालिबान शासन के खात्मे के बाद भारत ने अफगानिस्तान में बुनियादी ढांचे और मानवीय सहायता पर अरबों डॉलर खर्च किए. भारतीय व्यापार पर नजर रखने वाले एक विशेषज्ञ के मुताबिक, राजमार्गों के निर्माण से लेकर भोजन के परिवहन और स्कूलों के निर्माण तक भारत ने समय और धन का निवेश करते हुए अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में मदद की.

नाम न बताने की शर्त पर एक विशेषज्ञ ने कहा कि अफगानिस्तान में भारतीय परियोजनाओं के लिए नियमित रख-रखाव की जरूरत होगी और ये केवल "अनुकूल वातावरण" में ही जारी रह सकते हैं.

हडसन इंस्टीट्यूट की इनिशिएटिव ऑन द फ्यूचर ऑफ इंडिया एंड साउथ एशिया की निदेशक अपर्णा पांडे कहती हैं कि अफगानिस्तान में भारत का निवेश "सिर्फ तालिबान के कब्जे से खत्म नहीं हो जाएगा." अफगानिस्तान में चल रही भारत की कुछ सबसे महत्वपूर्ण परियोजनाओं में से एक उस राजमार्ग का निर्माण भी शामिल है जो भारत को अफगानिस्तान से जोड़ने में मदद करता है. करीब 150 मिलियन डॉलर की लागत से अफगानिस्तान में बना जरांज-डेलाराम राजमार्ग साल 2009 में बनकर तैयार हुआ था. यह भारत को ईरान के चाबहार बंदरगाह के माध्यम से अफगानिस्तान के साथ व्यापार में मदद करता है. भारत के लिए यह सड़क संपर्क महत्वपूर्ण है क्योंकि पाकिस्तान भारत को अपने क्षेत्र में अफगानिस्तान में माल परिवहन की अनुमति नहीं देता है.

भारत ने काबुल में अफगान संसद भवन और एक बांध के निर्माण में भी सहायता की है जिससे बिजली उत्पादन और खेतों की सिंचाई में लाभ हो रहा है. अफगानिस्तान में स्कूलों और अस्पतालों के निर्माण के अलावा भारत ने अपने सैन्य स्कूलों में अफगान अधिकारियों को प्रशिक्षित भी किया है और अन्य तकनीकी सहायता की भी पेशकश की है. 2017 में नई दिल्ली और काबुल के बीच माल ढुलाई के लिए एक सीधा हवाई गलियारा खोला गया, जिससे दोनों देशों के बीच व्यापार को बढ़ावा मिला. इन परियोजनाओं के अलावा भारत ने 2005 से लेकर अब तक शिक्षा, स्वास्थ्य, जल प्रबंधन और खेल सुविधाओं सहित विभिन्न लघु और मध्यम स्तर की परियोजनाओं को विकसित करने के लिए करीब 120 मिलियन डॉलर के निवेश की प्रतिबद्धता जताई है.

भारत ने 2015 में काबुल में एक मेडिकल डायग्नोस्टिक सेंटर स्थापित करने में मदद की. जुलाई 2020 तक भारत ने स्कूलों और सड़कों के निर्माण के लिए करीब 2.5 मिलियन डॉलर की लागत वाले पांच अन्य समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे. साल 2020 के जिनेवा सम्मेलन में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि भारत अफगानिस्तान के काबुल जिले में शतूत बांध का निर्माण करेगा. इस बांध से बीस लाख से भी ज्यादा अफगानी नागरिकों को पीने का पानी उपलब्ध कराया जाना था. इसके अलावा जयशंकर ने अफगानिस्तान में 80 मिलियन डॉलर की 100 से अधिक परियोजनाओं को भी शुरू करने की घोषणा की थी. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भारत में अध्ययन करने के लिए अफगान छात्रों को छात्रवृत्ति की भी पेशकश की थी.

साल 1996 से 2001 के बीच अफगानिस्तान पर इस्लामिक कट्टरपंथी समूह के शासन काल के दौरान भारत ने तालिबान विरोधी प्रतिरोध का समर्थन किया था. साल 2001 में तालिबान की पहली सरकार के पतन के बाद भारत को अफगानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर मिला. साल 2010 और 2013 के बीच अफगानिस्तान में भारत के राजदूत रहे गौतम मुखोपाध्याय ने डीडब्ल्यू को बताया कि अफगानिस्तान में भारत के निवेश करने का मुख्य उद्देश्य जनता का विश्वास और राजनीतिक सद्भावना हासिल करना था. उनके मुताबिक, "यह निवेश अफगान लोगों के लिए उपहारस्वरूप थे. हालांकि भारत किसी भी तरह से वित्तीय सहायता का राजनीतिक लाभ के रूप में उपयोग नहीं करना चाहता था." लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के उद्देश्यों में अफगानिस्तान का राजनीतिक और लोकतांत्रिक परिवर्तन भी शामिल था.

शिव नाडर विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संबंधों और शासन के अध्ययन के विशेषज्ञ अतुल मिश्र कहते हैं कि भारत ने खुद को एक राज्य निर्माता के रूप में पेश किया ताकि "यह सुनिश्चित किया जा सके कि एक सुरक्षित लोकतांत्रिक और समावेशी शासन, खासतौर पर इस्लामी देश में राजनीतिक परिवर्तन के महत्व को स्पष्ट करेगा." भारत और अफगानिस्तान ने साल 2011 में एक रणनीतिक साझेदारी समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत भारत ने अफगान सेना की भी सहायता की. अतुल मिश्र के मुताबिक, "भारत यह भी सुनिश्चित करना चाहता था कि भारत विरोधी इस्लामी आतंकवादी अफगानिस्तान से भारतीय धरती पर हमले शुरू न करें." भारत ने इस इलाके में भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त इस्लामी आतंकवादियों को समर्थन देने का पाकिस्तान पर कई बार आरोप लगाया है.

भारत हमेशा से तालिबान का आलोचक रहा है और उसे वह अपने क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान का करीबी भी मानता है. लेकिन तालिबान ने संकेत दिया है कि वह इस बार सभी क्षेत्रीय देशों के साथ अच्छे संबंध बनाना चाहेगा. मुखोपाध्याय कहते हैं कि तालिबान के साथ काम करना भारत के लिए मुश्किल साबित हो सकता है. उनके मुताबिक, "उदाहरण के लिए तालिबान के माध्यम से अफगानी लोगों को मानवीय सहायता प्रदान करना एक जटिल मामला है." अपर्णा पांडेय कहती हैं कि यह महत्वपूर्ण है कि भारत अफगानिस्तान को मानवीय सहायता देना जारी रखे लेकिन तालिबान के माध्यम से नहीं.

भारत को अभी भी तालिबान पर शक है. अपर्णा पांडेय कहती हैं कि साल 1999 में इंडियन एयरलाइंस के एक विमान के अपहरणकर्ताओं को तालिबान का समर्थन अभी भी अधिकांश भारतीयों को याद है, "देश से अमेरिका की वापसी और 15 अगस्त को काबुल पर तालिबान के तेजी से कब्जा करने के बाद भारत ने अफगानिस्तान पर अपना प्रभाव खो दिया है." विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को अब यह देखने के लिए इंतजार करना चाहिए कि तालिबान का नया शासन क्षेत्रीय पड़ोसियों के साथ कैसा व्यवहार करता है. निश्चित तौर पर, तब तक अफगानिस्तान में भारतीय निवेश अधर में रहेगा. (dw.com)
 

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