संपादकीय
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पिछले दो-तीन दिनों में दुनिया के अलग-अलग देशों में जो वारदातें हुई हैं, उन्हें अगर देखें, तो धर्म और लोकतंत्र को लेकर एक बुनियादी टकराव खड़ा होते दिखता है। यूरोप के नार्वे में दो दिन पहले तीर-धनुष लेकर एक मुस्लिम नौजवान ने 5 लोगों को मार डाला। पुलिस का मानना है कि इस हमलावर ने इस्लाम अपनाया था, और ऐसा लग रहा है कि वह कट्टरपंथ के असर में था। पुलिस इसे एक आतंकी हमला मान रही है। दूसरी तरफ कल की ताजा खबर यह है कि ब्रिटेन में वहां के एक कंजरवेटिव सांसद सर डेविड अमेस को एक नौजवान ने चाकू के कई वार करके मार डाला। वे अपने चुनाव क्षेत्र के एक चर्च में आम लोगों से मुलाकात कर रहे थे, और यह गिरफ्तार किया गया नौजवान 25 साल का ब्रिटिश नागरिक बताया जाता है, जो कि सोमालिया से वहां आकर बसा था, और पुलिस का कहना है कि यह इस्लामिक अतिवाद से जुड़ा हुआ हो सकता है। एक तीसरी वारदात हिंदुस्तान में दिल्ली-हरियाणा के सिंघु बॉर्डर पर हुई है, जहां एक दलित नौजवान को सिक्ख निहंगों ने तलवार से काटकर उसके शरीर के हिस्से, और उसके धड़ को टांग दिया और सार्वजनिक जगह पर उसकी नुमाइश की। इस हत्या की जिम्मेदारी लेते हुए निहंगों ने यह कहा कि उसने एक धार्मिक ग्रंथ का अपमान किया था और इसकी सजा देने के लिए हत्यारे निहंग का बाकी निहंगों ने सम्मान करते हुए पुलिस के सामने समर्पण के लिए भेजा। यह ग्रंथ सिखों के सबसे पवित्र माने जाने वाले गुरु ग्रंथ साहिब से अलग एक ग्रंथ है जिसके कुछ हिस्सों को सिख मानते हैं, और कुछ हिस्सों को वे नहीं मानते। फिर मानो यह मामला काफी न हो, हाल के चार-छह दिनों में ही बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के दौरान हिंसक मुस्लिम भीड़ ने इस्कॉन मंदिर और दुर्गा पूजा पंडालों पर हमला किया, कई प्रतिमाओं को तोड़ा, और कई हिंदुओं को मार डाला। अभी तक वहां आधा दर्जन हिंदू मारे जा चुके हैं।
इस पूरे सिलसिले को देखें तो दुनिया भर में अलग-अलग जगहों पर धर्म से जुड़े हुए लोग तरह तरह से लोगों की हत्या कर रहे हैं। खासकर दिल्ली-हरियाणा सीमा पर निहंगों ने जिस तरह एक दलित के टुकड़े-टुकड़े करके टांगे हैं, उसकी तो कोई मिसाल भी हिंदुस्तान में याद नहीं पड़ती है। और इस बात पर बाकी निहंगों को फख्र है. क्योंकि यह क़त्ल किसान आंदोलन के पास हुआ है, इसलिए बदनामी आज किसानों पर भी आ रही है। इनसे परे अभी-अभी अफगानिस्तान में काबिज हुए तालिबान के राज को देखें तो वहां पर इस्लामी आतंकी संगठन आई एस के हमले जारी हैं, और वह शिया मुस्लिमों की मस्जिदों पर, उनके जनाजे पर लगातार हमले कर रहे हैं, और एक-एक हमले में दर्जनों लोगों को मार रहे हैं। अफगानिस्तान के यह सारे के सारे लोग एक ही खुदा को मानने वाले लोग हैं, उनके रिवाजों और तौर-तरीकों में थोड़ा सा फर्क है, लेकिन सभी मुसलमान हैं, और एक-दूसरे को इतनी बड़ी संख्या में बिना किसी उकसावे के, बिना किसी वजह के, आतंक से मार रहे हैं।
अफगानिस्तान तो अभी किसी लोकतंत्र से कोसों दूर है, लेकिन जो लोग ब्रिटेन या नार्वे या हिंदुस्तान जैसे लोकतंत्र में जीते हुए यहां की सारी लोकतांत्रिक सहूलियतों का मजा लेते हैं, सारे अधिकार पाते हैं, वे भी धर्म की बारी आने पर किसी भी किस्म की हिंसा करने पर उतारू हो जाते हैं। एक दूसरी घटना अभी कुछ ही दिन पहले न्यूजीलैंड में सामने आई थी जहां पर श्रीलंका से गए हुए एक मुस्लिम छात्र ने चाकू से हमला करके आधा दर्जन लोगों को घायल कर दिया था। सितंबर के पहले हफ्ते में हुई इस वारदात में न्यूजीलैंड गया हुआ यह छात्र 2011 से वहां पढ़ रहा था, लेकिन उसकी शिनाख्त चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट के समर्थक की थी। इसने जब कई लोगों को चाकू के हमले से घायल कर दिया, तो पुलिस ने मौके पर ही उसे मार डाला।
अब सवाल यह उठता है कि लोकतंत्र में जहां सभी देशों से आए हुए, या सभी धर्मों के लोगों को बराबरी से मौका मिलता है, वहां पर अगर कुछ धर्मों के लोग लगातार हिंसा करते हैं, तो उससे सबसे बड़ा नुकसान उन्हीं के धर्मों के बाकी लोगों को होता है जो शक के घेरे में आ जाते हैं, और जिनकी विश्वसनीयता खत्म हो जाती है। हिंदुस्तान में भी जब पंजाब में आतंकवाद फैला हुआ था और भिंडरावाले के आतंकी स्वर्ण मंदिर से बाहर निकल लगातार आतंकी वारदातें करते थे छंाट-छांटकर गैरसिक्खों को मारते थे, तब भी पूरे हिंदुस्तान में सिखों के खिलाफ एक सामाजिक तनाव बना हुआ था। आज भी जब पाकिस्तान में हिंदू मंदिरों पर हमले होते हैं, तो हिंदुस्तान में हिंदुओं की एक नाराजगी मुस्लिमों के खिलाफ होती है। ठीक वैसी ही नाराजगी आज बांग्लादेश को लेकर हिंदुस्तान में है। और ठीक ऐसी ही नाराजगी यूरोप के देशों में या न्यूजीलैंड में मुस्लिम समुदाय के लोगों को लेकर खड़ी हुई है, या दूसरे देशों से वहां आए हुए शरणार्थियों को लेकर स्थानीय लोगों के भीतर एक तनाव खड़ा हुआ है।
दुनिया का इतिहास इस बात को बताता है कि धार्मिक कट्टरता और लोकतंत्र का कोई सहअस्तित्व नहीं है। वे एक साथ नहीं चल सकते। लोग जब धर्म को लेकर कट्टर हो जाते हैं तो उनके लिए किसी देश का संविधान, या वहां की शासन व्यवस्था जरा भी मायने नहीं रखते। यह हिंदुस्तान में बहुत से धर्मों को लेकर बहुत से मामलों में सामने आ चुकी बात है, और पूरी दुनिया ऐसी धर्मांधता को भुगतते रहती है। दुनिया के जिस-जिस लोकतंत्र में राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा दे रहे हैं उन्हें यह बात समझ लेना चाहिए कि आज तो धार्मिक आतंकी लोग दूसरे धर्म के लोगों पर हमला कर रहे हैं, कल वे अफगानिस्तान की तरह अपने धर्म के ही दूसरी पद्धति से पूजा करने वाले लोगों पर हमला करेंगे और अधिक समय नहीं लगेगा जब वह लोकतंत्र पर हमला करने लगेंगे, और अपनी धार्मिक मान्यताओं को लोकतंत्र और संविधान से बहुत ऊपर मानने लगेंगे। लोगों को याद होगा हिंदुस्तान में बहुत बरस तक चले राम मंदिर आंदोलन का नारा ही यही था कि मंदिर वहीं बनाएंगे। अब जो मामला अदालत में चल रहा था वहां अदालत का फैसला आने के दशकों पहले से अगर लोग मंदिर वही बनाने को लेकर एक उग्र और हिंसक आंदोलन चला रहे थे और भीड़ की शक्ल में जाकर उन्होंने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया था, तो यह समझने की जरूरत है कि धर्मांध और कट्टर भीड़ किसी कानून को नहीं मानती। दुनिया के अलग-अलग देशों की इन वारदातों को लेकर लोगों को यह सोचना चाहिए कि क्या वे लोकतंत्र खत्म करने की कीमत पर भी अपने धर्म को हिंसक और हमलावर बनाना चाहते हैं?
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