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रश्मि रॉकेट: फ़िल्म जो खेल में महिलाओं के जेंडर टेस्ट के मुद्दे पर बात करती है
19-Oct-2021 8:14 AM
रश्मि रॉकेट: फ़िल्म जो खेल में महिलाओं के जेंडर टेस्ट के मुद्दे पर बात करती है

-जान्हवी मुले

वो बड़ी तो हुईं एक लड़की के रूप में लेकिन कैसा रहा होगा वो पल जब किसी ने उनके लड़की होने पर सवाल उठाया होगा? जब किसी ने कहा होगा, 'वो पूरी औरत नहीं हैं.' या फिर ये कि वो 'लड़की ही नहीं हैं, बल्कि लड़का हैं.'

फ़िल्म रश्मि रॉकेट की 'हिरोइन' रश्मि वीरा को कुछ ऐसे ही सवालों से जूझना पड़ता है. ये वो सवाल थे जिसने एक खिलाड़ी को अचानक से एक मोड़ पर लाकर रोक दिया. लेकिन ना तो वह झुकी और ना ही वह रुकी. उसने हर उस सवाल का जवाब दिया जो उसकी पहचान को लेकर उठे थे.

15 अक्टूबर को रिलीज़ हुई तापसी पन्नू स्टारर फ़िल्म रश्मि रॉकेट यूं तो बॉलीवुड मसाला फ़िल्म है. जो कहीं कहीं थोड़ी मेलोड्रैमैटिक भी लगती है लेकिन फ़िल्म में महिला खिलाड़ियों के एक ऐसे मुद्दे को उठाया गया है जो शायद अब तक अछूता ही रहा है.

यह फ़िल्म 'जेंडर टेस्ट' के मुद्दे पर बात करती है. यह फ़िल्म एक औरत को बतौर औरत खेलने की चुनौतियों को दर्शाती है.

मर्दों के लिए खेल के नियम कुछ और, औरतों के लिए कुछ और...
आज के समय में शायद ही कोई ऐसी फ़ील्ड है जहां महिलाएं नहीं हैं. वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं लेकिन शायद खेल ही एक ऐसा क्षेत्र है जहां आज भी मर्द और औरत के बीच की खाई साफ़ नज़र आती है. जहां आज भी खिलाड़ियों को महिला और पुरुष के तौर पर आंका जाता है. दोनों के लिए एक ही खेल के अलग-अलग मानदंड हैं.

इसके पीछे एक बड़ी वजह शारीरिक क्षमता को माना जाता है, वो भी ख़ासतौर पर एथलेटिक्स में.

एक पुरुष और एक महिला के शरीर में अंतर है लेकिन इसका यह कहीं से भी मतलब नहीं है कि एक औरत, पुरुष की तुलना में कमज़ोर है. लेकिन हां इस बात को सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता है कि स्वभाविक तौर पर पुरुष शारीरिक क्षमता में औरतों से अलग होते हैं.

शायद यही एक वजह है कि पुरुषों को महिलाओं के ख़िलाफ़ खिलाना हमेशा उचित नहीं माना जाता क्योंकि दोनों में शारीरिक भिन्नता है. इसीलिए घुड़सवारी या मिक्स्ड डबल जैसे खेलों को छोड़कर ज़्यादातर खेलों में पुरुष और महिलाएं अलग-अलग श्रेणियों में खेलते हैं.

लेकिन इन समूहों में उन्हें बांटने वाले नियम कभी-कभी महिलाओं के साथ अन्याय जैसे होते हैं.

जैसे यदि कोई महिला वर्गीकरण नियमों में फ़िट नहीं आती है तो वह महिला वर्ग में नहीं खेल सकती है. वहीं दूसरी ओर जब एक पुरुष जो समान नियमों में फ़िट नहीं आता है, बावजूद उसे एक पुरुष के रूप में खेलने की अनुमति होती है.

शायद यही वो कारण जिस वजह से इन नियमों को लेकर अक्सर विवाद सामने आते हैं.

खेलों में 'जेंडर टेस्ट' का इतिहास
20वीं सदी में कुछ समय के लिए महिलाओं के लिए 'सेक्स वेरिफ़िकेशन टेस्ट' करवाना अनिवार्य था और महिला खिलाड़ियों को अक्सर इस बेहद 'शर्मिंदगी' भरे टेस्ट से गुज़रना पड़ता था. इसी को ध्यान में रखते हुए साल 1968 के दौरान हुए ओलंपिक खेलों में क्रोमोसोम टेस्ट की शुरुआत हुई.

लेकिन साल 1990 के दौरान इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ़ एथलेटिक्स फ़ेडरेशन (IAA) और इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी (IOC) दोनों ने इन अनिवार्य टेस्ट्स को ख़ारिज कर दिया. इसके बाद से किसी खिलाड़ी को केवल तभी टेस्ट देने के लिए कहा जाता है जब उसे लेकर कोई संदेह हो अथवा उस खिलाड़ी के संबंध में किसी दूसरे ने शिकायत की हो. लेकिन उस शिकायत का ठोस आधार होना ज़रूरी है.

इसके बाद हॉर्मोन टेस्ट के एक नये तरीक़े से तय किया जाने लगा कि कोई खिलाड़ी बतौर महिला खेल सकती है या नहीं.

यहां इस बात का ज़िक्र कर देना ज़रूरी है कि शायद ऐसे गिने-चुने मामले ही हों जब किसी खेल में एक पुरुष खिलाड़ी ने महिला खिलाड़ी बनकर हिस्सा लिया हो.

इसके अलावा, इंटरसेक्स एथलीट और ट्रांसवुमेन खिलाड़ियों की संख्या काफ़ी कम है.

तो क्या यह सही है कि कोई खिलाड़ी, महिला खिलाड़ी ही है, यह तय करने के लिए मानक निर्धारित किये जाएं? क्योंकि प्रकृति ने किन्हीं भी दो लोगों को एक सा नहीं बनाया है. यहां तक की दो औरतें भी एक-दूसरे से पर्याप्त अलग होती हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि फिर सिर्फ़ औरतों को ही क्यों इन तय मानकों का पालन करना पड़ता है?

कुछ ऐसा ही सवाल भारतीय एथलीट दुती चंद ने भी पूछा था. उनकी यह लड़ाई, उनकी आवाज़ महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई बन गई. साथ ही यह मानवाधिकार की भी लड़ाई बन गई.

फ़िल्म 'रश्मि रॉकेट' के निर्माताओं ने हालांकि शुरू में ही यह साफ़ कर दिया था कि यह फ़िल्म किसी एक खिलाड़ी के जीवन पर आधारित नहीं है. उन्होंने दावा करते हुए कहा था कि यह फ़िल्म दर्शकों को कुछ खिलाड़ियों के जीवन-संघर्ष से रुबरु कराएगी. उन्हें उन खिलाड़ियों की याद दिलाएगी.

कई लोग इस फ़िल्म की तुलना भारतीय एथलीट दुती चंद के जीवन से कर रहे हैं. दुती उन खिलाड़ियों में से हैं जिन्होंने अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाई. जिन्होंने नियमों को चुनौती दी. लेकिन वह पहली खिलाड़ी नहीं थीं, जिनके साथ कुछ ऐसा हुआ.

दुती चंद से पहले भारत के कुछ और खिलाड़ियों को भी इन नियमों के दर्द से गुजरना पड़ा है.

साल 2001 में, गोवा की एक युवा तैराक प्रतिमा गोकर ने जेंडर टेस्ट में फ़ेल होने के बाद अपनी जान लेने की कोशिश की थी.

पांच साल बाद एक और खिलाड़ी शांति सुंदरराजन को भी इसी तरह की परीक्षा का सामना करना पड़ा.

शांति सुंदरराजन ने 2006 के एशियाई खेलों में 800 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक जीता था. लेकिन जब वह 'जेंडर टेस्ट' में फेल हो गईं तो उनके मेडल उनसे ले लिये गए.

शांति सुंदरराजन के लिए यह किसी झटके से कम नहीं था. एक ओर उनसे उनका मेडल छीना गया वहीं दूसरी ओर उनकी मेडिकल रिपोर्ट पर सार्वजनिक रूप से टीवी पर चर्चा की गई.

वह बिल्कुल अकेली थीं और इन सबसे जूझते हुए वह डिप्रेशन का शिकार हो गईं. इसी दौरान उन्होंने आत्महत्या की भी कोशिश की. उनकी जान तो बच गई. लेकिन उसके बाद उन्होंने कोच बनकर ट्रेनिंग देना शुरू कर दिया लेकिन वह अपने मेडल कभी भी वापस नहीं ले सकीं.

शांति सुंदरराजन को एक ओर जहां लोगों का समर्थन नहीं मिला वहीं कास्टर सेमेन्या को भरपूर समर्थन मिला.

सेमेन्या ने 2009 में 18 साल की उम्र में वर्ल्ड चैंपियनशिप में गोल्ड जीता था. लेकिन उस इवेंट से पहले उन्हें 'जेंडर टेस्ट' देने के लिए कहा गया था.

इस ख़बर पर अटकलों का दौर शुरू हो गया था. लेकिन दक्षिण अफ्रीका में फ़ेडरेशन सेमेन्या के साथ खड़ा रहा और उन्हें एक साल बाद दौड़ने की अनुमति मिल गई और उनसे उनके मेडल भी नहीं छीने गए. इस मामले में जो बात सबसे अहम थी वह यह कि उनकी मेडिकल रिपोर्ट को पूरी तरह से गुप्त रखा गया.

हाइपरएंड्रोजेनिज़्म क्या है?
सेमेन्या के केस के बाद IAAF ने महिलाओं में हाइपरएंड्रोजेनिज़्म के अध्ययन के लिए विशेषज्ञों की एक टीम का गठन किया.

एनएचएस के अनुसार, हाइपरएंड्रोजेनिज़्म एक ऐसी मेडिकल कंडिशन है जिसमें महिला के शरीर में एंड्रोजन का लेवल बहुत अधिक होता है. एंड्रोजन टेस्टोस्टेरोन जैसे हार्मोन का एक समूह है जो आमतौर पर पुरुषों में पाया जाता है.

महिलाओं के शरीर में भी ये हॉर्मोन होते हैं लेकिन उनका स्तर और प्रभाव पुरुषों की तुलना में बहुत कम होता है.

महिलाओं में टेस्टोस्टेरोन का सामन्य स्तर क्या माना जाना चाहिए इसे लेकर विशेषज्ञों की राय बंटी हुई है. लेकिन कई अध्ययनों में यह पाया गया है कि कुछ महिलाओं के शरीर में इन हार्मोन्स का लेवल हाई होता है जबकि कुछ पुरुषों में इन हॉर्मोन्स का स्तर बेहद कम होता है.

कुछ लोगों में एंड्रोजन असंवेदनशील सिंड्रोम होता है. जिसका मतलब यह हुआ कि ऐसे लोगों के शरीर में पुरुष गुणसूत्र (XY)तो होते हैं लेकिन उनका शरीर टेस्टोस्टेरोन का इस्तेमाल करने में अक्षम होता है और इसी कारण उनका शरीर बाहर से एक महिला की तरह होता है.

ऐसे खिलाड़ियों को आप कैसे वर्गीकृत कर सकते हैं?
2011 में IAAF के विशेषज्ञों की टीम और IOC के मेडिकल कमिशन की रिपोर्ट के बाद टेस्टोस्टेरोन के लेवल की नई सीमा तय की गई थी.

उन सभी खिलाड़ियों को महिला वर्ग में खेलने की अनुमति दी गई थी जिनके ब्लड सैंपल में 10 नैनोमोल्स प्रति लीटर से कम एंड्रोजन हो.

IAAF ने यह भी स्पष्ट किया था कि किसी खिलाड़ी का जेंडर टेस्ट उसी सूरत में किया जाएगा जब उसके ख़िलाफ़ कोई शिकायत की आएगी या कोई पुख्ता संदेह हो.

साथ ही यह भी कहा गया कि टेस्ट के रिज़ल्ट गुप्त रखे जाएंगे.

साथ ही अगर कोई लड़की हाइपरएंड्रोजेनिज्म कंडिशन से जूझ रही है तो इलाज से उनके एंड्रोजन लेवल को कम करने का विक्लप भी होगा.

दुती चंद को भी एक ऐसा ही विकल्प दिया गया था लेकिन उन्होंने किसी भी इलाज से इनक़ार कर दिया था. उन्होंने हर अड़चन का सामना किया और व्यवस्था को बदलने के लिए मजबूर कर दिया.

दुती चंद का संघर्ष
दुती चंद ओडिशा के एक छोटे से गांव में पली-बढ़ीं. साल 2013 में एशियाई एथलेटिक्स में कांस्य पदक जीतकर वह देशभर की चहेती बन गईं. उस समय वह सिर्फ़ 18 साल की थीं.

लेकिन साल 2014 के कॉमनवेल्थ गेम्स से ठीक पहले दुती चंद को भारतीय टीम से बाहर कर दिया गया. उन्हें बाहर करने की वजह यह बतायी गई कि वह हाइपरएंड्रोजेनिज्म के मानदंडों के अनुरूप नहीं. उन्हें भी विकल्प के तौर पर इलाज कराने की सलाह दी गई.

दुती ने साल 2019 में बीबीसी से उन दिनों के बारे में बताया था.

उन्होंने कहा था, "उन दिनों कई लोगों ने मुझे मानसिक रूप से परेशान किया. मीडिया में लोग मेरे बारे में अनाप-शनाप बातें कह रहे थे. मैं चाहकर भी ट्रेनिंग नहीं कर पा रही थी. मेरे गांव में लोगों को लगता कि मैं एक लड़का हूं. उन्हें इस तरह की किसी कंडिशन के बारे पता ही नहीं था."

लेकिन दुती ने हार नहीं मानी और डटी रहीं. फिर धीरे-धीरे उन्हें कुछ लोगों का समर्थन भी मिला. मदद के लिए आगे आने वालों में एक पहला नाम डॉ. पायोशनी मित्रा का था, जो जेंडर मामलों की शोधकर्ता हैं.

उन्हीं की मदद से दुती अपना मामला सीएएस में ले जा पाने में कामयाब रहीं. यह अंतरराष्ट्रीय खेलों की एक शीर्ष अदालत है.

उनका संघर्ष बेकार नहीं गया और साल 2015 में उन्हें न्याय मिला. CAS ने IAAF से हाइपरएंड्रोजेनिज्म से संबंधित नियमों को वापस लेने को कहा.

क्या हैं मौजूदा नियम?
CAS ने IAAF को 'डिफ़रेंस ऑफ़ सेक्स डेवलपमेंट' के रूप में परिभाषित मेडिकल कंडिशन्स पर अध्ययन करने के लिए कहा था.

2018 में IAAF ने महिलाओं और इंटरसेक्स एथलीटों में 'डिफ़रेंस ऑफ़ सेक्स डेवलपमेंट' के लिए नए नियम लागू किये.

जिनके मुताबिक़, हाइपरएंड्रोजेनिज़्म कंडिशन वाली महिलाएं या XY क्रोमोसोम या एंड्रोजन इंसेसिटिविटी सिंड्रोम वाले व्यक्ति 400 मीटर से एक मील की दौड़ में हिस्सा नहीं ले सकते हैं.

ये नियम दूसरी दौड़ों पर लागू नहीं होता है.

यदि ऐसे खिलाड़ी इन इवेंट्स में हिस्सा लेना चाहते हैं तो उन्हें अपने खून में टेस्टोस्टेरोन के लेवल को 5 एनएमओएल/ लीटर तक लाना होगा.

इन नियमों का दुष्प्रभाव सेमेन्या को झेलना पड़ा. उन्होंने सीएएस में अपील भी की लेकिन वह केस हार गईं.

वह अब इस मामले को यूरोपियन कोर्ट ऑफ़ ह्यूमन राइट्स में ले गई हैं. (bbc.com)

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