विचार / लेख
-रमेश अनुपम
यह दुर्लभ संयोग हैं कि ‘बस्तर भूषण’ जैसी अमर कृति की रचना करने वाले केदार नाथ ठाकुर ने सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि ‘बस्तर भूषण’ की रचना के पश्चात् लोग उन्हें ही बस्तर भूषण जैसी पदवी से अलंकृत करेंगे।
सन् 1908 में जब वे बस्तर के वन-प्रांतर में बैठकर ‘बस्तर भूषण’ की रचना में निमग्न थे, तब शायद स्वयं भी नहीं जानते थे कि वे एक ऐसे महान और कालजयी ग्रंथ का सृजन कर रहे हैं, जिसके बिना बस्तर को समझ पाना किसी भी काल में बेहद कठिन होगा।
‘बस्तर भूषण’ अपने आप में वह तिलिस्मी कुंजी है जिसके बिना बस्तर के किसी भी ताले को खोल पाना मुश्किल है।
बस्तर में जंगल विभाग के इस साधारण से मुलाजिम ने ‘बस्तर भूषण’ के माध्यम से ऐसा असाधारण कार्य कर दिया है, जिसके लिए बस्तर या छत्तीसगढ़ ही नहीं संपूर्ण हिंदी साहित्य, भूगोल, इतिहास, समाज शास्त्र, राजनीति विज्ञान सभी उनके सदैव ऋणी रहेंगे।
‘बस्तर भूषण’ सन् 1908 में (आज से एक सौ तेरह वर्ष पूर्व) काशी के भारत जीवन प्रेस से प्रकाशित हुआ था। इस ग्रंथ के प्रकाशित होते ही हिंदी के अनेक विद्वानों का ध्यान इस ग्रंथ तथा इसके ग्रंथकार की ओर जाना स्वाभाविक था।
सन 1908 में नागरी प्रचारिणी सभा की सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘सरस्वती’ में इस ग्रंथ की समीक्षा प्रकाशित हुई और इस ग्रंथ की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई।
बस्तर के राजगुरु पंडित रंगनाथ ठाकुर के परिवार में उनका जन्म हुआ था। पिता गंभीर नाथ ठाकुर और मां श्रीमती कुलेश्वरी देवी ठाकुर के घर रायपुर में सन 1870 में उन्होंने जन्म ग्रहण किया था।
‘बस्तर भूषण’ के लेखक केदारनाथ ठाकुर बस्तर के सदर्न सर्किल में फॉरेस्ट रेंजर के पद पर कार्यरत थे। जंगल विभाग में नौकरी के पश्चात् बस्तर में उनकी पदस्थापना हुई। जंगल विभाग में नौकरी के दरम्यान उन्होंने बस्तर को काफी निकट से देखा और समझा।
बस्तर के भूगोल, इतिहास, समाज विज्ञान को वैज्ञानिक नजरिए के साथ देखने और विश्लेषण करने का प्रयास किया। उनके पास साहित्य की गहरी और गंभीर समझ होने के कारण उन्होंने अपने अनुभवों को शब्दबद्ध करने का प्रयास किया, जिसका सुपरिणाम है ‘बस्तर भूषण।’
केदार नाथ ठाकुर ने ‘बस्तर भूषण’ के अतिरिक्त ‘बसंत विनोद’, ‘बस्तर विनोद’ तथा ‘विपिन विज्ञान’ जैसे दुर्लभ ग्रंथों की रचना की है जो अब अप्राप्य हैं।
केदारनाथ ठाकुर को सर्वाधिक ख्याति ‘बस्तर भूषण’ से प्राप्त हुई है। देश के अनेक विद्वानों सहित अनेक विदेशी विद्वानों ने उनके इस ग्रंथ की प्रशंसा की है।
‘द माडिय़ा गोंड्स ऑफ बस्तर’ के लेखक ग्रिगस ने ‘बस्तर भूषण’ पढक़र केदारनाथ ठाकुर की मेधा की प्रशंसा की थी तथा इस ग्रंथ को अपनी तरह का एक अलग और विशिष्ट ग्रंथ होने की संज्ञा दी थी।
केदार नाथ ठाकुर ने स्वयं अपने विषय में एक स्थान पर लिखा है-
‘मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय अध्ययन में ही बिता दिया और अब भी बिना पढ़े एक दिन गुजारना मेरे लिए पहाड़ हो जाता है। मैंने सन 1908 में ‘बस्तर भूषण’ नामक एक पुस्तक लिखी। मैं सोचता हूं यह पुस्तक उस समय भारत में अपने ढंग की प्रथम उपलब्धि थी। मुझे एहसास होता है कि उन दिनों मेरी पुस्तक ‘बस्तर भूषण’ से प्रेरणा प्राप्त कर ‘दमोह दीपक’ जैसी कृतियां अवतरित हुईं। मुझे बस्तर वासियों से यह शिकायत रही है कि मेरी पुस्तक ‘बस्तर भूषण’ के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, जबकि विदेशियों ने बड़े चाव से मेरी पुस्तक पढ़ी और उसे काफी सराहा।’
आज छत्तीसगढ़ एक स्वतंत्र राज्य है और बस्तर इस राज्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आदिवासी अंचल है। केदारनाथ ठाकुर और बस्तर दोनों ही आज उपेक्षित हैं। ‘बस्तर भूषण’ ही क्यों हमें आज अपने किसी भी साहित्यकार या साहित्यिक कृति पर न कोई गर्व है और न ही उसे संरक्षित या संवर्धित करने की कोई भाव या चेष्टा है।
‘बस्तर भूषण’ के इस रचयिता के नाम पर आज बस्तर में ही ऐसा कुछ नहीं है जो भावी पीढ़ी को उनके अमूल्य अवदान से परिचित करवा सके।
(बाकी अगले हफ्ते)