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हिंदुस्तान में पिछले कुछ दिनों से सावरकर को लेकर एक बहस चल रही है। विनायक दामोदर सावरकर जिन्हें कुछ लोग वीर सावरकर भी कहते हैं और उन्हें वीर मानते हैं। दूसरी तरफ बहुत से दूसरे लोग हैं जिनका यह मानना है कि सावरकर अपनी जिंदगी के शुरू के हिस्से में तो स्वतंत्रता सेनानी रहे, लेकिन जैसे ही वे अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार करके अंडमान में काला पानी की सजा में भेजे गए उन्होंने तुरंत ही अंग्रेज सरकार से रहम की अपील करना शुरू कर दिया, और कुछ महीनों के भीतर उन्होंने ऐसी अर्जियां भेजना शुरू किया जो कि शायद कुल मिलकर पौन दर्जन तक पहुंचीं। इस बारे में अलग-अलग लेखों में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, इसलिए उन पूरी बातों को यहां दोहराने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि आज की बात केवल सावरकर पर नहीं लिखी जा रही बल्कि इस बात पर लिखी जा रही है कि लोगों की जिंदगी को एक साथ, एक मुश्त देखकर उन पर एक अकेला लेबल लगाना कई बार मुमकिन नहीं होता है। गांधी के लिए जरूर ऐसा हो सकता था कि उनके पूरे जीवन को एक साथ देखकर भी उन्हें महात्मा लिखा जाए, लेकिन सावरकर को यह सहूलियत हासिल नहीं थी। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया, अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम में शामिल रहे, लेकिन गिरफ्तारी के बाद जिस तरह उन्होंने लगातार माफी मांगी, लगातार रहम की अर्जी दायर की, और आखिर रहम मांगते हुए ही वे जेल से छूटे, और इतिहासकारों ने लिखा है कि उन्हें अंग्रेजों से हर महीने आर्थिक मदद भी मिली। अब ऐसे में जो लोग उनको वीर कहते हैं वह इतिहास के कुछ नाजुक पन्नों को कुरेद भी देते हैं जो उन्हें वीर साबित नहीं करते।
सावरकर का यह ताजा सिलसिला देश के सूचना आयुक्त उदय माहुरकर की सावरकर पर लिखी गई एक किताब के विमोचन के मौके पर शुरू हुआ जब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहां कि सावरकर ने रहम की अपील गांधीजी के कहे हुए लिखी थी। बहुत से इतिहासकारों ने उसके बाद लगातार यह लिखा कि जिस वक्त सावरकर ने रहम की अर्जियां भेजना शुरू कर दिया था, उस वक्त तो गांधी से सावरकर की मुलाकात भी नहीं हुई थी, गांधी हिंदुस्तान लौटे भी नहीं थे, वह दक्षिण अफ्रीका में ही थे, उस वक्त उनका भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से भी कोई लेना देना नहीं था, और सावरकर को तो वे जानते भी नहीं थे। लेकिन इतिहास लेखन जब वक्त की सहूलियत के हिसाब से होता है तो उसमें कई तरह की सुविधाजनक बातों को लिख दिया जाता है और कानों को मधुर लगने वाले तथ्य गढ़ दिए जाते हैं। राजनाथ सिंह ने यह बात उदय माहुरकर की किताब को पढक़र नहीं कही थी क्योंकि उस किताब में इस बारे में कुछ जिक्र नहीं है, उन्होंने सावरकर पर अलग से यह बात कही।
यह सोचने समझने की जरूरत है कि जब लोगों की जिंदगी के अलग-अलग पहलू सकारात्मक और नकारात्मक, अलग-अलग किस्मों के होते हैं, उनमें कहीं खूबियां होती हैं और कहीं खामियां होती हैं, तो उनकी महानता को तय करना थोड़ा मुश्किल होता है। नायक और खलनायक के बीच में घूमती हुई ऐसी जिंदगी कोई एक लेबल लगाने की सहूलियत नहीं देती, और ऐसा करना भी नहीं चाहिए। अब जैसे हिंदुस्तान के ताजा इतिहास को ही लें, तो कम से कम दो ऐसे बड़े पत्रकार हुए जो अखबारनवीसी में नामी-गिरामी थे, जिनके लिखे हुए की लोग तारीफ करते थे, और जिनके संपादन वाले अखबार या पत्रिका की भी तारीफ होती थी, लेकिन जब अपनी मातहत महिलाओं से बर्ताव की बात थी तो इसमें से एक संपादक ने अपनी एक मातहत कम उम्र लडक़ी के साथ जैसा सुलूक किया, उससे मामला अदालत तक पहुंचा, लंबा वक्त जेल में काटना पड़ा, और बाद में अदालत से उसे बरी किया गया। हिंदुस्तान में अदालत से बरी होने का मतलब बेकसूर हो जाना नहीं होता, बस यही साबित होता कि वहां पर पुलिस या जांच एजेंसी गुनाह साबित नहीं कर पाईं।
दूसरे संपादक के खिलाफ तो दर्जनभर या दर्जनों मातहत महिला पत्रकारों ने सेक्स शोषण की शिकायतें की हैं, और वह मामला अदालत में चल ही रहा है। अब किसी व्यक्ति की अच्छी अखबारनवीसी को उसके चरित्र के इस पहलू के साथ जोडक़र देखा जाए या जोडक़र न देखा जाए? यह सवाल बड़ा आसान नहीं है क्योंकि लोगों ने इतिहास में यह भी लिखा हुआ है कि हिटलर एक पेंटर था, और जिस तरह से उसने दसियों लाख लोगों का कत्ल किया, तो क्या उसकी बनाई किसी पेंटिंग को लेकर चित्रकला के पैमानों पर उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए, या उसकी कोई बात नहीं करनी चाहिए? क्या गांधी महात्मा थे इसलिए उनके सत्य के प्रयोगों की चर्चा नहीं होनी चाहिए? क्या नेहरू देश के एक महान नेता थे इसलिए एडविना माउंटबेटन के साथ उनके संबंधों की चर्चा नहीं होनी चाहिए? क्या अटल बिहारी वाजपेई भाजपा के एक बहुत बड़े नेता थे, और जनसंघ से भाजपा तक अपने वक्त के वह सबसे बड़े नेता रहे, तो क्या उनकी जिंदगी में आई महिला के बारे में कोई चर्चा नहीं होनी चाहिए? या क्या इस बात को छुपाया जाना चाहिए कि वह शराब पीते थे? या नेहरू के बारे में यह छुपाना चाहिए कि वह सिगरेट पीते थे?
हिंदुस्तान एक पाखंडी देश है यहां पर लोग अपने आदर्श के बारे में किसी ईमानदार मूल्यांकन को बर्दाश्त नहीं करते। वे जिसे महान व्यक्ति या युगपुरुष मानते हैं, उसके बारे में किसी खामी की चर्चा सुनना नहीं चाहते। लेकिन हाल के वर्षों में हिंदुस्तान में एक नया मिजाज सामने आया है कि जिन लोगों को लोग नापसंद करें, उनके इतिहास और चरित्र के बारे में झूठी बातें गढक़र उन्हें तरह-तरह से, खूब खर्च करके, और खरीदे गए लोगों से चारों तरफ फैलाया जाए। किसी एक देश में किसी फैंसी ड्रेस में गांधी बना हुआ कोई आदमी किसी विदेशी महिला के साथ डांस कर रहा है तो उसे एक चरित्रहीन महात्मा गांधी की तरह पेश करने में हजारों लोग जुटे रहते हैं। अपनी बहन को गले लगाए हुए नेहरु की तस्वीर को चारों तरफ फैलाकर उन्हें बदचलन साबित करने की कोशिश में लोग लगे रहते हैं। ऐसे लोग अपने किसी पसंदीदा के बारे में एक लाइन की भी नकारात्मक सच्चाई सुनना नहीं चाहते, उस पर भी खून-खराबे को तैयार हो जाते हैं। लेकिन जो नापसंद हैं उनके बारे में गढ़ी गई झूठी बातें भी फैलाने के लिए वे अपनी रातों की नींद हराम करते हैं।
झूठ के ऐसे सैलाब के बीच यह जरूरी रहता है कि इतिहास का सही इस्तेमाल हो, लोगों का सही मूल्यांकन हो, लोगों की खूबियों के साथ-साथ उनकी खामियों की चर्चा से भी परहेज न किया जाए, और किसी व्यक्ति को एक बिल्कुल ही बेदाग प्रतिमा की तरह पेश न किया जाए, क्योंकि गढ़ी गई प्रतिमा ही बेदाग हो सकती है, असल जिंदगी में तो इंसान पर कई किस्म के दाग लगे हो सकते हैं, जो कि कुदरत का एक हिस्सा हैं, कुदरत के दिए हुए बदन का एक हिस्सा, या कुदरत के दिए हुए मिजाज का एक हिस्सा।
सावरकर को लेकर जो लोग इतिहास के कड़वे हिस्से से परहेज कर रहे हैं, उनको लोकतंत्र की लचीली सीमाओं को समझना चाहिए जहां पर गांधी और नेहरू जैसे लोगों की कमियों और खामियों का भी जमकर विश्लेषण हुआ, और नेहरू के खिलाफ तो जितने कार्टून उस वक्त बनते थे, उनमें से कई मौकों पर वे कार्टूनिस्ट को फोन करके उसकी तारीफ भी करते थे। आज का वक्त ऐसा हो गया है कि नेहरू के मुकाबले बहुत ही कमजोर और खामियों से भरे हुए छोटे-छोटे से नेता उन पर बने हुए कार्टून पर लोगों को जेल डालने की तैयारी करते हैं। लोकतंत्र की परिपच्ता आने में हिंदुस्तान में हो सकता है कि आधी-एक सदी और लगे क्योंकि अब तो लोग यहां पर बर्दाश्त खोने लगे हैं, सच से परहेज करने लगे हैं, झूठ को गढऩे लगे हैं, और बदनीयत नफरत को फैलाने लगे हैं।
यह पूरा सिलसिला पूरी तरह अलोकतांत्रिक है और मानव सभ्यता के विकास की घड़ी के कांटों को वापिस ले जाने वाला भी है। सभ्य समाज और लोकतांत्रिक समाज को अपना बर्दाश्त बढ़ाना चाहिए, उसे लोगों के व्यक्तित्व और उनकी जिंदगी के पहलुओं को अलग-अलग करके देखना भी आना चाहिए और किसी का मूल्यांकन करते हुए इन सारे पहलुओं को साथ देखने की बर्दाश्त भी रहनी चाहिए। जो सभ्य समाज हैं वहां पर इतिहास लोगों को आसानी से शर्मिंदा नहीं करता। और जहां हिटलर जैसे इतिहास से शर्मिंदगी होना चाहिए तो वहां पूरा का पूरा देश, पूरी की पूरी जर्मन जाति शर्मिंदा होती है, और उससे मिले हुए सबक से वह सीखती है कि उसे क्या-क्या नहीं करना चाहिए। हिंदुस्तान में लोगों के कामकाज से लेकर माफीनामे तक को लेकर जो लोग मुंह चुराते हैं, वो इतिहास की गलतियों को भविष्य में दोहराने की गारंटी भी कर लेते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)