संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इस गैर जिम्मेदार लोकतंत्र में गरीब आदिवासी की जगह आर्यन खान के मुकाबले कहाँ?
26-Oct-2021 6:17 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इस गैर जिम्मेदार लोकतंत्र में गरीब आदिवासी की जगह आर्यन खान के मुकाबले कहाँ?

हिंदुस्तान का मीडिया पिछले 20-25 दिनों से शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान की गिरफ्तारी को लेकर उफना हुआ है। रात दिन टीवी पर उसी की तस्वीर दिखती है, और अधिकतर अखबारों के पहले पन्ने पर उसका कब्जा है। एक आलीशान जहाज पर चल रही पार्टी में नशा परोसा जा रहा था, और भारत के नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने उस पर छापा मारा तो बिना किसी नशे के आर्यन को भी उसी पार्टी में गिरफ्तार किया गया, और अब तक उसकी जमानत नहीं हो पाई है। बहुत से लोगों का यह मानना है कि क्योंकि शाहरुख खान ने एक-दो बरस पहले बिना नाम लिए देश के माहौल की कुछ आलोचना की थी, या देश में सांप्रदायिकता और असहिष्णुता के खिलाफ कुछ कहा था, इसलिए उनके बेटे को निशाना बनाकर यह कार्यवाही की जा रही है। जो भी हो अगर किसी ने नशा किया है, या उसके पास से नशा पकड़ाया है, या वह नशे के कारोबार से जुड़ा हुआ मिला है तो उस पर कार्यवाही तो होनी चाहिए। फिर शाहरुख खान का बेटा होने के नाते आर्यन को हिंदुस्तान के सबसे महंगे वकीलों की सहूलियत हासिल है और आज जिस वक्त हम यह लिख रहे हैं उस वक्त उसकी जमानत के लिए देश के एक सबसे महंगे वकील मुकुल रोहतगी के पहुंचने की खबर है। इसलिए यह उम्मीद की जानी चाहिए कि शाहरुख खान की तमाम दौलत की मदद से उनका बेटा हिंदुस्तानी अदालतों में इंसाफ पाने की अधिक संभावना रखता है बजाए किसी गरीब फटेहाल बेबस के।

लेकिन जितने टीवी चैनल या जितने अखबार सरसरी नजर में हमारे देखने में आते हैं, उनमें आर्यन की गिरफ्तारी की खबर के पीछे दबी-छुपी हुई भी एक खबर नहीं दिखती कि कर्नाटक में 12 बरस पहले एक आदिवासी छात्र को नक्सल साहित्य रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, और उसके बूढ़े पिता को भी। अदालत ने अभी उन्हें उनके खिलाफ कोई भी सबूत न होने की वजह से रिहा किया है, और जिंदगी के इतने बरस गंवाने के बाद वे अब खुली हवा में आए हैं। लेकिन खबरों में उनका इतना भी महत्व नहीं है कि एक आदिवासी के साथ हो गई ऐसी ज्यादती को ठीक से जगह मिल सके, या मामूली जगह भी मिल सके। इससे यह पता चलता है कि देश में लोकतंत्र का क्या हाल है। जब लोकतंत्र में एक गरीब आदिवासी छात्र और उसके बूढ़े पिता के साथ हो रही ऐसी सरकारी और पुलिसिया ज्यादती के खिलाफ किसी के चेहरे पर कोई शिकन ना पड़े, तो उसका मतलब देश में ऐसी सरकारों और ऐसी अदालतों का बढ़ जाना है जहां से किसी फिल्मी सितारे के बेटे को भी हो सकता है कि बेकसूर होने पर भी इंसाफ ना मिल सके। लोकतंत्र में सबसे कमजोर और सबसे गरीब को इंसाफ न मिलने का एक खतरा यह रहता है कि धीरे-धीरे बेइंसाफी उस लोकतंत्र का मिजाज बनने लगता है। देश में लोकतंत्र के पैमाने नीचे आने लगते हैं, और अदालतों को इंसाफ का ख्याल रखना जरूरी नहीं रह जाता है।

देशभर में केंद्र सरकार और अलग-अलग प्रदेशों की एजेंसियों ने जिस तरह के मामलों को अदालतों में बढ़ावा दिया है और जिस बड़े पैमाने पर ये मामले अदालतों से खारिज हो रहे हैं, उससे भी पता लगता है कि लोकतंत्र में इंसाफ की जरूरत को ही नकार दिया जा रहा है। ऐसे में हो यह रहा है कि हर जगह सत्ता पर बैठे लोग अपनी मर्जी से चुनिंदा लोगों को परेशान करने के लिए कानूनों का बेजा इस्तेमाल करते हैं और जितने समय तक किसी बेकसूर को सता सकते हैं, सताते चलते हैं, जमानत में जितनी देर कर सकते हैं उतनी देर करते हैं, और फिर आखिर में सरकारें अदालतों में मुंह की खाती हैं। लेकिन इंसाफ कहा जाने वाला यह सिलसिला इसी तरह चल रहा है और देश की सबसे बड़ी अदालत भी सब कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं कर पा रही हैं। अदालतों का हाल तो यह है कि सरकार खाली कुर्सियों के लिए जज नहीं बना रही, और देश का मुख्य न्यायाधीश सरकार की मौजूदगी में बतलाता है कि 26 फ़ीसदी अदालतों में महिला जजों के लिए शौचालय तक नहीं है, और 16 फीसदी अदालतों में तो किसी जज के लिए शौचालय नहीं है। सरकार का न्यायपालिका के लिए यह रुख बताता है कि न्यायपालिका को गैरजरूरी मान लिया गया है, और ऐसा इसलिए किया गया है कि जांच एजेंसियों के रास्ते मनमानी को और अधिक वक्त तक जारी रखा जा सके।

लेकिन सरकार का यह सिलसिला ऐसे लोकतंत्र में कमजोर नहीं पड़ सकता जहां पर कमजोर तबके के लिए बाकी लोगों के मन में कोई रहम न हो, कोई फिकर न हो। आज देश की जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों में सबसे अधिक संख्या में अल्पसंख्यक, दलित, और आदिवासी तबकों के लोग हैं, क्योंकि ये लोग वकीलों का खर्च नहीं उठा सकते, जांच एजेंसियों में जो भ्रष्ट लोग हैं उन्हें रिश्वत नहीं दे सकते, और अदालतों में जो भ्रष्ट लोग हैं उन्हें खरीद नहीं सकते, सबूतों को तोड़ मरोड़ नहीं सकते, और गवाहों को प्रभावित नहीं कर सकते। जिनके पास पैसा है वे इनमें से सब-कुछ कर सकते हैं। इसलिए आज हिंदुस्तान में इंसाफ पाने के लिए लोगों का संपन्न और सक्षम, ताकतवर और दबदबे वाला होना जरूरी है। जहां पहले कुछ घंटों से ही देश का मीडिया शाहरुख खान के बेटे के लिए बेचैन हो चला है, वहां पर अल्पसंख्यक तबके के आम और गरीब लोग 20-20 बरस जेल में कैद रहकर अदालत से बेकसूर साबित होकर बाहर निकल रहे हैं, तब तक उनके परिवार की जिंदगी खत्म हो चुकी रहती है, उनकी खुद की जिंदगी खत्म हो चुकी रहती है।

देश के नक्सल इलाकों में इसी तरह बरसों से बेकसूर आदिवासी कैद हैं, और सरकारें बार-बार यह कहती हैं कि उनके मामलों को तेजी से निपटाया जाएगा, या उन्हें छोड़ा जाएगा, लेकिन होता इनमें से कुछ नहीं है। कर्नाटक के जिस छात्र की हम बात कर रहे हैं उस कर्नाटक के बारे में अभी-अभी हमने लिखा है कि किस तरह वहां कांग्रेस, भाजपा, और जनता दल तीनों के मुख्यमंत्री रहे लेकिन यह बेकसूर आदिवासी छात्र अपने बाप सहित जेल में बंद रहा। इसलिए जेल में बंद रहा कि वह पत्रकारिता का छात्र था और उसके पास भगत सिंह की किताब सहित कुछ दूसरे लेख मिले जिनमें गांव की समस्या दूर न होने पर संसदीय चुनावों के बहिष्कार की बात लिखी हुई थी। देश का सबसे संपन्न तबका वोट डालने न जाकर वैसे भी चुनावों का बहिष्कार करता ही है, लेकिन अगर किसी ने जागरूकता के साथ इस मुद्दे को लिख रखा है, तो उसे नक्सल करार दे दिया गया। इस देश के लोगों को सोचना है कि क्या तमाम ताकत और असर हासिल रहने पर भी शाहरुख खान का बेटा अधिक हमदर्दी का हकदार है, और बरसों तक बूढ़े बाप के साथ जेल में बंद आदिवासी छात्र हमदर्दी का हकदार नहीं है? जिसकी कि कोई चर्चा भी नहीं हो रही है। यह इस देश की जनता का हाल है जिसके बीच बेबस लोगों की कोई बात नहीं होती है, और जिन्हें देश के सबसे महंगे वकील हासिल हैं, उनकी फिक्र में देश का मीडिया दुबला हुए जा रहा है।

हम कहीं भी शाहरुख खान के बेटे के जमानत के हक को कम नहीं आंक रहे हैं, लेकिन हम सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि इस देश में बेइंसाफी झेल रहे लोगों के बीच प्राथमिकता की लिस्ट में आर्यन खान दसियों लाख लोगों के बाद ही आ सकता है, फिर चाहे वह अखबार के पहले पन्ने पर एकाधिकार क्यों न पा रहा हो।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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