संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आज का यह संपादकीय अदम गोंडवी की कलम से
28-Oct-2021 6:05 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आज का यह संपादकीय अदम गोंडवी की कलम से

एक जाने-माने शायर अदम गोंडवी के गुजरने से भी उनकी मौत नहीं हुई। अपनी लिखी बातों को लेकर वे हिंदुस्तान के बहुत तकलीफजदा लोगों की आवाज बनकर हमेशा बने रहेंगे। उनकी गज़लें और उनके शेर किसी दूसरे शायर से अलग, पूरी तरह लोगों के दुख-दर्द से उपजे हैं और दो-दो लाइनों में तकलीफ को इस कदर साफ-साफ बयां करना हमारे लिए भी आसान नहीं है। कमोबेश इसी किस्म की बातें हम आए दिन इस कॉलम में लिखते हैं और आज हमें यह लग रहा है कि हम एक दिन में इतनी जगह में इतनी बातें और किस तरह कह सकते हैं, बजाय अदम गोंडवी को यह जगह दे देने के। हम उनकी बातों से पूरी तरह सहमत हैं और जुड़े हुए हैं, इसलिए आज का संपादकीय उन्हीं का लिखा हुआ है।

सौ में सत्तर आदमी, फिलहाल जब नाशाद है
दिल पे रखकर हाथ कहिये देश क्या आजाद है।
कोठियों से मुल्क के मेयार को मत आंकिये
असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है।
सत्ताधारी लड़ पड़े है आज कुत्तों की तरह
सूखी रोटी देखकर हम मुफ्लिसों के हाथ में!
जो मिटा पाया न अब तक भूख के अवसाद को
दफन कर दो आज उस मफ्लूज पूंजीवाद को।
बूढ़ा बरगद साक्षी है गांव की चौपाल पर
रमसुदी की झोपड़ी भी ढह गई चौपाल में।
जिस शहर के मुन्तजिम अंधे हों जलवामाह के
उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है।
जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में
रोशनी वो गांव तक पहुंचेगी कितने साल में।
——
आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
——
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।।
भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।
बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।
——
ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
जि़न्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया
——
ज़ुल्फ़-अंगड़ाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी
इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब
——
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
ये वन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे
——
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है
लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है
——
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे
——
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को
——
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है
रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है
——
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ्ऩ है जो बात, अब उस बात को मत छेडि़ए
गऱ ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेडि़ए
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेडिय़े
छेडिय़े इक जंग, मिल-जुल कर गऱीबी के खिलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेडि़ए
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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