विचार / लेख
-अशोक पांडे
छोकरे टाइप लोगों की दोस्ती को गधे की सवारी करना बताया गया है। पीढिय़ों से प्रचलित मुहावरों में सीख दी जाती है कि गधे को गुलकंद, पूड़ी-हलवा, जाफरान और मीठे चावल जैसी चीजें खिलाने से परहेज किया जाना चाहिए। उसे सुसज्जित बाजारों, अंगूरी बगीचों और मेलों में ले जाने की भी मनाही है। कुत्ते के दांत की तरह न उसका मांस किसी काम का होता है न चाम। कहा यह भी गया है कि गधे को खिलाए का पुण्य लगता है न पाप। यानी सफल जीवन के लिए गधों से दूर रहना पहली और अनिवार्य शर्त है।
अकबरनामा बताता है कि शहंशाह अकबर को जंगली गधों का शिकार करने में मजा आता था। एक दिन गधों का शिकार करते-करते वह रास्ता भटक गया और अपनी सहायकों से बिछड़ गया। कुछ घंटों बाद गर्मी और भूख-प्यास से वह नीमबेहोश हो गया और जब उसके दरबारियों ने उसे खोजा वह बेखयाली में आंय-बांय बक रहा था। अबू फज़़ल बताते हैं कि बाद में अकबर को अहसास हुआ कि वह गधों का शिकार करने के लिए नहीं, इंसानियत के लिए बड़े काम करने के लिए बादशाह बना है। यकीन मानिए गधे न होते तो न अकबर का दीने-इलाही होता न के। आसिफ मुगल-ए-आजम बना पाते।
इस बरस मार्च के महीने में आई लंदन की ब्रूक हॉस्पिटल ऑफ एनीमल्स नाम की अंतरराष्ट्रीय संस्था ने अपनी एक रपट में चिंता जाहिर करते हुए सूचित किया कि पिछले सात सालों में भारत में गधों की तादाद में 61 प्रतिशत कमी आई है। चीन में गधों की खाल की मांग का बढऩा इसका मुख्य कारण बताया गया है। एक दूसरा दिलचस्प कारण भी है। हाल के सालों में आंध्रप्रदेश में लोगों ने चोरी-छिपे बड़े पैमाने पर गधे का मांस खाना शुरू किया है। किसी ने उन्हें बता दिया है कि उसे खाने से मर्दानगी में फायदा होता है। मर्दानगी में फायदा होना बताया जाय तो आदमी चौक के बीच नंगा होकर कुत्ते की टट्टी तक खा सकता है।
मैंने जीवन भर गधों से मोहब्बत की है। जऱा भी अफ़सोस नहीं किया। भरपूर संभावना है कि उनकी संगत में रहते-रहते मैं खुद उन्हीं के जैसा बन गया हूँ। हो तो यह भी सकता है कि मैं पैदा ही गधा हुआ होऊं। पिताजी मुझे अक्सर गधे का बच्चा कहकर यूं ही तो नहीं लताड़ा करते होंगे!
बात यह है कि गधों के बारे में सारा दुष्प्रचार इसलिए किया गया कि दुनिया उनसे जलती है। उनके सीधेपन को कमजोरी और उनकी कर्मठता तो अज्ञान बताने वाले समाज को सबसे कीमती सबक देने वाले मुल्ला नसरुद्दीन यूं ही नहीं अपने गधे के शैदाई थे। बताते हैं मुल्ला के गधे के पुरखे यूपी के बाराबंकी से ताल्लुक रखते थे। वही बाराबंकी जहाँ के बैरिस्टर सैयद करामत अली शाह की कोठी पर ईंटें ढोते-ढोते कृष्ण चंदर का तारीखी गधा पढ़ा-लिखा पीर-संन्यासी बन गया था। सैयद साहब और गधा मिलकर अखबार बांचते और दिलीप कुमार-निम्मी की नई पिक्चर के बारे में घंटों बहस किया करते। बैरिस्टर साहब अक्सर कहते- ‘अफ़सोस तुम गधे हो। अगर आदमी के बच्चे होते तो मैं तुम्हें अपना बेटा बना लेता!’
लन्दन वाली रिपोर्ट ने मुझे चिंताकुल बना दिया है। गधे नहीं रहेंगे तो नई दोस्तियां कैसे बना सकूँगा। गधे की पीठ खुजाने को गधा ही चाहिए होता है। इसलिए ऐ नेक गधो, मिलजुल कर रहो। मुझे तुमसे मोहब्बत है। मेरे साथ रहना। सैयद करामत अली शाह की तरह तुम्हें बेटा बनाने का लालच तो नहीं दे सकूंगा, हाँ तुम्हारा नाम जोडक़र अपने बैंक अकाउंट को जॉइंट बनाने का वादा करता हूँ। फिलहाल उसमें पैसे नहीं हैं। नोट आएँगे तो मिलकर मौज काटेंगे।
पक्का। प्रॉमिस!