संपादकीय
जिस तरह कांग्रेस पार्टी अपने किसी न किसी नेता के बयान या बर्ताव को लेकर रोज परेशानी में फंस रही है, उसी तरह हिंदुस्तान की कोई ना कोई बड़ी अदालत रोजाना अपने अटपटे फैसलों की वजह से लोगों को हैरान कर रही है, और ऐसा लगता है कि इंसाफ का मजाक उड़ाया जा रहा है। अभी-अभी हमने बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच की एक महिला जज के पॉक्सो कानून के तहत दिए गए एक फैसले के सुप्रीम कोर्ट से खारिज होने और सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणियों को लेकर इसी जगह पर लिखा था। अब उसी पॉक्सो कानून के तहत एक बच्चे के यौन शोषण को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने एक फैसले में लिखा है कि नाबालिग के साथ ओरल सेक्स या मुखमैथुन ज्यादा संगीन यौन दुव्र्यवहार नहीं है और यह एक कम गंभीर अपराध है। जस्टिस अनिल कुमार ओझा की सिंगल जज बेंच ने निचली अदालत द्वारा बच्चे के यौन शोषण के एक मामले में 10 बरस की कैद दे दी थी जिसे घटाकर हाईकोर्ट ने 7 बरस का कर दिया है और फैसले में लिखा है कि लिंग को मुंह में डालना बहुत गंभीर यौन अपराध या यौन अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। इस मामले में एक आदमी 10 बरस के एक लडक़े को 20 रुपये का लालच देकर ले गया था और उसके साथ उसने मुख मैथुन किया और निचली अदालत ने उसे 10 साल की कैद सुनाई थी। (कुछ ऐसी ही सजा महाराष्ट्र की एक जिला अदालत ने एक बच्चे के यौन शोषण के मामले में एक आदमी को सुनाई थी जिसे वहां की महिला हाई कोर्ट जज ने खारिज कर दिया था।) अब इलाहाबाद हाईकोर्ट के अकेले जज की बेंच ने लिखा है कि ओरल सेक्स गंभीर पेनिट्रेटिव सेक्सुअल एसॉल्ट के तहत नहीं आता। फैसले की इस बात को लेकर सोशल मीडिया पर सामाजिक कार्यकर्ता जमकर आलोचना कर रहे हैं। बच्चों के अधिकारों के लिए लडऩे वाले लोग भी इस बात को लेकर हैरान हैं कि बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए बनाए गए इस कानून की कैसी-कैसी अजीब व्याख्या हाई कोर्ट के जज कर रहे हैं।
क्योंकि मुंबई हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की महिला जज ने जो फैसला दिया था उसमें भी पॉक्सो कानून की तकनीकी बारीकियों का गलत मतलब निकाला गया था और गुनहगार को रियायत मिल गई थी। उसे सुप्रीम कोर्ट ने सुधारा और यह कहा कि किसी भी कानून का बेजा इस्तेमाल मुजरिम को बचाने के लिए नहीं हो सकता। अब इस दूसरे हाईकोर्ट के इस फैसले को लेकर बात फिर सुप्रीम कोर्ट तक जाएगी। पहली नजर में हमारा यह मानना है कि किसी बच्चे के साथ किसी बालिग द्वारा मुखमैथुन करने को गंभीर अपराध ना मानना अगर इस कानून का प्रावधान है तो फिर इस प्रावधान को बदल देने की जरूरत है। क्या यह कानून इतना खराब ड्राफ्ट किया गया है कि एक के बाद दूसरे हाई कोर्ट जज इसका गलत मतलब निकाल कर मुजरिम को रियायत देने का काम कर रहे हैं? अगर ऐसा है तो सुप्रीम कोर्ट को इस कानून की सभी धाराओं पर खुलासा करना चाहिए ताकि बाल यौन शोषण के मुजरिम किसी तरह की रियायत ना पा सके।
अभी कुछ ही दिन पहले अंतरराष्ट्रीय पुलिस संगठन इंटरपोल से मिली जानकारी के आधार पर सीबीआई ने देश भर में दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया जो कि बच्चों से सेक्स के वीडियो पोस्ट कर रहे थे। यह अंतरराष्ट्रीय संगठन दुनिया भर के देशों में इस तरह के काम पर निगरानी रखता है और वहां की स्थानीय पुलिस को खबर करता है ताकि इस गंभीर अपराध पर आनन-फानन कार्रवाई हो सके। जितनी बड़ी संख्या में हिंदुस्तान के लोग गिरफ्तार किए गए हैं और बच्चों के तरह-तरह के यौन शोषण में बड़ी संख्या में लोग लगे हुए हैं। वैसे भी जानकार लोगों का यह तजुर्बा रहा है कि घर-परिवार में रिश्तेदार और परिचित लोगों द्वारा बच्चों का यौन शोषण बड़ी आम बात है, और खुद मां-बाप अपने बच्चों द्वारा की गई शिकायत पर भरोसा नहीं करते हैं, नतीजा यह होता है कि ऐसे मुजरिम आगे भी अपना हिंसक हमला जारी रखते हैं, और ऐसे बच्चे आगे भी दूसरे लोगों के हाथों यौन शोषण का शिकार होते चलते हैं। इसलिए जब कभी ऐसा कोई पुख्ता मामला अदालत तक सबूतों के साथ पहुंच पाता है, तो उसमें कानून कहीं कमजोर नहीं पडऩा चाहिए। आज यह बात बच्चों को यौन शोषण से बचाने वाले कानून का मखौल उड़ाने की तरह है कि 10 बरस के बच्चे के साथ किया गया मुखमैथुन और उसके मुंह में वीर्य उड़ेल दिया जाना कोई गंभीर अपराध नहीं है। हाई कोर्ट जज ने 10 बरस की सजा को घटाकर भी सजा को 7 बरस तो कायम रखा है, लेकिन जिला अदालत ने जो सजा दी थी उसे घटाकर हाईकोर्ट ने एक खराब मिसाल पेश की है। अगर हाईकोर्ट के हाथ इस कानून की किसी तकनीकी बातों से बंधे हुए हैं, तो हम उस पर कुछ नहीं कहते, लेकिन हाई कोर्ट जज को कानून के ऐसे किसी कमजोर प्रावधान के खिलाफ फैसले में लिखना चाहिए। बच्चों को यौन शोषण से बचाने वाले कानून में ऐसे छेद नहीं रहने चाहिए कि जिनसे मुजरिम या तो पूरी तरह बचने के लिए, या कि कड़ी सजा से बचने के लिए उनका बेजा इस्तेमाल कर सके।
भारत में एक तो बच्चों के यौन शोषण के मामले सामने नहीं आ पाते हैं। किसी तरह कोई परिवार हिम्मत भी जुटाते हैं तो पुलिस और समाज के दूसरे लोग हौसला पस्त करते हैं कि क्यों इतनी बदनामी का काम कर रहे हैं। ऐसे में बच्चों का यौन शोषण करने वाले आदतन मुजरिम खुले घूमते हैं और चारों तरफ ऐसा जुर्म करते हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि पॉक्सो कानून में अगर ऐसी कमजोरियां रह गई हैं तो उन्हें खत्म करे। नागपुर हाई कोर्ट बेंच के फैसले में तो यह मान लिया गया था कि जब तक चमड़ी से चमड़ी नहीं छूटेगी तब तक कपड़ों के ऊपर से किया गया कोई यौन शोषण भी पॉक्सो कानून के तहत किसी सजा के लायक नहीं बनता। यह सिलसिला खत्म करने की जरूरत है और इस कानून के प्रावधान बड़े खुलकर बच्चों को बचाने वाले रहने चाहिए। संसद की कोई कमेटी भी अगर बच्चों के मामलों को देखती है तो इस कानून की कमजोरियों की जितनी मिसालें हैं उन्हें इकठ्ठा करके इस कमेटी को विचार करना चाहिए कि क्या इसे फिर से लिखा जाए?
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