संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कानून तो है, लेकिन क्या उसके इस्तेमाल का माहौल भी है?
27-Nov-2021 5:56 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कानून तो है, लेकिन क्या उसके इस्तेमाल का माहौल भी है?

कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु से एक बड़ी खूनी खबर आई है, जितनी भयानक खबर सुनने और मानने को दिल नहीं करता है। लेकिन हकीकत किसी अपराध कथा से भी अधिक डरावनी होती है, और अपराध कथा तो किसी न किसी हकीकत से उपजी होती है, उसमें कल्पना कम होती है, हकीकत ज्यादा होती है। कर्नाटक में एक कंपनी में काम करने वाला एक सुरक्षा मैनेजर पिछले 2 साल से अपनी 17 साल की बेटी से बलात्कार करते आ रहा था। अब जांच पड़ताल में पुलिस ने पता लगाया है कि लडक़ी की मां को यह मालूम था कि बाप अपनी बेटी का यौन शोषण कर रहा है। उसने अपने पति से बात भी की थी, लेकिन कोशिश बेकार गई, और मामला संबंधों को तनावपूर्ण बना गया। यह पूरा मामला इस तरह सामने आया कि इस लडक़ी ने थककर स्कूल में अपनी क्लास के एक दोस्त से इस जुल्म के बारे में बताया और फिर उस सहपाठी ने क्लास के तीन और दोस्तों से इसकी चर्चा की, और इन चारों ने मिलकर अपनी सहपाठी को इस तकलीफ से आजादी दिलाना तय किया। वे चारों रात उस लडक़ी के घर पहुंचे, दरवाजा खुलवाया और उसके बाप को कुल्हाड़ी से काटकर चले गए। जब लहूलुहान लाश मिली और आसपास के कैमरों से इन लडक़ों के घर आने और निकलने के सुबूत मिले, तो पुलिस ने इन सबको पकड़ा और जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के सामने पेश करने के बाद उन्हें रिमांड होम भेज दिया गया है।

इस मामले के अलग-अलग के कई पहलू हैं. पहली बात तो यह कि अपनी सहपाठी एक लडक़ी के लिए सहपाठी लडक़ों के मन में इतनी हमदर्दी पैदा होना और फिर उसका इतना हिंसक भी हो जाना कि कत्ल करने की सजा के बारे में कुछ न कुछ अंदाज रहते हुए भी इस तरह का जुर्म करना। यह तो एक पहलू हुआ, दूसरा एक पहलू यह है कि दो बेटियों वाली एक माँ का अपनी एक बेटी से उसके बाप द्वारा लगातार बलात्कार देखते हुए भी पर्याप्त विरोध नहीं करना, उसे छोडक़र नहीं निकलना। पुलिस की दी हुई जानकारी बताती है कि यह मां कपड़ा बनाने वाली एक मजदूर है, और दोनों बेटियां पढ़ रही हैं। अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि बलात्कारी पति के खिलाफ इस महिला ने कुछ और कड़ा कदम क्यों नहीं उठाया? अपनी बच्चियों को बचाने के लिए वह घर छोडक़र निकल क्यों नहीं गई? इस बारे में जज बनकर नतीजा निकालना तो बड़ा आसान है लेकिन उस महिला की जगह रहकर देखें तो पति को खोने के साथ-साथ उसे दोनों बच्चियों की पढ़ाई-लिखाई बंद हो जाने और तीनों की भारी सामाजिक बदनामी का खतरा भी दिखा होगा जो कि झेलने में आसान नहीं है। उसने यह भी देखा होगा कि किस तरह देश भर में जगह-जगह बलात्कार की शिकार लडक़ी या महिला से पुलिस वाले और बलात्कार करने लगते हैं, और रिश्वत वसूलने लगते हैं, किस तरह उन्हें अदालतों में सामाजिक और मानसिक प्रताडऩा झेलनी पड़ती है। जाने ऐसी कितनी ही बातें उस महिला के दिमाग में रही होंगी जो वह खुद अपने पति को न मार पाई न अपनी बच्चियों के साथ उसे छोडक़र निकल पाई।

एक महिला के लिए ऐसा कोई भी फैसला आसान नहीं होता है और एक कम कमाने वाली महिला की बहुत ही सीमित ताकत के साथ ऐसा कोई कड़ा फैसला लेना भी मुमकिन नहीं होता। इसलिए उस महिला ने क्या-क्या नहीं किया ऐसा सोचने के बजाए हम यह सोचना बेहतर समझेंगे कि उस महिला के लिए क्या-क्या कर पाना मुमकिन नहीं हुआ। आज भी कानून की बनाई हुई सारी व्यवस्था के बावजूद कानूनी मदद के लिए हौसला दिखाने वाली महिला का जितने किस्म का शोषण और बढ़ जाता है, वह अच्छी-खासी हिम्मती महिला का हौसला भी तोडऩे लायक रहता है। एक महिला किस वजह से अपने साथ हुए बलात्कार की रिपोर्ट तुरंत नहीं लिखा पाती है, किस तरह वह अपने यौन शोषण का तुरंत विरोध नहीं कर पाती है, इस बारे में सोचने के लिए एक महिला की नजर से देखना जरूरी होता है। एक आदमी की नजर से देखकर तो यही लग सकता है कि एक बड़ी पत्रिका के चर्चित संपादक से जब उसकी मातहत कर्मचारी को यौन शोषण की शिकायत थी, तो वह उसके मातहत कई घंटे और काम क्यों करती रही, और तुरंत पुलिस तक क्यों नहीं पहुंची। एक महिला का नजरिया, उसकी बेबसी और मजबूरी, और उसकी आशंकाएं समझ पाना आसान नहीं होता है। इसलिए हम कर्नाटक के इस मामले में बिना अधिक जानकारी के इस नतीजे पर कूदना नहीं चाहते कि बलात्कार देखती इस महिला को अपने पति के खिलाफ रिपोर्ट लिखाकर अपनी बच्ची को बचाना था, या पति को छोडक़र घर से निकल जाना था। जिंदगी में लोगों को कई किस्म के समझौते करने पड़ते हैं और इन समझौतों को करते हुए किन्हीं कड़े पैमानों पर खरा उतर पाना बड़ा आसान नहीं रहता है।

कुल मिलाकर बात यह बनती है कि हिंदुस्तान में कानून की व्यवस्था और समाज की व्यवस्था इतनी मजबूत नहीं है कि कोई 17 बरस की लडक़ी आसानी से अपने पिता के खिलाफ शिकायत का हौसला जुटा सके। व्यवस्था ऐसी भी नहीं है कि एक महिला शिकायत करने के बाद जिंदा रहने का कोई इंतजाम पा सके। इसलिए समाज के लोगों को और सरकार को यह सोचना चाहिए कि जुल्म के ऐसे लंबे दौर के बाद, दो बरस तक चलने वाले बलात्कार के बाद भी अगर पुलिस तक जाने का हौसला नहीं जुट पा रहा है तो इस हौसले का इंतजाम कैसे किया जाए? महज कानून से यह इंतजाम नहीं हो सकता क्योंकि कानून के इस्तेमाल के लिए एक जमीन लगती है, एक समाज लगता है, अगर यह जमीन ही कानून के इस्तेमाल को हिकारत की नजर से देखे, और समाज ऐसे कानून के इस्तेमाल पर सजा देने लगे, तो जाहिर है कि लोग ऐसे कानून का कोई इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे। आज भी हमारा अंदाज यह है कि समाज के लोग अपवाद के रूप में ही शिकायत का हौसला जुटा पाते हैं, अधिकतर लोग तो बिना हौसले के ही जुल्म झेलते रह जाते हैं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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