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जय भीम : पुलिस हिरासत में कितनी मौतें और इन मौतों पर क्या कहता है क़ानून?
28-Nov-2021 1:01 PM
जय भीम : पुलिस हिरासत में कितनी मौतें और इन मौतों पर क्या कहता है क़ानून?

फिल्म जय भीम का एक दृश्यइमेज स्रोत,@2D_ENTPVTLTD

-अनघा पाठक

गहने चोरी करने के एक मामले के अभियुक्त की पुलिस हिरासत में पिटाई होने से मौत हो जाती है. इसके बाद पुलिस इस मौत को छिपाने की कोशिश करती है और फिर न्याय हासिल करने की एक लंबी लड़ाई शुरू होती है.

कुछ दिन पहले ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ हुई फिल्म इसी कहानी पर आधारित है. और रिलीज़ के बाद से ये फिल्म हर जगह धूम मचा रही है.

फ़िल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है. बीते साल अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद आम लोग भी "पुलिस बर्बरता" के बारे में जानने समझने लगे हैं.

पुलिस के अत्यधिक बल प्रयोग से काले शख़्स जार्ज फ्लॉयड की मौत हो गई थी. पुलिस हिरासत के दौरान उत्पीड़न के तमाम मामले सामने आते रहे हैं.

लेकिन जिस तरह इस फिल्म में पुलिस हिरासत के दौरान अभियुक्त की मौत को दर्शाया गया है, क्या इसी अंदाज़ में पुलिस हिरासत में अभियुक्त की मौत हो सकती है?

अगर ऐसा है तो पिछले कुछ सालों ऐसी कितनी मौतें हुई हैं? हिरासत में मौत होने का मतलब क्या है और ऐसे मामलों में क़ानून क्या कहता है, ऐसी मौतों पर पुलिस प्रशासन का रवैया क्या होता है?

इन्हीं सवालों की पड़ताल करती है ये रिपोर्ट.

सरल शब्दों में कहें तो पुलिस हिरासत में किसी अभियुक्त की मौत को 'हिरासत में मौत' का मामला माना जाता है. चाहे वह अभियुक्त रिमांड पर हो या नहीं हो, उसे हिरासत में लिया गया हो या केवल पूछताछ के लिए बुलाया गया हो.

उस पर कोई मामला अदालत में लंबित हो या वह सुनवाई की प्रतीक्षा कर रहा हो, पुलिस की हिरासत के दौरान अभियुक्त की मौत हो तो उसे 'हिरासत में मौत' माना जाता है.

इसमें पुलिस हिरासत के दौरान आत्महत्या, बीमारी के कारण हुई मौत, हिरासत में लिए जाने के दौरान घायल होने एवं इलाज के दौरान मौत या अपराध कबूल करवाने के लिए पूछताछ के दौरान पिटाई से हुई मौत शामिल है.

पुलिस हिरासत में उत्पीड़न और मौत के मामलों का ज़िक्र भारत के मुख्य न्यायाधीश एन. वी रमन्ना ने भी किया है.

अगस्त, 2021 में उन्होंने एक संबोधन में कहा, "संवैधानिक रक्षा कवच के बावजूद अभी भी पुलिस हिरासत में शोषण, उत्पीड़न और मौत होती है. इसके चलते पुलिस स्टेशनों में ही मानवाधिकार उल्लंघन की आशंका बढ़ जाती है."

उन्होंने यह भी कहा, "पुलिस जब किसी को हिरासत में लेती है तो उस व्यक्ति को तत्काल क़ानूनी मदद नहीं मिलती है. गिरफ़्तारी के बाद पहले घंटे में ही अभियुक्त को लगने लगता है कि आगे क्या होगा?"

सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में डीके बसु बनाम बंगाल और अशोक जौहरी बनाम उत्तर प्रदेश मामले में फ़ैसला सुनाते हुए कहा था कि हिरासत में मौत या पुलिस की बर्बरता "क़ानून शासित सरकारों में सबसे ख़राब अपराध" हैं.

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद हिरासत में हुई मौतों का विवरण दर्ज करने के साथ-साथ संबंधित लोगों को इसकी जानकारी देना अनिवार्य कर दिया गया.

शीर्ष अदालत ने मौत के इन मामले में नियमों का पालन करने का निर्देश दिया.

पुलिस की बर्बरता को लेकर एक गैर सरकारी संगठन ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र भी लिखा था. और पुलिस की बर्बरता और पुलिस हिरासत में हुई मौतों की गंभीरता को देखते हुए शीर्ष अदालत ने भी स्वत: संज्ञान लिया था.

तब सर्वोच्च अदालत ने राज्यों को नोटिस भेजकर पूछा था कि इस मामले में राज्य सरकारें क्या कर रही हैं?

इस फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी व्यक्ति की गिरफ़्तारी के दौरान पुलिस के व्यवहार को लेकर नियम निर्धारित किए थे.

ये नियम सिर्फ पुलिस पर ही नहीं बल्कि रेलवे, सीआरपीएफ, राजस्व विभाग सहित उन सभी सुरक्षा एजेंसियों पर लागू होते हैं जो अभियुक्तों को पूछताछ के लिए गिरफ़्तार कर सकती हैं.

क्या क्या नियम हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 'बिना वारंट के किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करने और चोरी के मामलों में पूछताछ के दौरान उत्पीड़न के कई मामले देखने को मिले हैं. अक्सर इसी पिटाई से अभियुक्त की मौत हो जाती है. यदि किसी व्यक्ति की पुलिस हिरासत में मृत्यु हो जाती है, तो ऐसी मौतों को छिपाया जाता है या पुलिस हिरासत से रिहा होने के बाद व्यक्ति की मृत्यु को दिखाया जाता है.'

'यदि पीड़ित परिवार शिकायत दर्ज कराने की कोशिश करता है तो पुलिस शिकायत दर्ज नहीं करती क्योंकि पुलिस एक - दूसरे का समर्थन करती हैं. एफ़आईआर तक दर्ज नहीं होती है.'

'अगर मामला अदालत में पहुंच भी जाता है, तो भी पुलिस के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं होता क्योंकि अपराध पुलिस हिरासत में हुआ है. ऐसे में गवाह या तो पुलिसकर्मी हैं या फिर लॉकअप में बंद अन्य अभियुक्त.'

'पुलिस एक-दूसरे के ख़िलाफ़ गवाही नहीं देती और अभियुक्त डर के मारे मुंह नहीं खोलते. इसलिए अक्सर इस अपराध को करने वाली पुलिस बरी हो जाती है.'

1. अभियुक्त को गिरफ़्तार करने गए पुलिसकर्मी वर्दी पर अपना बैज, नाम का टैग और पहचान ठीक से लगाकर जाएं ताकि यह स्पष्ट रूप से नज़र आए. एक रजिस्टर में स्पष्ट रूप से उल्लेख होना चाहिए कि कौन अधिकारी या पुलिसकर्मी अभियुक्त से पूछताछ करेंगे.

2. अभियुक्त की गिरफ़्तारी के बाद, एक मेमो तैयार होना चाहिए. यह अभियुक्त के साथ-साथ अभियुक्त के परिवार के किसी सदस्य या किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए. मेमो में गिरफ़्तारी की तारीख और समय का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए.

3. अभियुक्त की हिरासत में गिरफ़्तारी के बाद अभियुक्त को अपने परिवार के सदस्य, मित्र या किसी अन्य शुभचिंतक को जल्द से जल्द अपने बारे में जानकारी देने का अधिकार है.

4. यदि अभियुक्त को किसी दूसरे शहर में गिरफ़्तार किया गया है, तो आठ से दस घंटे के भीतर परिवार को गिरफ़्तारी की सूचना देना अनिवार्य है.

5. गिरफ़्तारी के समय अभियुक्त को उसके अधिकारों की जानकारी दी जानी चाहिए.

6. गिरफ़्तार अभियुक्त के जिन रिश्तेदारों या दोस्तों को गिरफ़्तारी की जानकारी दी गई है और जिस अधिकारी की हिरासत में अभियुक्त है, दोनों के नाम थाने की डायरी में दर्ज होने चाहिए.

7. अभियुक्त के अनुरोध पर गिरफ़्तारी के समय उसके शरीर पर सभी चोटों की जांच की जानी चाहिए और उन्हें दर्ज किया जाना चाहिए. इस तरह के निरीक्षण के रिकॉर्ड पर अभियुक्त और गिरफ़्तार करने वाले अधिकारी दोनों के हस्ताक्षर होने चाहिए और एक प्रति अभियुक्त को मिलनी चाहिए.

8. हिरासत के बाद प्रत्येक 48 घंटे पर अभियुक्त की मेडिकल जांच होनी चाहिए. इस जांच की रिपोर्ट के साथ-साथ अन्य सभी ज्ञापनों को मजिस्ट्रेट के रिकॉर्ड के लिए भेजा जाना चाहिए.

9. पूछताछ के दौरान समय-समय पर अभियुक्त को अपने वकील से मिलने देना चाहिए.

इन नियमों का पालन नहीं करने वाले पुलिस अधिकारियों एवं पुलिसकर्मियों को विभाग के भीतर ही दंडित करने का प्रावधान है, साथ ही न्यायालय की अवमानना के लिए भी दंडित किया जा सकता है.

शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि अगर किसी व्यक्ति की पुलिस हिरासत में मौत हो जाती है तो ऐसे व्यक्ति के परिवार को मुआवजा दिया जा सकता है.

अपराध संहिता अपराधिक मामलों पर मुक़दमा चलाने के बारे में नियम और निर्देश प्रदान करती है. इसमें 2005 में संशोधन किया गया है और नए नियम जोड़े गए हैं.

पुलिस हिरासत में किसी की मौत हो जाए तो तत्काल प्राथमिकी दर्ज की जाए. साथ ही, सीआरपीसी की धारा 176 के तहत, मजिस्ट्रेट को हिरासत में हुई मौत पर पुलिस जांच से अलग एक स्वतंत्र जांच अनिवार्य तौर पर करानी है.

मृत्यु के 24 घंटे के अंदर 'जांच मजिस्ट्रेट' को पोस्टमार्टम के लिए शव को जिला सर्जन के पास भेजना चाहिए.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक मृतक के पोस्टमॉर्टम का वीडियो भी बनाया जाना चाहिए.

पुलिस हिरासत में कितने लोगों की मौत?
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) भारत में विभिन्न तरह के अपराधों से संबंधित आंकड़े जारी करता है.

इसकी रिपोर्ट के मुताबिक हिरासत में सभी मौतें पुलिस की पिटाई या यातना के कारण नहीं होती हैं, कुछ मौतें बीमारी या अन्य कारणों से होती हैं.

बीबीसी ने बीते दस साल के एनसीआरबी के आंकड़ों का अध्ययन किया है. इसके जो आंकड़े सामने आए वह इस तरह से हैं -

- 2011 में पुलिस हिरासत में कुल 123 लोगों की मौत हुई थी. इनमें से 29 की मौत रिमांड (अदालत द्वारा अभियुक्त को दी गई पुलिस हिरासत) में हुई, जबकि 19 की मौत अदालत परिसर में या ले जाते समय हुई.

- बिना रिमांड में मरने वालों की संख्या 75 थी, जिसमें सबसे ज़्यादा 32 मौतें महाराष्ट्र में हुई थीं.

- इन मामलों में नौ लोगों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाख़िल की गई थी लेकिन किसी को दोषी नहीं ठहराया गया था.

- 2012 में कुल 133 लोगों की मौत हुई थी. रिमांड में 21, गैर-रिमांड में 97 (अधिकांश महाराष्ट्र में - 34) और 15 की मौत अदालत परिसर में लाने- ले जाने के दौरान हुई.

- इस साल एक पुलिसकर्मी के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाख़िल की गई थी और उसे दोषी ठहराया गया था.

- 2013 में, गैर-रिमांड श्रेणी में महाराष्ट्र में सबसे अधिक 34 मौतें हुईं. इस साल कोई चार्जशीट दाख़िल नहीं की गई है और न ही किसी पुलिसकर्मी को दोषी ठहराया गया है.

- 2014 में पुलिस हिरासत में 93 लोगों की मौत हुई थी. इस साल 11 पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाख़िल की गई है लेकिन किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया है.

- 2015 में, पुलिस हिरासत में 97 लोगों की मौत हो गई, जिसमें 24 पुलिसकर्मी आरोप पाए गए लेकिन किसी को दोषी नहीं ठहराया गया.

- साल 2016 के आंकड़े एनआरसीबी साइट पर उपलब्ध नहीं हैं.

मानवाधिकार उल्लंघन के मामले
2017 से अलग-अलग आंकड़े दिए गए हैं. इसमें पुलिस हिरासत में अभियुक्त के मानवाधिकारों के उल्लंघन को भी शामिल किया गया है. इनमें मुठभेड़, मारपीट, प्रताड़ना, चोट पहुंचाना और फिरौती की मांग आदि शामिल हैं.

- 2017 में हिरासत में 100 मौतें दर्ज हुईं. इन मामलों में 22 पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर की गई थी लेकिन किसी को दोषी नहीं ठहराया गया था.

- 2017 में मानवाधिकार उल्लंघन के 57 मामले सामने आए. इन मामलों में 48 लोगों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाख़िल की गई थी और तीन को दोषी ठहराया गया था.

- 2018 में 70 लोग मारे गए. इनमें 13 को अभियुक्त बनाया गया लेकिन किसी को दंडित नहीं किया गया.

- मानवाधिकार उल्लंघन के कुल 89 मामले दर्ज किए गए. इन मामलों में 26 को अभियुक्त बनाया गया और एक को दोषी ठहराया गया.

- इसी श्रेणी में 2019 में 49 अपराध दर्ज किए गए और आठ लोगों को अभियुक्त बनाया गया और इनमें एक को सजा मिली.

- 2019 में हिरासत में 75 मौतें हुईं. इन मामलों में 16 पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर की गई और एक पुलिसकर्मी को दोषी ठहराया गया.

- पिछले साल 2020 में हिरासत में 76 मौतें हुई थीं. सात पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाख़िल की गई लेकिन किसी को सजा नहीं मिली.

पिछले कुछ महीनों के लॉकडाउन के दौरान, पुलिस के ख़िलाफ़ मानवाधिकार उल्लंघन के 20 मामले दर्ज किए गए. इन मामलों में चार को अभियुक्त बनाया गया और किसी को दोषी नहीं ठहराया गया.

डीके बसु मामले में शीर्ष अदालत ने कहा था कि हिरासत में मौत के मामले में पुलिस को दंडित करना मुश्किल होगा. यह आंकड़ों से भी स्पष्ट होता है.

पुलिस हिरासत में मौत की वजहें
पुलिस हिरासत में हो या फिर गिरफ़्तारी के बाद थाने में, पूछताछ के दौरान, आगे की जांच के लिए अदालत द्वारा दी गई पुलिस रिमांड में या जेल में, सरकारी दस्तावेज़ों में हर तरह की मौत का कारण दर्ज किया जाता है.

हिरासत में होने वाली इन मौतों की वजह क्या हैं?

एनआरसीबी के मुताबिक, मौतें अस्पताल में भर्ती होने, इलाज, जेल में मारपीट, अन्य अपराधियों द्वारा हत्या, आत्महत्या, बीमारी या प्राकृतिक कारणों से हुई हैं.

2020 में प्रति सप्ताह एक आत्महत्या
नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टॉर्चर संस्थागत उत्पीड़न के ख़िलाफ़ काम करता है. दुनिया भर में काम करने वाले इस संगठन ने मार्च में भारतीय पुलिस हिरासत में आत्महत्याओं पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है.

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 में लॉकडाउन के बावजूद भारत में हिरासत में होने वाली मौतों में वृद्धि हुई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक इस दौरान हर सप्ताह एक व्यक्ति ने पुलिस हिरासत में आत्महत्या की है.

ग़रीबों पर सबसे ज़्यादा चोट
नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टॉर्चर के ही एक दूसरे सर्वेक्षण के मुताबिक पुलिस हिरासत में सबसे ज़्यादा ग़रीब और उपेक्षित समुदाय के लोग मरते हैं.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 1996 से 2018 के आंकड़ों को संकलित करने के बाद बताया है कि इस दौरान पुलिस हिरासत में मरने वाले 71.58 प्रतिशत लोग ग़रीब थे.

आयोग के संयोजक सुहास चकमा ने कहा, "अगर कोई ग़रीब आदमी कुछ उठाता है, तो उसे तुरंत चोर घोषित कर दिया जाता है और लोग अक्सर उसकी पिटाई करते हैं. पिटाई के चलते मौतें भी होती हैं." (bbc.com)

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