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दलित छात्रों के लिए भयानक जगह बन चुकी हैं कक्षाएं: विशेषज्ञ
30-Nov-2021 3:29 PM
दलित छात्रों के लिए भयानक जगह बन चुकी हैं कक्षाएं: विशेषज्ञ

दलित छात्रा दीपा पी मोहनन को अपनी पीएचडी पूरी करने से पहले जातिगत भेदभाव से लड़ना पड़ा. 11 दिन की भूख हड़ताल से उन्होंने अपनी लड़ाई जीती और हजारों दलित छात्रों के लिए मिसाल खड़ी की.

  (dw.com) 

स्टाफ के लोग उन्हें परेशान करते थे. यूनिवर्सिटी की लैब में उन्हें आने नहीं दिया जाता था. कुर्सी तक नहीं मिलती थी. कथित नीची जाति की दीपा पी मोहनन के लिए पीचएडी पूरी करना इतना मुश्किल हो गया था. बहुत बार हिम्मत टूटती और मन होता कि छोड़े दें. पर उन्होंने लड़ने का फैसला किया.

दीपा मोहनन नैनोमेडिसन पर रिसर्च कर रही हैं. उनका संघर्ष दसियों हजार दलित छात्रों के लिए एक प्रेरक मिसाल बन गया जब उन्होंने अपने ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ भूख हड़ताल की और सुधार के वादों के बाद ही उठीं.

कोट्टायम की मोहनन बताती हैं, "मैं पूरी शिद्दत से अपनी पीएचडी खत्म करना चाहती हूं लेकिन मुझे अहसास हुआ कि जब तक अपने साथ सालों से हो रहे अन्याय को सबके सामने उघाड़ूंगी नहीं, मैं काम पूरा नहीं कर पाऊंगी.”

इसी महीने मोहनन की 11 दिन लंबी भूख हड़ताल तब खत्म हुई जब उनकी शिकायतों पर महात्मा गांधी यूनिवर्सिटी के नैनोसाइंस और नैनोटेक्नोलॉजी सेंटर के अध्यक्ष को बर्खास्त कर दिया गया. यूनिवर्सिटी ने वाइस चांसलर की अध्यक्षता में एक कमिटी भी स्थापित की है जो दलित विद्यार्थियों के साथ कैंपस में हो दुर्व्यवहार और शोषण के आरोपों की जांच करेगी.

‘भयानक जगह हैं कक्षाएं'
भारत में लगभग 20 करोड़ दलित आबादी है जिन्हें आज भी अपने मूल अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है. दिल्ली यूनिवर्सिटी में इंग्लिश की प्रोफेसर जेनी रोवेना कहती हैं, "विश्वविद्यालय परिसरों में जातिगत उत्पीड़न आम बात है. कक्षाएं भयानक जगह बन चुकी हैं.”

रोवेना एक यूट्यूब चैनल के साथ मिलकर दलित और अन्य पिछड़ी जातियों के साथ हो रहे उत्पीड़न की कहानियों का दस्तावेजीकरण कर रही हैं. वह कहती हैं कि शर्मिंदगी और यातनाओं से बचने के लिए बहुत से छात्र कक्षाओं में जाते ही नहीं हैं.

सरकार के उच्च शिक्षण संस्थानों के आंकड़े दिखाते हैं कि 18-23 साल के दलित या अन्य पिछड़ी जातियों के बच्चों की संख्या मात्र 14.7 प्रतिशत है जबकि उन्हें बहुत से विषयों में तो 15 प्रतिशत आरक्षण हासिल है.

घावों को जल्दी भरने की तकनीक पर काम कर रही मोहनन सौ छात्रों के अपने पोस्टग्रैजुएट बैच में एकमात्र दलित थीं. बिना जीवन साथी के अपने बच्चे को पाल रहीं वह अपने परिवार की पहली व्यक्ति हैं जो यूनिवर्सिटी तक पहुंची हैं. वह कहती हैं, "सच में, मुझे इतने ज्यादा भेदभाव की आशंका नहीं थी.”

भूख हड़ताल पर बैठने से पहले मोहनन ने अधिकारियों के सामने दर्जनों बार शिकायतें की थीं. एक कानूनी शिकायत भी दर्ज कराई थी. वह बताती हैं, "बातचीत में यह कहा गया कि अगर दलित विद्यार्थी का साथ दिया गया तो यह संस्थान के अनुशासन को प्रभावित करेगा. मुझे तब लगा कि मैं हार गई हूं. लेकिन मैंने फिर लड़ने का फैसला किया.”

रोज का संघर्ष
छात्र संगठन भीम आर्मी ने मोहनन की लड़ाई का समर्थन किया था. संगठन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अनुराजी पीआर कहते हैं कि दलित छात्रों के लिए परिसरों का जीवन रोजमर्रा का संघर्ष है. एक छात्र ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि बहुत बार छात्रों को असेसमेंट में फेल कर दिया जाता है और पोस्टडॉक्टरल स्टडीज के लिए बहुत से सुपरवाइजर हमारे गाइड बनने से ही इनकार कर देते हैं.

राजनीतिविज्ञानी और दलित इंटरेक्चुअल कलेक्टिव के राष्ट्रीय संयोजक सी लक्ष्मण कहते हैं कि आरक्षण ने भेदभाव को और हवा दी है. वह कहते हैं, "जो छात्र आरक्षण के जरिए आते हैं उन्हें उनके शहरी क्षेत्र से आने वाले सहपाठी अयोग्य मानते हैं.”

सितंबर में यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन ने सभी विश्वविद्यालयों को पत्र लिखकर हिदायत दी थी कि परिसर में जातीय भेदभाव पर सख्ती से रोक लगाई जाए. एक शिकायत पुस्तिका रखने और छात्रों को शिकायत दर्ज कराने के लिए वेबसाइट उपलब्ध कराने के अलावा एक कमेटी बनाने का भी निर्देश जारी किया गया है जो नियमित रूप से इन शिकायतों की सुनवाई करेगी.

वीके/सीके (रॉयटर्स)

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