संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भारतवंशियों के सीईओ बनने पर हिंदुस्तानी खुशियां, बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाने का नाच तो नहीं?
02-Dec-2021 5:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  भारतवंशियों के सीईओ बनने पर हिंदुस्तानी खुशियां, बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाने का नाच तो नहीं?

भारतीय मूल के पराग अग्रवाल को अभी दुनिया की एक सबसे चर्चित और कामयाब कंपनी ट्विटर का मुखिया बनाया गया है. वे पिछले करीब 10 बरस से इस कंपनी में अलग-अलग हैसियत से काम कर रहे थे, और कंपनी के एक संस्थापक और मौजूदा मुखिया ने उनकी बहुत तारीफ करते हुए अपनी कुर्सी उनके हवाले की है। इसे लेकर हिंदुस्तान में खुशी की एक नई लहर दौड़ पड़ी है, और यह बात जायज भी है कि हिंदुस्तानी मूल का कोई व्यक्ति अगर दुनिया की किसी सबसे बड़ी कंपनी का मुखिया बने तो उससे हिंदुस्तानियों की शोहरत और इज्जत दोनों ही बढ़ती है। हिंदुस्तानियों ने इस खबर के बाद अधिक वक्त नहीं लगाया और मिनटों के भीतर ही इस पर तरह-तरह से खुशियां जाहिर करने लगे। कुछ लोगों ने ऐसे पोस्टर बनाए कि हिंदुस्तान की अग्रवाल स्वीट्स मिठाई दुकान के नाम के बोर्ड में अग्रवाल ट्वीट्स कर दिया गया।

खैर यह हंसी-मजाक तो चलता ही रहता है लेकिन हिंदुस्तान के लिए यह फख्र की एक बात तो है ही कि गूगल के मुखिया सुंदर पिचाई सहित कई बड़ी कंपनियों के मुखिया आज भारतवंशी हैं। इनमें से तमाम लोग भारत के आईआईटी या आईआईएम से पढक़र गए हुए लोग हैं, और जिन्होंने कुछ ही वक्त में अमेरिका में अपना कामयाब ट्रैक रिकॉर्ड कायम कर लिया। ऐसा लगता है कि आईआईटी, आईआईएम जैसे देश के प्रमुख शैक्षणिक संस्थान नौजवानों को इतना तैयार करके निकालते हैं कि वे कहीं भी जाकर कामयाब हो सकते हैं। हिंदुस्तानियों को यह भी याद रखने की जरूरत है कि ऐसे संस्थानों की बुनियाद देश में कब रखी गई थी। यह भी याद रखने की जरूरत है कि इन संस्थानों में नफरत और सांप्रदायिकता से परे, धर्मांधता और गंदी राजनीति से परे जो पढ़ाई होती है वही लोगों को अंतरराष्ट्रीय और वैश्विक चुनौतियों के लिए तैयार करती है। देश के आम विश्वविद्यालयों में नौजवानों को जिस तरह से आज सांप्रदायिक गंदगी में झोंक दिया जा रहा है, उससे यह बात बहुत साफ है कि देश के 99 फीसदी कॉलेज और विश्वविद्यालय छात्र-छात्राओं को कभी ऐसी ऊंचाइयां देखने नहीं मिलेगी, क्योंकि उन्हें भीड़ बनाकर धर्मांध और कट्टर भीड़ की शक्ल में दूसरे मोर्चों पर झोंक दिया जा रहा है। इसलिए यह तो याद रखना ही चाहिए कि आईआईटी और आईआईएम की शुरुआत हिंदुस्तान में किसने की थी, यह भी याद रखना चाहिए कि आज देश का माहौल किस तरह पूरी पीढ़ी को खत्म किए दे रहा है।

अब अगर यह सोचें कि हिंदुस्तान के बाहर जाकर ये नौजवान दुनिया की इतनी बड़ी-बड़ी कंपनियों के मुखिया बनाए जा रहे हैं, जहां पर न तो कोई पारिवारिक विरासत काम आती है, और न ही इन नौजवानों की कोई पारिवारिक विरासत अपने खुद के जन्म के देश में भी थी। यह सारे लोग बिना किसी बुनियाद के अमेरिका गए और अपनी काबिलियत को आसमान तक पहुंचा दिया। क्या इससे यह सोचने की जरूरत खड़ी नहीं होती कि ये नौजवान या इनकी तरह के और नौजवान जो कि हिंदुस्तान में ही रह गए हैं, वे इतने कामयाब क्यों नहीं हो पाते? क्योंकि ये पढक़र तो एक साथ निकले हैं और हिंदुस्तान में भी आज बड़ी-बड़ी कंपनियां हैं, फिर फर्क कहां पर रह जाता है? क्यों दुनिया की अधिकतर बड़ी कंपनियां अमेरिका या दूसरे कुछ देशों में पहली पीढ़ी के कारोबारियों द्वारा खड़ी की गई हैं? हिंदुस्तान में तो दो-दो, तीन-तीन पीढ़ी पहले से जो कारोबार चले आ रहे हैं उनमें भी लोग आज अधिक कामयाब नहीं हो पाते हैं। तो कामयाबी की फसल जिस जमीन पर यहां खड़ी होती है, क्या उस जमीन के मिट्टी पानी में ही कोई दिक्कत है? क्या हिंदुस्तान में कारोबार करने के माहौल में कोई कमी है? क्या भारत में सरकार के नियम-कायदों में, राजनीतिक दखल में, और काम करने के सामाजिक वातावरण में कोई फर्क है?

ऐसी बहुत सारी चीजें हैं जिसके बारे में हिंदुस्तानियों को पहले सोचना चाहिए, और उसके बाद यह सोचना चाहिए कि अमेरिकी कंपनियों में मुखिया बनने वाले हिंदुस्तानियों पर गर्व किया जाए, या हिंदुस्तान के माहौल पर शर्म की जाए कि क्यों यहां पर वह कामयाबी पाना मुमकिन नहीं हो पाता? आज अमेरिका में न सिर्फ कारोबार के नियम अलग हैं बल्कि किसी कारोबारी के लिए यह बड़ी आसान बात है कि वे अपनी राजनीतिक विचारधारा में वहां के राष्ट्रपति के खिलाफ जितना बोलना चाहे बोलें, उनका कोई नुकसान सरकार नहीं कर सकती। तो क्या विचारधारा की ऐसी आजादी लोगों के व्यक्तित्व विकास में भी मदद करती है? आज हिंदुस्तान में जब जगह-जगह खानपान को लेकर, पहनावे को लेकर लोगों के बीच हिंसा भडक़ा दी जाती है, लोगों को भीड़ में घेरकर मारा जाता है, तो क्या उससे काम करने वाले नौजवानों का हौसला पस्त नहीं होता? क्या उनकी कल्पनाशीलता खत्म नहीं होती? जहां बोलने और लिखने की आजादी खत्म हो जाती है, जहां पर विचारों को लेकर भारी असहिष्णुता हिंसक होती रहती है, वहां पर काम करना भी लोगों की पसंद नहीं रहती। इसलिए अमेरिका में आजादी के साथ लोग काम करना भी चाहते हैं और अपने बच्चों के लिए आने वाली एक बेहतर दुनिया छोडक़र जाना चाहते हैं।

शायद ऐसी भी कोई वजह होगी कि अधिक होनहार और अधिक काबिल लोग हिंदुस्तान में रहना नहीं चाहते। अभी पार्लियामेंट में एक जानकारी पेश की गई है कि पिछले तीन-चार बरसों में 6 लाख से अधिक लोगों ने भारतीय नागरिकता छोड़ी है। यह जानकारी सीमित है इससे हम यह अंदाज नहीं लगा पा रहे हैं कि मौजूदा मोदी सरकार के पहले कितने लोगों ने नागरिकता छोड़ी थी? आज पहले के मुकाबले कम लोग नागरिकता छोड़ रहे हैं, या अधिक लोग छोड़ रहे हैं? इस बात का भी पता लगाना चाहिए। इतना तो है कि लोग हिंदुस्तानी नागरिकता छोड़ रहे हैं, ये लाखों लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्या वे हिंदुस्तानी सरकारी नियमों से परे चले जाना चाहते हैं? लेकिन कुल मिलाकर एक भारतवंशी के ट्विटर का मुखिया बनने के मौके पर खुशी मनाते हिंदुस्तानियों को अभी समझने की जरूरत है कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति रहते हुए इसी ट्विटर ने उनका अकाउंट बैन कर दिया था, और राष्ट्रपति कुछ भी नहीं कर पाया था, कंपनी का कुछ भी नहीं बिगड़ा था। भारत की कोई कंपनी भारत में इस तरह की कोई कल्पना भी कर सकती है? शायद सोचने और करने की अमेरिकी आजादी है को कि वहां की कंपनियों को भी दुनिया में सबसे बड़ा बनाती है, और वहां काम कर रहे भारतवंशी या दुनिया के दूसरे देशों के लोग भी आसमान तक पहुंचते हैं।

अब सवाल यह उठता है कि नेहरू के वक्त के बने हुए आईआईटी और आईआईएम की वजह से एक काबिल पढ़ाई करके निकले हुए नौजवान जब अमेरिका के खुले कारोबारी माहौल में इतने कामयाब होते हैं, तो फिर गर्व करने का हक किन-किनको मिलना चाहिए? लोग हिंदुस्तान की आज की हालत को देखें, अमेरिका में विचारों और काम की आजादी को देखें, और उसके बाद यह तय करें कि उन्हें किस बात पर गर्व करना है और किस बात पर शर्म करनी है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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