विचार / लेख
-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
एक रोचक घटना है, ‘गाइड’ के लिए शैलेन्द्र लिखित गीत ‘मोसे छल किए जाए, सैंया बेईमान...’ का संगीत तैयार किया जा रहा था। प्रैक्टिस के दौरान सचिन दा के नियमित तबलावादक मारुतीराव कीर उस समय उपस्थित नहीं थे इसलिए संतूरवादक पंडित शिवकुमार शर्मा ने तबला सम्हाल लिया। दादा ने शिवकुमार का तबलावादन सुनकर आदेश दिया, ‘इस गाने की रिकॉर्डिंग में तबला तुम बजाओगे।’
शिवकुमार शर्मा ने कहा, ‘दादा, मैं अब तबला नहीं बजाता, केवल संतूर बजाता हूँ।’
‘वो ठीक है पर इस गाने में तबला तुम ही बजाएगा।’ दादा ने अंतिम फैसला सुनाया।
‘मोसे छल किए जाए, सैंया बेईमान...’ को आपने कई बार सुना होगा। लताजी की शिकायत भरी मीठी आवाज का असर ऐसा है कि इस गीत के संगीत पर ध्यान ही नहीं जाता। एक बार आप इस गीत को फिर से सुनिए और तबले की थाप पर अपना ध्यान केन्द्रित करिएगा, ताल के कितने रंग है, इस गीत में! तबले की थाप को सुनो तो ऐसा लगता है जैसे आकाश में कोई पतंग लहरा रही हो, बल खा रही हो और गर्वोन्मत्त होकर आसमान को भेद रही हो। यह संतूरवादक पंडित शिवकुमार शर्मा का तबलावादन था।
सात ‘फिल्म फेयर अवार्ड’ हासिल करने वाली इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ संगीत का पुरस्कार न मिलना आश्चर्यजनक है जबकि बॉलीवुड की सर्वश्रेष्ठ पाश्र्व संगीत की सूची में ‘गाइड’ का ग्यारहवें स्थान पर प्रतिष्ठित है।
‘गाइड’ जैसी फिल्म का निर्माण हिंदी सिनेमा के लिए अभूतपूर्व प्रयास था। इस फिल्म की खासियत यह है कि यह हर दृष्टि से उत्कृष्ट कृति है और दर्शकों में अत्यंत लोकप्रिय भी हुई।
सिनेमा तो कल्पना को वास्तविकता में परावर्तित करने का कलात्मक विधा ह। ‘गाइड’ का हर फ्रेम दर्शक को इस तरह बांधता है जैसे दर्शक स्वयं कहानी का हिस्सा हो। इसे ही तो नाट्यशास्त्र के प्रवर्तक भरत मुनि कहते हैं, ‘दर्शक का कथा से तादात्मीकरण।’
(शीघ्र प्रकाश्य फिल्म वृत्तांत ‘सिनेमची’ का एक अंश है यह)