विचार / लेख
-अशोक मिश्रा
विनोद दुआ का निधन उत्कृष्ट, सटीक और गम्भीर पत्रकारिता के एक बड़े स्तम्भ का निधन है।
विनोद से मेरा परिचय 79 में हुआ। ज़रिया बने सुप्रसिद्ध अभिनेता वीरेंद्र सक्सेना।विनोद वीरेंद्र के दोस्त थे। हमारा एन.एस.डी. में एडमिशन हुआ था। विनोद वीरू से मिलने अपनी लम्ब्रेटा स्कूटर से मंडी हाउस आते। हम मिलते चाय पीते और गपियाते थे। यह अक्सर होने लगा। विनोद विनोदी थे। मुझे भी वही लोग अच्छे लगते हैं जिनका सेंस ऑफ ह्यूमर अच्छा हो। उनकी राजनीतिक समझ तभी से जनहित में रूप लेने लगी थी।
फिर वो मेरे नाटक भी देखने आते और हम उसपर चर्चा करते।
मैं मुम्बई चला आया। मोबाइल का युग नहीं था सो बातचीत का सिलसिला टूट गया।
मैंने सुप्रसिद्ध निर्देशक सईद मिजऱ्ा के लिए नसीम नामकी फि़ल्म लिखी। पहला ड्राफ्ट लिखने के बाद सईद को सुनाने उनके घर गया तो सुखद आश्चर्य हुआ कि विनोद भी उनसे मिलने आये थे। सईद ने उन्हें भी सुनने के लिए बिठा लिया। स्क्रिप्ट पाठ समाप्त हुआ। फि़ल्म के राजनैतिक एंगल पर विनोद की टिप्पणियां कमाल की थीं। मसलन ‘अल्पसंख्यकों के डर पर लाल मिर्ची नहीं छिडक़नी चाहिए।’
‘इस दौर में हर सेंसबिल इंसान अल्पसंख्यक है।’... और भी बहुत कुछ।
फिर विनोद की पत्नी का निधन हुआ। मैंने बात करने की कोशिश की मगर वो ख़ुद करोना की चपेट में थे।
मुझे यक़ीन था वो स्वस्थ हो जाएंगे।
लेकिन मेरे यक़ीन से क्या होता है।
उफ़ विनोद का न रहना बड़ी क्षति है।
एक आदमी अकेला नहीं जीता-मरता, उसके साथ उसके चाहने वाले भी थोड़ा थोड़ा जीते-मरते हैं। दुआ तो बहुत मांगी थी लेकिन ये सच है कि विनोद हमें छोड़ गए।
अबकि बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल कि़ताबों में मिलें।