संपादकीय
अभी 2 दिन पहले बीबीसी ने एक मुद्दा उठाया कि उत्तर प्रदेश में गरीबी का ऐसा हाल है, लेकिन उसके बावजूद उत्तर प्रदेश के चुनाव में कई किस्म के दूसरे मुद्दे तो हावी हैं, गरीबी चर्चा में नहीं है। और बात सही भी है, देश के 3 सबसे गरीब राज्यों में से एक, उत्तर प्रदेश चुनाव में जा रहा है और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भाजपा की सरकार लोगों को कई तरह के आर्थिक फायदे देने की घोषणा भी कर रही है, लेकिन लोगों के बीच जो चुनावी मुद्दे हावी हैं उनमें गरीबी या उत्तर प्रदेश की आर्थिक बदहाली का कोई जिक्र नहीं है। जिन्ना का जिक्र जरूर हो रहा है और अखिलेश यादव के नाम को भाजपा के दिग्गज नेता बिगाडक़र अखिलेश अली जिन्ना कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी को मुस्लिमपरस्त साबित करने की खूब कोशिश हो रही है और एक ऐसी चुनावी आशंका दिख रही है कि उत्तर प्रदेश के वोटरों के बीच धार्मिक आधार पर एक बड़ा धु्रवीकरण हो जाए। चुनाव में हैदराबाद के एक इलाके के नेता असदुद्दीन ओवैसी भी उत्तर प्रदेश पहुंचकर मुस्लिम वोटों के ऐसे धु्रवीकरण के काम में जुट गए हैं जो कि भाजपा के हाथ मजबूत करने वाला साबित हो। उनका जाहिर तौर पर यही मकसद भी रहता है। कांग्रेस वहां पर महिलाओं के धु्रवीकरण में लगी है और महिलाओं के लिए वह इतने किस्म के वायदे कर रही है जिनके आधे वायदे भी वह उन राज्यों में नहीं छू सकती जहां पर उसकी अपनी सरकार है। बहुत से लोगों का मानना है कि चूंकि उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने का क्योंकि कोई भी माहौल नहीं है, इसलिए कांग्रेस वहां पर आसमान छूती हुई घोषणा और वायदे करने में लगी हुई है। हो सकता है यह बात सच भी हो, लेकिन कांग्रेस के राज वाले दूसरे राज्यों में यह तो भाजपा का या दूसरे विपक्षी दलों का जिम्मा बनता है कि वह वहां कांग्रेस से पूछें कि क्या 40 फीसदी टिकटें वहां भी महिलाओं को दी जाएंगी और बाकी किस्म के वायदे वहां की महिलाओं से भी किए जाएंगे?
लेकिन हम उत्तर प्रदेश की गरीबी पर लौटें, और उसकी चर्चा करें तो देश के बाकी राज्यों को भी देखने की जरूरत है जो उत्तरप्रदेश जितने गरीब चाहे ना हों, लेकिन जहां गरीब बड़ी संख्या में है। पूरे ही देश में अधिकतर राज्यों में गरीबी की रेखा के नीचे आबादी का एक बड़ा हिस्सा है। ऐसे में हर चुनाव के पहले हर बड़ी पार्टी अलग-अलग प्रदेशों में गरीबों के लिए कई किस्म के वादे करती हैं, जिनमें कहीं मौजूदा मुख्यमंत्री, या मुख्यमंत्री बनने का महत्वाकांक्षी अपने को मामा बताकर प्रदेश की तमाम गरीब लड़कियों की शादी सरकारी खर्च पर करवाने की बात करता है, तो कहीं पर तमिलनाडु की तरह अम्मा इडली और अम्मा मेडिसिन सेंटर चलते हैं, तो कहीं पर महिलाओं को मंगलसूत्र चुनाव में ही बांट दिए जाते हैं क्योंकि सरकार शायद ऐसा नहीं कर सकती। हर पार्टी यह मानती है कि गरीबी बहुत है और गरीबों को चुनाव के पहले और चुनाव के बाद इस किस्म के झांसे देकर या इस किस्म की खैरात बांटकर उनके वोट पाए जा सकते हैं, लेकिन पार्टियां आर्थिक पिछड़ेपन को चुनावी मुद्दा बनाएं ऐसा बिल्कुल भी नहीं होता। ऐसा लगता है कि गरीबी का मुद्दा अलग है और गरीबों को बांटी जाने वाली खैरात, या उन्हें दिए जाने वाले तोहफे एक अलग ही मुद्दा हैं, जिनका गरीबी को हटाने या खत्म करने से कुछ भी लेना देना नहीं है। गरीबों का आर्थिक विकास कोई मुद्दा ही नहीं है लेकिन गरीबों को खैरात देना जरूर मुद्दा है।
ऐसे माहौल में छत्तीसगढ़ ने जरूर पिछले चुनाव में एक अलग मिसाल पेश की थी जब गरीब किसानों से लेकर करोड़पति और अरबपति किसानों तक को, सभी को धान का बढ़ा हुआ दाम मिला था और किसानों की कर्ज माफी हुई थी, और ग्रामीण विकास के लिए सरकार ने गोबर खरीदना शुरू किया, और गांव-गांव में खाद बनाकर उसे सरकार को ही बेचना शुरू किया। इस किस्म के आर्थिक कार्यक्रम कम ही राज्यों में हुए, और छत्तीसगढ़ में 15 बरस तक सत्तारूढ़ रही भाजपा आज इस बात को लेकर परेशान हैं कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से बड़ा गौभक्त देश में कोई नहीं रह गया, उससे अधिक गौसेवा और कोई नहीं कर रहा, तो अगले चुनाव में भूपेश बघेल को हटाने के लिए भाजपा के परंपरागत हिंदू मुद्दे काम नहीं आने वाले हैं। छत्तीसगढ़ में भाजपा की एक फिक्र यह भी है कि उत्तरप्रदेश में तो राम मंदिर बन रहा है, लेकिन छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ने राम की मां कौशल्या का बड़ा सा मंदिर बनवा दिया और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए वे छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े हिंदू साबित हो रहे हैं। अब उनके खिलाफ धार्मिक मुद्दा कुछ भी नहीं बचा। छत्तीसगढ़ में मुस्लिम या ईसाईयों का धु्रवीकरण इतना बड़ा मुद्दा नहीं हो सकता, तो यह राज्य कुछ चुनावी परेशानी में घिर गया है कि भाजपा यहां से भूपेश बघेल की सरकार को हटाए तो कैसे हटाए। लेकिन उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में भाजपा के सामने ऐसी कोई परेशानी नहीं है। वहां समाजवादी पार्टी की छवि हिंदू विरोधी बनी हुई है, वहां पर अखिलेश यादव को अपने पिता मुलायम सिंह यादव के समय से मुस्लिमपरस्त माना जाता है, वहां पर कांग्रेस की छवि हिंदू पार्टी से बिल्कुल अलग है और वहां पर बसपा अपना जनाधार चारों तरफ खोते दिख रही है। तो ऐसे में योगी आदित्यनाथ की भगवा सरकार हिंदुत्व को एक आक्रामक तरीके से आगे बढ़ा रही है और वहां पर प्रियंका गांधी को हर सांस में प्रियंका वाड्रा कहा जाता है ताकि उनके पति रॉबर्ट वाड्रा की यादें ताजा बनी रहें। उत्तरप्रदेश में मंदिर का मुद्दा है, बनारस का मुद्दा है, घाटों का मुद्दा है, महाआरती का मुद्दा है, मथुरा और वृन्दावन की मस्जिदों का मुद्दा है, लेकिन वहां पर गरीबी कोई मुद्दा नहीं है।
दरअसल गरीब हिंदुस्तान में कोई तबका नहीं रह गया। गरीबों को तोहफे जरूर बांटे जाते हैं, कभी खैरात की शक्ल में तो कभी चुनावी वायदों की शक्ल में, लेकिन गरीब की कोई जाति नहीं है, गरीब का कोई धर्म भी नहीं है। और हिंदुस्तान की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों ने लोगों को धर्म और जाति के आधार पर वोट देना सिखा दिया है। नतीजा यह हुआ है कि लोग अपने आर्थिक स्तर को भूलकर अपनी धार्मिक और जातिगत पहचान को याद रखते हैं, उसी के आधार पर नेता चुनते हैं, उसी के आधार पर अपना तबका तय करते हैं, उसी के आधार पर जाति या धर्म की अपनी फौज तय करते हैं। हिंदुस्तान के तमाम नाकामयाब राजनीतिक दलों की यह एक बड़ी कामयाबी रही कि सरकारें उन्होंने चाहे जैसी चलाई हों, उन्होंने गरीब को कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वह सबसे पहले गरीब है। उसे सबसे पहले मुस्लिम, बताया हिंदू बताया, उसे दलित और आदिवासी बताया, उसे पिछड़े वर्ग का बताया, लेकिन उसे कभी आर्थिक आधार पर एक नहीं होने दिया क्योंकि हिंदुस्तान में आर्थिक आधार पर अगर सबसे गरीब लोग एक हो जाएं तो उस तबके की ही चुनी हुई एक सरकार देश और हर प्रदेश में बन सकती है। इससे बड़ा खतरा किसी पार्टी के लिए और किसी सरकार के लिए और कुछ नहीं हो सकता कि लोग अपने आर्थिक स्तर को लेकर जागरूक हो जाएं। ऐसा अगर हो जाए तो सरकारों के सामने यह चुनौती रहेगी कि वह आर्थिक विकास करके दिखाएं, वरना पिछड़े हुए लोग एक होकर उसे पलट देंगे। ऐसा लगता है कि देश की बड़ी-बड़ी तमाम पार्टियों की यही निजी और सामूहिक कामयाबी है कि उन्होंने लोगों के मन से गरीब की उनकी पहचान को छीन लिया और उन्हें उनके जाति और धर्म के आधार पर ही बैठे रहने का एक माहौल जुटाकर दे दिया। यह सिलसिला पता नहीं कैसे खत्म हो सकेगा क्योंकि आर्थिक आधार पर जन चेतना का विकास करके चुनावी राजनीति करने वाली वामपंथी पार्टियों के दिन तकरीबन तमाम जगहों पर लद गए दिख रहे हैं। हो सकता है कि लोगों के बीच जनचेतना की धार को बाकी पार्टियों ने इस हद तक खत्म कर दिया है, इस हद तक भोथरा कर दिया है कि उन्हें धर्म और जाति से ऊपर अपनी गरीबी का एहसास ही नहीं रह गया।
फिर एक और बात को अनदेखा करना ठीक नहीं होगा। भारतीय आम चुनावों को या किसी प्रदेश के चुनाव को जब कभी जनमत कहा जाता है तो उसके साथ ही एक बात को नहीं भूलना चाहिए कि यह सबसे ताकतवर और सबसे संपन्न पार्टी का खरीदा हुआ जनमत भी रहता है। पूरा का पूरा जनमत तो खरीदा हुआ नहीं रहता लेकिन जिन लोगों ने चुनावों को जमीनी स्तर पर करीब से देखा है वे इस बात को जानते हैं कि मामूली जीत-हार वाली सीटों पर फैसला वोटों को खरीदकर बदला जा सकता है, बदला जाता है। लोगों को वोट बेचने में दिक्कत नहीं है, और तकरीबन तमाम पार्टियों को वोट खरीदने में भी कोई दिक्कत नहीं है। बेचने वालों की यह बेबसी है कि वे थोड़े से पैसों को भी अपना एक सहारा मान बैठते हैं, और उनके बीच इतनी समझ ही बाकी नहीं रहने दी गई है कि वे 5 साल की अपनी आर्थिक बेहतरी की भी फिक्र करें। इसलिए मतदान के 2-3 दिन पहले से लगने वाली बोली और होने वाले भुगतान के झांसे में भी बहुत से लोग आते हैं। इसलिए हिंदुस्तान के चुनाव देश के सबसे जलते-सुलगते मुद्दों से बहुत दूर, सांप्रदायिकता और जाति, चाल-चलन और व्यक्तित्व के झूठे और फर्जी आरोपों पर टिके हुए ऐसे चुनाव हो गए हैं कि जिनका जमीनी हकीकत से कुछ भी लेना-देना नहीं रह गया। अगर कोई पार्टी किसी चुनाव में जीत का आसमान छूने लगती है, तब तो यह माना जा सकता है कि उसे उसके काम के आधार पर भी वोट मिले हैं। लेकिन नतीजों के फासले जब मामूली रह जाते हैं, तब ये तमाम लोकतांत्रिक मुद्दे चुनावों को बहुत बुरी तरह प्रभावित करते हैं, और उस वक्त चुनाव परिणाम को जनमत कहना एक फिजूल की बात रह जाती है।
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