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BBC 100 वीमेन 2021: मंजुला प्रदीप: बलात्कार पीड़िता के दलित नेता बनने की कहानी
08-Dec-2021 11:52 AM
BBC 100 वीमेन 2021: मंजुला प्रदीप: बलात्कार पीड़िता के दलित नेता बनने की कहानी

आदिवासी और दलित समुदाय की औरतों के सरोकारों पर 2015 में छोटा उदयपुर में बैठक, इमेज स्रोत,MANJULA PRADEEP

 

-दिव्या आर्य

बीबीसी ने साल 2021 के सबसे प्रेरक और प्रभावशाली 100 महिलाओं की सूची जारी कर दी है. इस सूची में इस बार दो भारतीय महिलाएं भी शामिल हैं, एक हैं मंजुला प्रदीप और दूसरी हैं मुग्धा कालरा. इस लेख में कहानी मंजुला प्रदीप की.

"जब मैं उनसे मिली, तब मुझे ये अहसास हुआ कि मेरे पास बंदूक तो है पर उसे चलाने के लिए गोलियां नहीं हैं."

38 साल की दलित कार्यकर्ता भावना नरकर ने कुछ ऐसे 52 साल की मंजुला प्रदीप के बारे में मुझे बताया. भावना दलित समुदाय की उन दर्जनों औरतों में से एक हैं जिन्हें मंजुला प्रदीप बलात्कार पीड़ितों की मदद करने और न्याय की लड़ाई लड़ने के लिए ट्रेनिंग दे रही हैं.

भारत में बलात्कार और दलितों के उत्पीड़न के खिलाफ कड़े कानून हैं पर ज़मीनी स्तर पर दलित औरतों को दशकों से चले आ रहे भेदभाव का सामना करना पड़ता है. ऊंची जाति की ओर से अक्सर बलात्कार का इस्तेमाल दलित समुदाय को सज़ा देने और शर्मिंदा करने के लिए भी किया जाता रहा है.

क़रीब 30 साल से औरतों के अधिकारों पर काम कर रहीं मंजुला प्रदीप ने इस साल 'नेशनल काउंसिल ऑफ वीमेन लीडर्स' की स्थापना की है.

उन्होंने कहा, "ये मेरा सपना था कि दलित समुदाय में से औरतों के नेतृत्व को कायम करूं. कोरोना महामारी के दौरान यौन हिंसा के मामलों पर काम करते हुए मुझे लगा कि ये संगठन बनाने का सही वक्त है ताकि ये महिला नेता अपने समुदाय की औरतों को सम्मान के साथ जीने में मदद कर सकें."

देश के कई गांवों, कस्बों की ही तरह, भावना नरकर के गांव में भी गरीब दलित औरतों के लिए शिक्षा और रोज़गार के अवसर कम हैं.

उन्होंने कहा, "औरतें नाराज़ हैं और यौन हिंसा के लिए न्याय चाहती हैं पर अपने अधिकारों और कानून की जानकारी ना होने की वजह से उनके लिए अपने परिवारों और समुदाय के बीच आवाज़ उठाना बहुत मुश्किल हो जाता है."

भावना कहती हैं जब जनवरी 2020 में उन्होंने मंजुला को दलित औरतों की एक सभा में बोलते देखा तो उनकी ज़िंदगी ही बदल गई, "मुझे लगा न्याय हमें भी मिल सकता है".

'बेयरफुट लॉयर्स'
मंजुला ने न सिर्फ अपनी बात गर्मजोशी से रखी बल्कि वो सिस्टम से लड़ने के लिए औरतों को कानून की जानकारी और ट्रेनिंग समेत कुछ ठोस कदम उठा रही थीं.

उन्होंने कहा, "मैं उन्हें बेयरफुट लॉयर्स (वकील) बुलाती हूं. न्याय व्यवस्था और रूढ़िवादी सोच से लड़ने में बलात्कार पीड़ितों की मदद करने में उनकी भूमिका बहुत अहम है."

"पूरी अपराध-न्याय व्यवस्था दलित औरतों के खिलाफ पूर्वाग्रहों से ग्रसित है. अदालतों में पीड़िताओ पर ही आरोप मढ़ने और शर्मिंदा करने के लिए ऐसे सवाल और टिप्पणियां की जाती हैं कि, 'ऊंची जाति का मर्द उसके साथ बलात्कार क्यों करेगा? वो तो अछूत है. उसी ने यौन संबंध बनाने को कहा होगा'."

अब भावना मज़बूत महसूस करती हैं. व्यवस्था से लड़ने की जानकारी से लैस और आरोपियों की धमकियों से निपटने को तैयार, वो अब एक स्थानीय दलित अधिकार संगठन का हिस्सा हैं और अपने इलाके में बलात्कार की वारदात की जानकारी मिलते ही पीड़िता से संपर्क करती हैं.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक साल 2014 से 2019 के बीच दलित औरतों के बलात्कार के मामलों में 50 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हुई. पर शोध बताते हैं कि ऐसे ज़्यादातर मामले पुलिस में दर्ज ही नहीं होते. वजहों में परिवार का साथ ना देना और पुलिस का ऊंची जाति के मर्दों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने से कतराना शामिल हैं.

अपनी ट्रेंनिंग में मंजुला इस बात की ओर ध्यान दिलाती हैं कि पीड़िता को मानसिक तौर पर मज़बूत किया जाए और उन्हें पुलिस में शिकायत करने की अहमियत समझाई जाए.

ये बात उनके अपने तजुर्बे से भी जुड़ी है. उन्होंने बताया कि जब बचपन में उनके साथ यौन हिंसा हुई तब वो भी अकेली पड़ गईं थीं. वो महज़ चार साल की थीं जब पड़ोस के चार मर्दों ने उनके साथ बलात्कार किया.

बचपन में हुआ यौन उत्पीड़न
उन्होंने बताया, "मुझे याद है उस दिन मैंने पीली फ्रॉक पहनी ती. आज भी दिमाग में उनके चेहरे और जो उन्होंने किया, उसकी परछाईं साफ़ है. उस बलात्कार ने मुझे बदल दिया, एक बहुत शर्मीली और डरी हुई लड़की बना दिया. मैं अनजान लोगों से घबराती और घर में कोई आता तो छिप जाती."

मंजुला ने अपने साथ हुई हिंसा को राज़ ही रखा. अपने मां-बाप को बताने के लिए कभी हिम्मत नहीं जुटा पाईं.

उनकी मां खुद बहुत छोटी थीं. 14 साल की उम्र में उनकी शादी उनसे 17 साल बड़े आदमी से कर दी गई थी. और पिता मंजुला से नाराज़ रहते थे क्योंकि उन्हें बेटी की नहीं, बेटे की चाहत थी.

मंजुला ने बताया, "वो मेरी मां को प्रताड़ित करते थे, मेरा मज़ाक उड़ाते थे, बदसूरत बुलाते थे, ऐसा लगता था कि ना उन्हें मेरी ज़रूरत है ना मुझसे थोड़ा भी प्यार."

मंजुला के पिता अब गुज़र चुके हैं. वो उत्तर प्रदेश में जन्मे थे पर काम के लिए गुजरात आ गए. नए शहर में उन्होंने अपनी दलित पहचान छिपाने के लिए अपना सरनेम इस्तेमाल करना छोड़ दिया और अपनी पत्नी और बच्चों के नाम के साथ 'प्रदीप' जोड़ दिया.

इसके बावजूद उनकी जातिगत पहचान छिपी नहीं रही. वडोदरा जैसे बड़े शहर में भी उन्हें अलग-अलग तरीकों से भेदभाव का सामना करना पड़ा.

उन्होंने बताया, "जब मैं नौ साल की थी, मेरी टीचर ने बच्चों को उनके साफ रहने के आधार पर रैंक किया. क्लास में सबसे साफ-सुथरे तरीके से रहनेवाले बच्चों में से एक होने के बावजूद मुझे आखिरी नंबर पर रखा गया - सिर्फ इसलिए क्योंकि ये माना जाता है कि दलित गंदे तरीके से रहते हैं. मैंने बहुत बेइज़्ज़त महसूस किया."

दलित महिला लीडर बनने का सफ़र

स्कूल के बाद मंजुला ने सोशल वर्क और कानून की पढ़ाई करने का फैसला किया.

ग्रामीण इलाकों में किए दौरों ने दलितों के अधिकारों पर काम करने के लिए प्रेरित किया. 1992 में वो दलित अधिकार संगठन 'नवसर्जन' में जुड़ने वाली पहली महिला थीं.

'नवसर्जन' को पांच मर्दों ने मिलकर तब शुरू किया जब उनके एक सहकर्मी की ऊंची जाति के लोगों ने गोली मारकर हत्या कर दी.

वो गर्व से बताती हैं, "ऐसा बहुत कम होता है कि एक दलित महिला इतने ऊंचे पद को जीते. मैंने चार मर्दों को चुनाव में हराकर एक ऐसी संस्था का नेतृत्व किया जिसमें मर्द और औरतें दोनों काम करते हैं."

मंजुला अब अपने काम को बलात्कार पीड़ितों के सरोकारों पर केंद्रित कर पाई हैं. उन्होंने 50 से ज़्यादा दलित औरतों को न्याय के लिए लड़ने में मदद की है और इनमें से कई मामलों में सज़ा दिलाने में कामयाब रही हैं.

इस तजुर्बे ने उन्हें यकीन दिलाया है कि दलित औरतों को जानकारी और ट्रेनिंग के ज़रिए समुदाय में लीडर की सम्मानित भूमिका में लाना कितना ज़रूरी है.

वो कहती हैं, "मैं एक और मंजुला नहीं बनाना चाहती. मैं चाहती हूं कि इन औरतों की अपनी पहचान हो - मेरे साए के तले नहीं, अपना सफर तय कर के, अपनी समझ से अपनी तरह की लीडर बनें." (bbc.com)

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