संपादकीय
जम्मू कश्मीर के भूतपूर्व मुख्यमंत्री, और वहां की एक प्रमुख पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष फारुख अब्दुल्ला ने अभी जम्मू में अपनी पार्टी के अल्पसंख्यक संगठन के कार्यक्रम में कश्मीरी पंडितों के बीच कहा कि राज्य में अगर हिंदू और मुसलमानों के बीच नफरत बढ़ती है तो इसका फायदा दुश्मनों को होगा। उन्होंने दुश्मन का नाम तो नहीं लिया लेकिन यह जाहिर है कि उनका इशारा पाकिस्तान की तरफ था। यह एक और बात है कि उन्होंने पिछले दो दिनों में दो-तीन अलग-अलग कार्यक्रमों में एक जगह यह भी कहा है कि भारत को पाकिस्तान के साथ बातचीत करनी चाहिए। लेकिन उन्होंने बड़े खुलासे से यह कहा कि जिस वक्त कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को दहशत पैदा करके बाहर किया गया उस वक्त उसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति आज ऊपर ईश्वर के पास है, और वहां अपना हिसाब दे रहा होगा। उनका इशारा 1990 के दौर में वहां पर राज्यपाल रहे हुए जगमोहन की तरफ था जिन्होंने कश्मीरी पंडितों के कश्मीर छोडऩे के लिए गाडिय़ों का इंतजाम भी किया था। लोगों को याद होगा कि यही जगमोहन इमरजेंसी के दौरान तुर्कमान गेट पर लोगों पर बुलडोजर चलवाने के जिम्मेदार दिल्ली के अफसर थे, संजय गांधी के चहेते थे। बाद में वे भारतीय जनता पार्टी के पसंदीदा अफसर रहे और जम्मू-कश्मीर में उनके रहते हुए ही कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोडऩा पड़ा और आज तक वे घर लौट नहीं पाए हैं। आज की बात फारुख अब्दुल्ला के बयान पर है जिन्होंने एक बहुत महत्वपूर्ण बात यह भी कही है कि अगर इस देश के नेता राजनीति और धर्म को एक-दूसरे से अलग नहीं करेंगे, तो यह देश नहीं चल पाएगा। उनका हमला बिल्कुल साफ था और उन्होंने केंद्र सरकार की अगुवाई कर रही भाजपा के बारे में कहा कि उनके पास संसद में 300 सदस्य हैं, लेकिन वह महिला अधिकार विधेयक क्यों पारित नहीं करते, वे नहीं चाहते कि महिलाओं को वह दर्जा मिले जो मर्दों को मिला हुआ है।
फारुख अब्दुल्ला की कही हुई बातों की गंभीरता को समझने की जरूरत है। उन्होंने अपने रहते हुए कश्मीर में कभी हिंदू और मुस्लिम के बीच में फर्क नहीं किया था, और कश्मीरी पंडितों को जिन हालात में कश्मीर छोडऩा पड़ा उसके पीछे दूसरे लोग थे। आज अगर वे इस बात को कह रहे हैं कि धर्म और राजनीति को अगर अलग नहीं किया गया तो यह देश चल नहीं पाएगा, उस बात की गंभीरता को समझना चाहिए। हिंदुस्तान में धर्म की राजनीति करने वाले लोगों की कमी नहीं है, और धर्म के बिना राजनीति करने वाले लोगों की भी कमी नहीं है। दिक्कत यह होती है कि जब दूसरे धर्म से नफरत से सिखाकर अपने धर्म के लोगों को एक करने का काम किया जाता है, तो नफरत में लोगों को जोडऩे की ताकत अधिक रहती है। मोहब्बत जब तक लोगों को कुछ समझा पाती है तब तक नफरत लोगों को एकजुट कर चुकी रहती है, और खासकर जब एक काल्पनिक दुश्मन को सामने पेश करके उसके खिलाफ आत्मरक्षा के लिए एक होने की बात लोगों को समझाई जाती है तो कमअक्ल लोग ऐसी बात को तेजी से समझ लेते हैं। और फिर हिंदुस्तान तो है ही ऐसे लोगों का देश जिनके बारे में सुप्रीम कोर्ट के एक भूतपूर्व जज जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा था कि 90 फीसदी हिंदुस्तानी बेवकूफ हैं। यहां के आम लोग जिस तरह धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर, एक दूसरे के खिलाफ हिंसा करने पर उतारू हो जाते हैं, उससे यह बात साबित होती है कि लोगों की बहुतायत बेवकूफों की है। अब कश्मीर तो एक बहुत नाजुक मुद्दा हो गया, वहां के लिए तो हिंदू-मुस्लिम की एकता बहुत जरूरी है ही क्योंकि लाखों कश्मीरी पंडित अपना घर खोकर, बेवतन होकर कश्मीर के बाहर पड़े हुए हैं, और एक शरणार्थी की तरह की जिंदगी जी रहे हैं। जिन पार्टियों ने अपनी पूरी जिंदगी कश्मीरी पंडितों की वापिसी के नारे के साथ गुजारी है उन पार्टियों को भी आज कश्मीरी पंडितों की कोई परवाह नहीं रह गई है। इसलिए जब फारुख अब्दुल्ला कश्मीर के एक मुस्लिम नेता की हैसियत से और एक धर्मनिरपेक्ष भूतपूर्व मुख्यमंत्री की हैसियत से यह बात कहते हैं कि राजनीति और धर्म को अलग करना चाहिए तो उसके मतलब समझने की जरूरत है।
आज हिंदुस्तान में जगह-जगह जिस तरह धर्म के नाम पर राजनीति की जा रही है और धर्मों को आपस में बांटकर उनका ध्रुवीकरण करके राजनीति की जा रही है उसका एक असर कश्मीर पर भी पड़ रहा है। कश्मीर हिंदुस्तान का हिस्सा है और उससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह बाकी हिंदुस्तान के हिंदू-मुस्लिम मुद्दों से अछूता रह जाएगा। आज देश के कुछ राज्यों में चुनाव हैं जिनमें से एक उत्तर प्रदेश भी है और उत्तर प्रदेश को लेकर जितने किस्म के धार्मिक कर्मकांड लेकर, जितने किस्म के धर्मांध ध्रुवीकरण की कोशिश वहां पर की जा रही है, उसका असर देश में जगह-जगह न सिर्फ मुस्लिमों पर पड़ रहा है, बल्कि दूसरे गैर हिंदू अल्पसंख्यकों पर भी पड़ रहा है। फारुख अब्दुल्ला ने कश्मीर के संदर्भ में भी कहा है और पूरे हिंदुस्तान के सिलसिले में भी उन्होंने इस बात को कहा है और उसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। आज हिंदुस्तान का कोई राजनीतिक दल यह सोचे कि यहां लोगों की नागरिकता खत्म करके उन्हें प्रताडऩा शिविरों में रखा जाएगा और उनके धर्म के लोगों पर कश्मीर या दूसरे प्रदेशों में कोई असर नहीं होगा, तो यह सोचना बहुत ही अलोकतांत्रिक है। आज देश में जगह-जगह कुछ राजनीतिक दलों और कुछ सरकारों का रुख जिस हद तक मुस्लिमों के खिलाफ दिखता है और मुस्लिमों के खिलाफ एक हमलावर तेवर बनाए रखने के लिए हिंदू धर्म का जैसा इस्तेमाल किया जा रहा है उसका असर भी न सिर्फ हिंदुस्तान के मुस्लिम समुदाय पर पड़ता है, बल्कि दुनिया में कई देशों में वहां की मुस्लिम आबादी पर भी पड़ता है जो कि हिंदुस्तानी लोगों को बड़ी संख्या में रोजगार देती है। भारत में मुस्लिमों के साथ अगर ज्यादती होती है तो खाड़ी के देशों में काम करने वाले गैर मुस्लिम हिंदुस्तानियों को भी उसका दाम चुकाना पड़ता है।
हमने दुनिया के बहुत से देशों को देखा है जहां पर सत्ता की राजनीति धर्म के आधार पर की गई और उसका क्या नतीजा हुआ। यह पाकिस्तान में भी देखने मिल रहा है और इस्लामी नारों के साथ चलाए जा रहे आतंक के दूसरे देशों में भी। धर्म का मिजाज ही ऐसा रहता है कि वह किसी भी लोकतंत्र और किसी भी संविधान के ऊपर हावी होने की कोशिश करता है और हिंदुस्तान को इससे बचना भी चाहिए। फारुख अब्दुल्ला की कही बातें देशभर में सोचने-विचारने लायक हैं। उन्होंने और भी बहुत से मुद्दों को लेकर कहा है, जिसमें उन्होंने यह भी याद किया है कि जिस वक्त उनके पिता शेख अब्दुल्ला कश्मीर के सबसे बड़े नेता थे, उस दौर में, 1947 में जब भारत पाकिस्तान का विभाजन हुआ, उस पूरे दौर में भी पूरे कश्मीर में एक भी हिंदू को नहीं मारा गया। वहां की स्थानीय लीडरशिप थी जिसने इस बात की गारंटी की थी कि वहां सांप्रदायिक दंगे ना हों। लेकिन बाद के वर्षों में जब केंद्र सरकार के तैनात किए हुए राज्यपाल ने वहां रहते हुए कश्मीरी पंडितों के कश्मीर छोडऩे का माहौल बनने दिया, उनके निकलने का इंतजाम किया, तो यह देखना तकलीफदेह रहा कि उसके बाद उसी अफसर जगमोहन को पद्म भूषण और पद्म विभूषण दिया गया। ऐसी तमाम बातों से सीख और सबक लेना चाहिए क्योंकि कश्मीर आज भी कश्मीरी पंडितों के वापस लौटने लायक प्रदेश नहीं बन पाया है। पूरी तरह से केंद्र सरकार के काबू में उसे कई बरस हो चुके हैं। लेकिन अब तक कश्मीरी पंडितों की वापिसी के मुद्दे पर बात दो कदम भी आगे नहीं बढ़ी है। हिंदुस्तान में धर्म को राजनीति से अलग किए बिना इस देश को न तो चलाया जा सकता है और न ही बचाया जा सकता है। इस बात को नेता समझें न समझें, जनता को गंभीरता से समझ लेना चाहिए और यह मानकर चलना चाहिए कि धर्म के नाम पर जो लोग राजनीति कर रहे हैं वह हिंदुस्तान को खत्म करने का काम कर रहे हैं।
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