संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वैक्सीन से परहेज करते पश्चिम को हिंदुस्तान से सीखने की जरूरत
18-Dec-2021 3:18 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वैक्सीन से परहेज करते पश्चिम को हिंदुस्तान से सीखने की जरूरत

हिंदुस्तान में तो अभी कोरोना के नए वेरिएंट ओमिक्रॉन का खतरा सीमित मन जा रहा है क्योंकि न अधिक पॉजिटिव मिले हैं और न ही इससे मौतें हो रही हैं। लेकिन दुनिया के वैज्ञानिकों और जानकार लोगों का यह मानना है कि 77 देशों में तो यह अभी तक जाँच में मिल चुका है, लेकिन अगर जांच के अलावा भी अंदाज लगाएं तो यह हर देश में पहुंच चुका होगा। ऐसे में हिंदुस्तान में भी इसका हमला कितना हो चुका है इसका अंदाज जांच के नतीजों से नहीं निकल सकता क्योंकि इस देश में लोग जांच से बचते हुए इधर-उधर घूमते रहते हैं। लेकिन कोरोना की यह नई किस्म कितनी खतरनाक है इसका अंदाज लगाने के लिए ब्रिटिश सरकार का यह अंदाज देखना चाहिए कि वहां पर अगले 4 महीनों में 75 हजार लोगों की मौत ओमिक्रॉन से होने की आशंका है। यह आंकड़ा भारत के मुकाबले यूके की छोटी आबादी के अनुपात में देखने की जरूरत है, और अगर ऐसी नौबत हिंदुस्तान में आती है तो इस संख्या से कई गुना अधिक लोगों की मौत यहां हो सकती हैं, हिंदुस्तान की आबादी यूके से 13 गुना अधिक है। फर्क सिर्फ यही है कि हिंदुस्तान में सरकार जितनी वैक्सीन लगा पा रही हैं, उससे अधिक लोग वैक्सीन लगवाने के लिए तैयार हैं। दूसरी तरफ पश्चिम के देशों में लोग वैक्सीन को लेकर कई तरह की आशंकाओं से भरे हुए हैं और उन्हें अपनी संवैधानिक आजादी की अधिक फिक्र है कि वैक्सीन लगवाना कानूनी अनिवार्य नहीं है। सरकारें लोगों को मना-मना कर थक गई हैं और यूरोप के कई विकसित देशों में तो जब सरकार ने यह तय किया कि सार्वजनिक जगहों पर लोगों की आवाजाही उसी हालत में हो सकेगी जब उन्होंने वैक्सीन लगवा ली होगी, तो लोगों ने वहां दंगा कर दिया, पुलिस को गोलियां भी चलानी पड़ी। लोगों का वैक्सीन पर भरोसा कम है, और अपने नागरिक अधिकारों पर अधिक। नतीजा यह हो रहा है कि सबसे विकसित देश आज सबसे अधिक खतरनाक हालत में हैं, क्योंकि वहां तमाम आबादी को लगाने के लिए टीके तो हैं, लेकिन आबादी का एक बड़ा हिस्सा टीके लगवाने को तैयार नहीं है।

जब लोगों की सोच ऐसी हो जाती है तो उससे किस तरह का खतरा पैदा होता है यह समझने की जरूरत है। यूरोप और अमेरिका में बहुत सी जगहों पर लोग खुलकर टीकों के खिलाफ खड़े हुए हैं। और वे अपनी मर्जी के पक्ष में संविधान में दिए गए अधिकारों को भी गिनाते हैं। हो यह रहा है कि लोग टीके नहीं लगवा रहे हैं और जब संक्रमण बढ़ रहा है तो यह लोग अस्पताल जा रहे हैं। टीके लगवाने के पीछे इनका तर्क है कि उन्हें विज्ञान पर भरोसा नहीं है, कि यह वैक्सीन अभी पूरे ट्रायल से गुजरी नहीं है। दूसरी तरफ जब वह बीमार पड़ते हैं तो इसी चिकित्सा विज्ञान पर पूरा भरोसा हो जाता है, और वे इलाज के लिए अस्पताल जा रहे हैं, और किसी भी देश में इलाज की सीमित क्षमता को खत्म कर दे रहे हैं। नतीजा यह हो रहा है कि टीके लगवाए हुए लोग जब कोरोनावायरस से संक्रमित होकर या किसी और बीमारी के इलाज के लिए अस्पताल पहुंचते हैं तो वहां उन्हें जगह नहीं मिल रही। अब विज्ञान पर जिन्हें भरोसा नहीं है, और जो बिना टीकों के रहना चाहते हैं, उन्हें इलाज के लिए विज्ञान पर पूरा भरोसा है। यह नौबत इन तमाम देशों में टीके लगवाए हुए लोगों के लिए अधिक बड़ा खतरा बन रही है जो कि सामाजिक जिम्मेदारी से काम ले रहे हैं। लेकिन दूसरे गैरजिम्मेदार लोगों की लापरवाही की सजा भुगत रहे हैं। यह कुछ वैसा ही है कि सडक़ पर ठीक से गाड़ी चलाते हुए लोग किसी नशेड़ी ड्राइवर की लापरवाह ड्राइविंग की सजा भुगतते हैं।

हिंदुस्तान दुनिया के उन देशों में है जहां पर वैक्सीन के लिए प्रतिरोध सबसे ही कम है। लोगों को हैरानी भी हो सकती है कि यह देश धर्म के बोझ से दबा हुआ है, यहां तरह-तरह के अंधविश्वास हैं, यहां लोगों की वैज्ञानिक सोच को लगातार खत्म किया जा रहा है, फिर भी लोग वैक्सीन के खिलाफ क्यों नहीं है? और क्यों लंबी-लंबी कतारें लगाकर भी लोग वैक्सीन लगा रहे हैं, जबकि इसके लिए किसी तरह के कोई इनाम नहीं रखे गए हैं। दुनिया के कई देशों में तो बड़े-बड़े इनाम रखने के बाद भी लोग वैक्सीन लगवाने सामने नहीं आ रहे हैं। दरअसल हिंदुस्तान में आजादी के बाद से लगातार आधी सदी तक तो लोगों की सोच को वैज्ञानिक बनाकर रखा गया था, और हर तरह के विज्ञान के लिए लोगों के मन में बड़ा सम्मान था। लोगों ने विज्ञान और टेक्नोलॉजी, चिकित्सा विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, कृषि विज्ञान जैसे बहुत से क्षेत्रों में विकास देखा था, और उसके फायदे भी देखे थे। लोगों ने भारत के अंतरिक्ष संस्थान इसरो को उस समय से काम करते देखा था जब उपग्रह को साइकिल और बैलगाड़ी पर ले जाकर वहां से अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी की जाती थी। इसलिए लोगों की सोच वैज्ञानिक बनी हुई थी, और देश के हर बच्चे को जब पोलियो ड्रॉप्स दिए गए तो भी तमाम आबादी ने उत्साह के साथ इस वैक्सीन को मंजूर किया। इसके अलावा भी कई और तरह की वैक्सीन इस देश में बच्चों को दी गई और कम पढ़े-लिखे, गांवों में रहने वाले, जंगलों में रहने वाले लोगों ने भी अपने बच्चों को सारे टीके लगवाए थे। उसी समय की सोच अब तक काम आ रही है और कोई कोरोना वैक्सीन प्रतिरोध नहीं कर रहा है। आबादी में जिन लोगों को अभी वैक्सीन लगना शुरू नहीं हुआ है या जिस उम्र के लिए शुरू भी हो गया है और उनकी बारी नहीं आई है, वे सारे लोग वैक्सीन का इंतजार कर रहे हैं, उससे कतरा नहीं रहे हैं। पश्चिम के विकसित देशों के मुकाबले कम पढ़े-लिखे हिंदुस्तान से दुनिया को आज बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। भारत की आज की इस हालत से यह भी साबित होता है कि लोगों के वैज्ञानिक का सोच जो कि बहुत लंबे समय में ढलकर मजबूत हुई है, उसे आनन-फानन रफ्तार से खत्म भी नहीं किया जा सकता है।
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