विचार / लेख
-आर.के. पलीवाल
हाल ही में जीएसटी विभाग के छापों में समाजवादी इत्र के नाम से व्यापार करने वाले पीयूष जैन के समाचार ने अखबारों, चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक पर सनसनी फैला रखी है। कुछ उसे बेवकूफ कहकर मजाक उड़ा रहे हैं कि दो सौ करोड़ रुपए नकद के बावजूद स्कूटर चलाता है, कोई कह रहा है वो इस काले धन को सफेद नहीं कर पाया आदि-आदि।
इस मामले की जिस गहराई से पड़ताल होनी चाहिए वह कहीं दिखाई नहीं दे रही.... जांच के मुख्य बिंदु यह होने चाहिए.....
1. नोटबंदी के बाद एक व्यक्ति यदि कुछ वर्ष में इतना काला धन इकट्ठा कर सकता है तो इसका मतलब यह हुआ कि हमारे काला धन नियंत्रित करने का पूरा तंत्र विफल है। क्या हमें नोटबंदी के बाद अपने कानूनों में कुछ ऐसी सजा के प्रावधान नहीं करने चाहिए जिससे भविष्य में कोई काला धन इकट्ठा करने का ख्याल ही मन में नही लाए अन्यथा नोटबंदी के बाद दो साल तक आम जनता ने जो कष्ट भोगे हैं वे सब गड्ढे में गए दिखेंगे।
2. कोई व्यापारी इतने दिन तक कैसे अपने व्यापार को इतना कम दिखाता रहा। जीएसटी लाने का भी बड़ा तर्क यही था कि इससे कर चोरी रुक जाएगी।
3. क्या इस धन में किसी भ्रष्ट राजनेता या बड़े अफसर आदि का हिस्सा है जिसे नकदी के रुप में चुनाव आदि के लिए रखा गया था अन्यथा व्यापारी इसका जमीन जायदाद में इन्वेस्टमेंट कर देता।
कुल मिलाकर यह मामला भ्रष्टाचार कम हुआ है, काला धन कम हुआ है, कर चोरी कम हुई है आदि तमाम दावों के मुंह पर बड़ा तमाचा मारता है। कोई यह कहकर भी नहीं बच सकता कि यह अपनी तरह का अकेला अपवाद है। इधर आयकर विभाग के बहुत से छापों में भी सैकड़ों करोड़ों की हेरा-फेरी सामने आई है।
असली मुद्दा तो यह है कि हमारे समाज में जब तक काले धन के प्रति नफरत का भाव और ऐसे मामलों में कड़ी सजा का प्रावधान पैदा नहीं होता तब तक कोई खास परिर्वतन बहुत मुश्किल है।
आप अपने शहर में ही थोडा झांककर देखिए, आपके सांसद, विधायक, पार्षद, मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा समिति के पदाधिकारी और अधिकांश अधिकारी, पत्रकार आदि ऐसे ही जैनों और इत्रों के व्यापारियों आदि के इर्द गिर्द चक्कर लगाते मिल जाएंगे।
(जैन हवाला मामला भी आपको याद ही होगा।)