विचार / लेख

विनोद कुमार शुक्ल और आलोचना के प्रतिमान
01-Jan-2022 5:34 PM
विनोद कुमार शुक्ल और आलोचना के प्रतिमान

-ईश्वर सिंह दोस्त

एक जनवरी, 2022. अप्रतिम रचनाकार विनोद कुमार शुक्ल को जन्मदिन पर उनके रचनाकर्म के बरक्स आलोचना की चुनौतियों पर एक छोटी सी टिप्पणी-

विनोद कुमार शुक्ल बहुत ही सहज मगर अद्भुत वाक्यों के सर्जक हैं, जो पाठक को एक ही साथ आश्वस्ति और आश्चर्य की दुनिया में ले जाते हैं। इन वाक्यों की परस्परता से बनी एक ऐसी आत्मीय दुनिया, जहां से गुजरकर कोई भी ज्यादा नई अंतर्दृष्टियां हासिल कर सके और ज्यादा भाव-संपन्न हो जाए। ये वाक्य कथा, उपन्यास, कविता ही नहीं, बातचीत और संस्मरण का भेष भी धरे हो सकते हैं। कागज पर उभरे हुए हो सकते हैं और आवाज बन हवा में उभरते और विलीन होते हुए। एक वाक्य का कौतुक दूसरे की तरफ खींचता है। एक वाक्य का अर्थ दूसरे में घुल जाता है।

विनोद कुमार शुक्ल गद्य और पद्य के बने-बनाए साँचों की और तमाम दूसरे साँचों की भंगुरता के विधान के लेखक हैं। वे उन विरल रचनाकारों में हैं, जो आलोचना के प्रचलित प्रतिमानों के लिए चुनौती बन जाते हैं। आलोचना कभी ऐसी रचनाशीलता को खारिज करती है, कभी शर्तों के साथ स्वीकार करती है। मगर एक वक्त वह आता है, जब आलोचना अपनी ही प्रामाणिकता की खोज में खुद से सवाल करती है और अपने अधूरेपन की आत्म-चेतना के आलोक में नया रास्ता तलाशती है।

वैसे आलोचना का एक मुख्य काम प्रतिमान बनाना होता है। संस्कृति व साहित्य सिद्धांतों में बड़ी तबदीली से ये बनते हैं। मगर नई रचनाशीलता भी नए प्रतिमानों को गढऩे का दबाव बनाती रहती है। विनोद कुमार शुक्ल हमारे वक्त के ऐसे ही रचनाकार हैं, जिनसे मुखातिब होकर आलोचना प्रतिमानों में उलट-फेर कर सकती है।

रचना के बरक्स आलोचना की मजबूरी यह होती है कि वह अवधारणाओं का सहारा लेती है। अवधारणाएं ऐसी सवारी है जो जल्द ही सवार पर सवार हो जा सकती है। अवधारणाओं का हश्र अकसर द्विभाजनों में होता रहा है। यथार्थवाद बनाम रूपवाद एक ऐसा ही अखाड़ा था, जहां रूप और यथार्थ (जानबूझ कर मैं यहां कथ्य नहीं कह रहा हूं) की द्वंद्वात्मकता को पीट-पीटकर इकहरा बना दिया जाता था। मानो रचना में यथार्थ और रूप का निबाह एक-दूसरे से विलगाव से ही हो सकता हो।    
 
पहले शमशेर, मुक्तिबोध और अब विनोद कुमार शुक्ल ने यह सोचने के लिए मजबूर किया है कि यथार्थ इतना बहुस्तरीय, बहुलार्थी और अंतर्विरोधी हो सकता है कि किसी एक लेखन शैली की पकड़ में नहीं आ सके। साहित्य यथार्थ को मु_ी में भरता है, मगर रेत और समय की तरह हाथ से फिसलने भी देता है।

यूरोप में 18वीं-19वीं सदी में उभरा व भारत में 20वीं सदी में फला-फूला यथार्थवाद एक शिल्प के रूप में थक गया है। जिन रचनाकारों ने यथार्थ को इस शिल्प के पुराने चौखटे से बाहर निकाला और यथार्थ की समझ को नया व विस्तृत किया, उनमें विनोद जी एक प्रमुख नाम हैं।

विनोद जी के शिल्प में कामनाएं, फंतासी, निराशा और उम्मीद यथार्थ के परिसर से बाहर नहीं की जाती। फिर भी उनके संदर्भ में लातीनी अमेरिका में उदित हुआ जादुई यथार्थवाद नामक पद काफी अधूरा और अपर्याप्त लगता है, जिसे अकसर उनके साथ जोड़ दिया जाता है। फंतासी, जादुई कल्पनाशीलता ये सब कुछ तो विनोद जी के यहाँ हैं ही। मगर जो बात उनकी ही खालिस देन लगती है, वह है कथन की निश्चयात्मकता में भी संभावना की संभावना को खुला रखना। हम जानते हैं कि नाम देना और निरूपित करना यथार्थ में बिखरी बहुत सी संभावनाओं को सीमित कर देता है। मगर विनोद जी अपनी कविताओं, कथाओं व उपन्यासों में यथार्थ के कथन को एक प्रस्तावना की तरह रखते हैं, मानो पाठक उसमें सहज ही कुछ घटा या जोड़ सकता हो।

कहना न होगा कि विनोद कुमार शुक्ल के वाक्य कविता या उपन्यास, बातचीत जिस भी रूप में हों, पाठक को सोचने की जगह देते जाते हैं। वैसे भी साहित्य का काम ज्ञान बांटना नहीं, बल्कि नए अहसासों व दृष्टियों के जरिए सोचने के लिए नए परिप्रेक्ष्य मुहैया कराना होता है। ज्ञान का काम दूसरे अनुशासन पहले से बखूबी कर रहे हैं।   

विनोद कुमार शुक्ल पाठक को नए अनुभव संसार में ले जाते हैं। जहां वह पहले से देखे और बरते गए और किन्हीं छवियों या मान्यताओं के रूप में रूढ़ हो गए अपने संसार से अपरिचित हो सकता है। यह बगैर कल्पना और/या फंतासी के संभव नहीं, मगर विनोद जी उसे यथार्थ की तरह ही सामने लाते हैं। नतीजे में पाठक रोजमर्रे के जीवन की किसी बंधी हुई वास्तविकता से बाहर कदम रख एक वैकल्पिक खिडक़ी के जरिए अपने ही होनेपन या अस्तित्व की नई संभावनाशीलता में दाखिल हो जाता है। जो है और जो होना चाहिए (‘इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए’) एक दूसरे में घुलमिलकर एक संभावनाशील यथार्थ खड़ा कर देते हैं।

हमारे समय में विनोद कुमार शुक्ल का रचना संसार बहुत से द्विभाजनों या बाइनरीज की अपर्याप्तता का विश्वसनीय संकेतक है। इनमें से एक द्विभाजन सत्य और सौंदर्य का भी है। यथार्थ व रूप की तरह विनोद जी राजनीति, लोकतंत्र, प्रकृति जैसी वास्तविकताओं को भी नया अर्थ विस्तार देते हैं। (जिस पर चर्चा फिर कभी।)
                                       

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news