विचार / लेख
-प्रमोद भार्गव
माता वैष्णव देवी तीर्थ क्षेत्र में मची भगदड़ में 12 श्रद्धालुओं की मृत्यु हो गई। 15 घायल भी हैं, जिनमें चार की हालत गंभीर है। यह घटना आदि रात के बाद गर्भगृह के द्वार नंबर-3 के पास घटी। नए साल का समय होने के कारण भीड़ तो ज्यादा थी ही, इंतजाम भी पुख्ता नहीं थे। कटरा स्थित आधार शिविर से भीड़ अधिक होने पर दर्शनार्थियों को रोक-रोककर छोड़ा जाता है, किंतु इस बार ऐसा कोई प्रबंध सुरक्षाकर्मियों द्वारा नहीं किया गया है। नतीजतन कुछ दशनार्थियों के बीच मुंहवाद हुआ और भगदड़ मच गई। जिसके चलते 12 लोग घटनास्थल पर ही दम घुटने और कुचलने से काल के गाल में समा गए। ऐसा भी कहा जा रहा है कि किसी व्हीआईपी को माता के दर्शन कराने के लिए रास्ता खाली करवाने के चलते यह हादसा हुआ। जांच से पता चलेगा कि वास्तविकता क्या थी? हालांकि ऐसे हादसों की अक्सर लीपा-पोती करके इतिश्री कर ली जाती है। मंदिरों में इस तरह की घटना कोई नई बात नहीं है, बावजूद बद्इंतजामियां और लापरवाहियां अपनी जगह कायम हैं। शासन-प्रशासन मौत का मुआवजा देकर अपने कत्र्तव्य की भरपाई कर लेते हैं।
भारत में पिछले डेढ़ दशक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही है। जिसके चलते दर्शन-लाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाली भगदड़ व आगजनी का सिलसिला हर साल देखने में आ रहा है। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती। इसलिए उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अक्सर देखने में नहीं आती। लिहाजा आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमोबेश बेकाबू ही नहीं हुए होते ?
हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक आयोजन विराट रुप लेते जा रहे हैं। कुंभ मेलों में तो विशेष पर्वों के अवसर पर एक साथ तीन-तीन करोड़ तक लोग एक निश्चित समय के बीच स्नान करते हैं। दरअसल भीड़ के अनुपात में यातायात और सुरक्षा के इंतजाम देखने में नहीं आते। जबकि शासन-प्रशासन के पास पिछले पर्वों के आंकड़े और अनुभव होते है। बावजूद लपरवाही बरतना हैरान करने वाली बात है। दरअसल, कुंभ या अन्य मेलों में जितनी भीड़ पहुंचती है और उसके प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की जरुरत होती है, उसकी दूसरे देशों के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते ? इसलिए हमारे यहां लगने वाले मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से नहीं ले सकते? क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेष मुहूर्त के समय लाखों-करोडों़ की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जा सकती? बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण, लेने खासतौर से योरुपीय देशों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देशज ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे।
प्रशासन के साथ हमारे राजनेता, उद्योगपति, फिल्मी सितारे और आला अधिकारी भी धार्मिक लाभ लेने की होड़ में व्यवस्था को भंग करने का काम करते हैं। इनकी वीआईपी व्यवस्था और यज्ञ कुण्ड अथवा मंदिरों में मूर्तिस्थल तक ही हर हाल में पहुंचने की रुढ़ मनोदशा, मौजूदा प्रबंधन को लाचार बनाने का काम करती है। नतीजतन भीड़ ठसाठस के हालात में आ जाती है। ऐसे में कोई महिला या बच्चा गिरकर अनजाने में भीड़ के पैरों तले रौंद दिया जाता है और भगदड़ मच जाती है। कुछ साल पहले आंध्रप्रदेश में गोदावरी तट पर घटी घटना एक साथ दो मुख्यमंत्रियों के स्नान के लिए रोक दी गई भीड़ का परिणाम थी। दरअसल दर्शन-लाभ और पूजापाठ जैसे अनुष्ठान अशक्त और अपंग मनुष्य की वैशाखी हैं। जब इंसान सत्य और ईश्वर की खोज करते-करते थक जाता है और किसी परिणाम पर भी नहीं पहुंचता है तो वह पूजापाठों के प्रतीक गढक़र उसी को सत्य या ईश्वर मानने लगता है। यह आदमी की स्वाभाविक कमजोरी है। यथार्थवाद से पलायन अंधविश्वास की जड़ता उत्पन्न करता है। भारतीय समाज में यह कमजोरी बहुत व्यापक और दीर्घकालिक रही है। जब चिंतन मनन की धारा सूख जाती है तो सत्य की खोज मूर्ति पूजा में बदल जाती है। जब अध्ययन के बाद मौलिक चिंतन का मन-मस्तिष्क में हृास हो गया तो आदमी भजन-कीर्तन में लग गया। यही हश्र हमारे पथ-प्रदर्शकों का हो गया है। नतीजतन पिछले कुछ समय से सबसे ज्यादा मौतें भगदड़ की घटनाओं और सडक़ दुर्घटनाओं में उन श्रद्धालुओं की हो रही हैं, जो ईश्वर से खुशहाल जीवन की प्रार्थना करने धार्मिक यात्राओं पर जाते हैं।
धार्मिक स्थलों पर भीड़ बढ़ाने का काम मीडिया भी कर रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया टीआरपी के लालच में इसमें अहम् भूमिका निभाता है। वह हरेक छोटे-बड़े मंदिर के दर्शन को चमात्कारिक लाभ से जोडक़र देश के भोले-भाले भक्तगणों से एक तरह का छल कर रहा है। इस मीडिया के अस्तित्व में आने के बाद धर्म के क्षेत्र में कर्मकाण्ड और पाखण्ड का आंडबर जितना बड़ा है, उतना पहले कभी देखने में नहीं आया। इसकी पृष्ठभूमि में बाजारवाद की भूमिका भी रहती है। निर्मल बाबा, कृपालू महाराज और आशाराम बापू, रामपाल जैसे संतों का महिमामंडन इसी मीडिया ने किया था। हालांकि यही मीडिया पाखण्ड के सार्वजनिक खुलासे के बाद मूर्तिभंजक की भूमिका में भी खड़ा हो जाता है। निर्मल बाबा और आशाराम के साथ यही किया गया। मीडिया का यही नाट्य रुपांतरण अलौकिक कलावाद, धार्मिक आस्था के बहाने व्यक्ति को निष्क्रिय व अंधविश्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथास्थिति में बनाए रखने का काम करती है और हम ईश्वरीय अथवा भाग्य आधारित अवधारणा को प्रतिफल व नियति का कारक मानने लग जाते हैं। दरअसल मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवियों का काम लोगों को जागरूक बनाने का है, लेकिन निजी लाभ का लालची मीडिया, लोगों को धर्मभीरू बना रहा है। राजनेता और धर्म की आंतरिक आध्यात्मिकता से अज्ञान बुद्धिजीवी भी धर्म के छद्म का शिकार होते दिखाई देते हैं। यही वजह है कि पिछले एक-डेढ़ दशक के भीतर मंदिर हादसों में लगभग 3500 से भी ज्यादा भक्त मारे जा चुके हैं। बावजूद श्रद्धालु हैं कि दर्शन, आस्था, पूजा और भक्ति से यह अर्थ निकालने में लगे हैं कि इनको संपन्न करने से इस जन्म में किए पाप धुल जाएंगे, मोक्ष मिल जाएगा और परलोक भी सुधर जाएगा। गोया, पुनर्जन्म हुआ भी तो श्रेष्ठ वर्ण में होने के साथ समृद्ध व वैभवशाली भी होगा। जाहिर है, धार्मिक हादसों से छुटकारा पाने की कोई उम्मीद निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रही है ?
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)