संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : महिला सर्जन की जगह पुरुष सर्जन हो तो महिला मरीज को मौत का खतरा 31% अधिक !
05-Jan-2022 4:43 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : महिला सर्जन की जगह पुरुष सर्जन हो तो महिला मरीज को मौत का खतरा 31% अधिक !

कनाडा के ओंटारियो शहर में 2007 से 2019 के बीच 13 लाख से अधिक मरीजों की सर्जरी का एक अध्ययन हुआ। इनके मेडिकल रिकॉर्ड लेकर वहां की एक डॉक्टर ने एक बड़ा विस्तृत अध्ययन किया है और उसके नतीजे हैरान करने वाले हैं. ऐसे बहुत ही कम अध्ययन होते हैं जिसमें इतनी बड़ी संख्या में सैंपल रहते हों। और यह सैंपल किसी जुबानी बातचीत के आधार पर नहीं छांटे गए थे बल्कि अस्पताल के रिकॉर्ड और ऑपरेशन के बाद के भी पूरे रिकॉर्ड को देखते हुए इनका विश्लेषण किया गया. यह नतीजा निकला है कि अगर मरीज महिला है और उसकी सर्जरी करने वाला सर्जन पुरुष है तो महिला मरीज के मरने का खतरा 32 फ़ीसदी अधिक रहता है, बजाय ऐसी नौबत के कि उसकी सर्जरी महिला ही कर रही है. मौत के अलावा 15 फ़ीसदी महिला मरीज पुरुष सर्जन द्वारा ऑपरेशन के बाद तरह-तरह की तकलीफें भुगतती हैं और उन्हें दोबारा अस्पताल दाखिल होना पड़ता है। दूसरी तरफ पुरुष मरीज का ऑपरेशन महिला सर्जन कर रही है, या पुरुष सर्जन कर रहे हैं, तो उससे मरीज की रिकवरी या उनके मरने पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इस अध्ययन में 13 लाख से अधिक मरीजों के ऑपरेशन का विश्लेषण किया गया है जिन्हें करने वाले सर्जन 3000 से अधिक थे। यह इतना बड़ा सैंपल साइज है कि इसके नतीजों को किसी संयोग या दुर्योग से सामने आने वाले आंकड़ों की तरह नहीं देखा जा सकता।

आज कनाडा के बाहर भी तमाम विकसित देशों में इसे लेकर बड़ी फिक्र हो रही है कि जब औरत और मर्द दोनों सर्जनों की ट्रेनिंग एक साथ होती है, पढ़ाई एक साथ होती है, तो उनकी की हुई सर्जरी में इतना बड़ा फर्क क्यों होना चाहिए? और फिर यह अध्ययन किसी एक-दो किस्म की सर्जरी पर नहीं हुआ है, इसमें 21 किस्म की सर्जरी का अध्ययन हुआ है जिसमें शरीर के हर हिस्से की सर्जरी शामिल है. इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि किसी खास किस्म की सर्जरी में महिला सर्जन का काम बेहतर रहता है और उसकी वजह से यह आंकड़े प्रभावित हुए हैं। यह अध्ययन करने वाली कनाडा की ही एक महिला चिकित्सक डॉ. एंजेला जैरथ ने कहां है कि इस अध्ययन के नतीजे फिक्र खड़ी करने वाले हैं क्योंकि महिला सर्जन द्वारा की गई सर्जरी के बाद मरीज आमतौर पर बेहतर हालत में रहे हैं, खासकर महिलाएं। और तमाम किस्म के दूसरे पैमानों का ध्यान रखने के बाद भी यह तथ्य पूरी तरह से निकल कर सामने आ रहा है कि पुरुष सर्जन के हाथों होने वाली सर्जरी के बाद महिला को कई किस्म की जटिलताएं भी झेलनी पड़ी हैं, और उनकी मौत का खतरा भी अधिक बड़ा रहा है।

आमतौर पर आंकड़ों को अगर बाकी परिस्थितियों, बाकी पैमानों का ध्यान रखे बिना, एक सच की तरह मान लिया जाए तो कभी-कभी धोखा भी होता है। लेकिन यह अध्ययन बड़ा अजीब है, एक विकसित देश में कंप्यूटर पर दर्ज ऑपरेशन और सेहत के रिकॉर्ड, मरीजों के रिकॉर्ड, सर्जन के नाम की जानकारी, इन सबको लेकर 12 बरस जितने लंबे वक्त की जानकारी से इसे किया गया है और इसके नतीजों को किसी खास वजह से प्रभावित होने वाला नहीं माना जा सकता। एक विकसित देश में अगर एक पुरुष सर्जन के हाथों महिला का उतना भला नहीं होता है जितना कि एक महिला सर्जन के हाथों होता है, तो क्या इसके पीछे पुरुषों के मन में महिला के लिए कोई हिकारत भी एक वजह हो सकती है? क्या ऐसा पूर्वाग्रह सर्जन के काम में भी फर्क डाल सकता है? ये बड़ी असुविधा खड़ी करने वाले सवाल हैं, और इस पर बहस शुरू भी हो चुकी है। हिंदुस्तान में तो हम देखते हैं कि आमतौर पर जब महिलाओं के नसबंदी शिविर लगते हैं, तो उन महिलाओं की हालत जानवरों से भी अधिक खराब रखी जाती है। फर्श पर अगर कोई दरी भी बिछी हुई मिल जाए तो भी वह महिला मरीज के लिए बड़ी बात रहती है। आमतौर पर तो महिला मरीजों को नसबंदी के बाद ठंडी फर्श पर ही लिटा दिया जाता है और ऐसे बहुत से मामले आए हैं जिनमें थोक में होने वाले ऐसे नसबंदी ऑपरेशनों के बाद महिला मरीजों की तबीयत बिगड़ती है, बहुत से मामलों में उनकी मौत भी हो जाती है। छत्तीसगढ़ में पिछली भाजपा सरकार के दौरान एक बड़ा भ्रष्टाचार और जुर्म स्वास्थ्य बीमा की रकम वसूल करने के लिए मरीजों के जबरिया ऑपरेशन का हुआ था. गांव से महिलाओं को थोक में लाकर उनके गर्भाशय निकाल दिए गए थे क्योंकि उनके इलाज कार्ड पर रकम बाकी थी और उससे सर्जरी का पैसा निकाला जा सकता था। हिंदुस्तान तो महिलाओं के खिलाफ भारी पूर्वाग्रह से भरा हुआ देश है और चिकित्सा व्यवस्था में भी हम महिलाओं के साथ ऐसे भेदभाव या उनके प्रति लापरवाही की उम्मीद करते है, जैसा भेदभाव या लापरवाही अभी कनाडा के इस अध्ययन में देखने मिला है। लेकिन एक विकसित देश में भी अगर महिलाओं के साथ उपेक्षा, लापरवाही, या अनदेखी जैसी वजहों से उनकी मौत का खतरा बढ़ रहा है, उनके ऑपरेशन बाद की जटिलता का मामला बढ़ रहा है, तो यह पश्चिम और विकसित देश में पूर्वाग्रह का एक बड़ा ही अलग नजारा पेश करता है।

इस मामले को लेकर तरह-तरह के दूसरे सामाजिक अध्ययनों की भी जरूरत लगती है कि महिलाओं के साथ और किस तरह के भेदभाव होते हैं। क्या हिंदुस्तान और दूसरी जगहों पर अदालतों के मामलों के ऐसे अध्ययन की जरूरत है कि एक पुरुष के जज रहने पर महिला या पुरुष आरोपी को सजा मिलने या उसके छूटने की संभावनाएं कैसी बदलती हैं? इसके साथ-साथ यह भी विश्लेषण करने की जरूरत है कि जब सरकारी वकील कोई पुरुष हो या कि कोई महिला हो, तो एक पुरुष या महिला आरोपी के सजा पाने या छूटने पर क्या कोई फर्क पड़ता है? हिंदुस्तान और दुनिया के बहुत से दूसरे देशों में महिलाओं के लिए एक आम हिकारत है। बहुत से इस्लामी देशों या कि बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देशों में भी महिलाओं की हालत बहुत खराब है इसलिए दुनिया के अच्छे विश्वविद्यालयों को ऐसे अध्ययन करने चाहिए कि महिलाओं के साथ कैसा-कैसा भेदभाव हो रहा है और जहां पर सोच-समझकर भेदभाव नहीं हो रहा है, वहां भी कनाडा की इन 13 लाख सर्जरियों की तरह महिला का नुकसान कैसा हो रहा है। अभी हम इस अध्ययन के नतीजों पर ज्यादा इसलिए नहीं कह रहे हैं कि यह अध्ययन अपने-आपमें बहुत कुछ कह रहा है। आगे इस पर अलग-अलग समूहों को चर्चा करनी चाहिए और अपने-अपने संदर्भ में ऐसी स्थितियों की कल्पना करनी चाहिए, उनका विश्लेषण करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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